विजयदान देथा: लोककथाओं के बीज से आधुनिक चेतना का वृक्ष
राजस्थानी साहित्य के महान कथाकार विजयदान देथा (बिज्जी) की जन्मशती पर विशेष लेख, जिन्होंने लोककथाओं को आधुनिक चेतना का स्वर दिया। ‘दुविधा’, ‘चरनदास चोर’ जैसी अमर कहानियों के लेखक पर जानिए विस्तार से।

विजयदान देथा (बिज्जी): लोककथाओं के जादूगर और आधुनिक चेतना के कथाकार
राजस्थानी साहित्य की विशाल परंपरा में एक नाम ऐसा है जो लोक स्मृति और आधुनिक चेतना के बीच पुल बनाकर खड़ा है विजयदान देथा। स्नेह से ‘बिज्जी’ कहे जाने वाले इस लोककथाकार का जन्म 1 सितंबर 1926 को जोधपुर रियासत के बोरुंदा गाँव में हुआ और 10 नवंबर 2013 को वहीं अंतिम सांस ली। लेकिन उनकी कहानियाँ आज भी राजस्थान की धरा से लेकर वैश्विक साहित्य तक जीवंत हैं।
लोक की धड़कन और साहित्य की आत्मा
विजयदान देथा ने कभी अपनी भाषा, अपना गाँव और अपनी लोक-परंपरा नहीं छोड़ी। चार वर्ष की आयु में पिता का साया सिर से उठ गया, पर बिज्जी का जीवन लोक-संस्कृति के सान्निध्य में बीता। शाह गोवर्धन लाल काबरा की प्रेरणा और मित्र कोमल कोठारी के साथ मिलकर उन्होंने 1960 में रूपायन संस्थान की स्थापना की, जिसने लोकगीतों, लोककलाओं और कथाओं को संरक्षित कर उन्हें अमरता प्रदान की।
देथा का साहित्य इस विश्वास से जन्मा कि लोककथा कोई मृत वस्तु नहीं, बल्कि जीवित बीज है, जिससे अनंत कहानियाँ ‘उगाई’ जा सकती हैं। वे कहते थे, “हवाई शब्द-जाल और विदेशी अपच का वमन मेरे लिए सार्थक नहीं। मुझे अपने पैरों तले की धरती से कण बटोरना अधिक जरूरी लगता है।”
विषय और वैचारिक प्रतिबद्धता
देथा का लेखन केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज में सवाल उठाने और चेतना जगाने का औजार है।
नारीवाद: ‘दुविधा’ में स्त्री की इच्छाओं और सामाजिक बंधनों के टकराव को उन्होंने साहसिक रूप से रखा।
सत्य और व्यंग्य: ‘खंटीलो चोर’ पर आधारित नाटक चरनदास चोर सत्ता और नैतिकता पर बड़ा सवाल खड़ा करता है।
समलैंगिकता और नारी स्वायत्तता: ‘दोहरी ज़िंदगी’ जैसी कहानियों में उन्होंने वर्जनाओं को तोड़ा।
फासीवाद-विरोध: ‘अलेखुं हिटलर’ दैनिक जीवन में छिपे अन्याय और अत्याचार की पड़ताल करता है।
पर्यावरण चेतना: ‘रूंख’ एक वृक्ष की जीवनगाथा के माध्यम से प्रकृति और मानव के संबंध को उजागर करता है।
उनकी कहानियाँ समाजवाद, सामंतवाद-विरोध, नारी सशक्तिकरण और मानवीय स्वतंत्रता का घोष करती हैं।
शिल्प और शैली
बिज्जी ने मौखिक परंपरा को आधुनिक साहित्यिक शिल्प दिया। उनकी भाषा मारवाड़ी की जीवंत बोलियों से बनी थी। ‘चौगास’ (कथा में कथा) जैसी शैली ने उनकी कहानियों को बहुस्तरीय बनाया। वे चतुर गड़ेरियों, मूर्ख राजाओं, चालाक भूतों और समझदार राजकुमारियों को इस तरह बुनते थे कि उनकी धड़कन आज के समाज तक सुनाई दे।
हिंदी, सिनेमा और वैश्विक पहचान
बिज्जी की कहानियाँ हिंदी अनुवाद के माध्यम से व्यापक पाठकों तक पहुँचीं। कैलाश कबीर के अनुवादों ने इन्हें देशभर में लोकप्रिय बनाया। सिनेमा और रंगमंच ने उन्हें नया जीवन दिया—
‘दुविधा’ (मणि कौल, 1973),
‘चरनदास चोर’ (शाम बेनेगल, 1975),
‘परिणति’ (प्रकाश झा, 1986),
‘पहेली’ (अमोल पालेकर, 2005),
‘कांचली’ (देदिप्या जोशी, 2020) जैसी फिल्में,
और हबीब तनवीर का कालजयी नाटक ‘चरनदास चोर’ इन सबकी जड़ में बिज्जी की कहानियाँ हैं।
2011 में जब उन्हें नोबेल साहित्य पुरस्कार के लिए नामित किया गया, तो वैश्विक साहित्य ने उस लेखक को पहचानना शुरू किया जिसने अपनी मातृभाषा राजस्थानी से कभी समझौता नहीं किया।
आलोचकों की दृष्टि
कथाकार मालचंद तिवाड़ी ने उनके निधन पर लिखा, “दो भाषाएँ मौन हो गईं। मानो सूरज टूटकर धरती पर गिर पड़ा।”
सचमुच, बिज्जी राजस्थानी के भारतेंदु हरिश्चंद्र थे। उन्होंने पूर्व-आधुनिक लोकधारा को आधुनिक चेतना से जोड़कर साबित किया कि ‘गाँव’ कभी पिछड़ा नहीं, बल्कि जीवन और सृजन का अनंत स्रोत है।
विजयदान देथा की कहानियाँ केवल राजस्थान की लोककथाएँ नहीं, बल्कि समाज की गहराइयों में छिपे सच का उद्घाटन हैं। उन्होंने दिखाया कि लोककथा अमर है, लेखक नश्वर। उनकी जन्मशती पर यही कहना उचित है- “बिज्जी, आप सचमुच धोक (भेंट) हैं, राजस्थान और हिंदी साहित्य को।”
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