न्याय की अदालत या अन्याय का मंच?
लेख में लेखक गोपाल नेवार 'गणेश' न्याय प्रणाली की देरी, असंवेदनशीलता और पीड़ित को होने वाले मानसिक-आर्थिक उत्पीड़न पर प्रश्न उठाते हैं। उनका कथन है कि आज न्याय की प्रक्रिया इतने विलंबित और पीड़ादायक रूप में है कि यह अन्याय का रूप लेने लगी है।

न्यायालय, यह शब्द अपने आप में ही उम्मीद, विश्वास और सच्चाई का प्रतीक माना जाता है। आम नागरिक जब वहाँ जाता है, तो वह आशा करता है कि न्याय त्वरित, निष्पक्ष और सत्य के पक्ष में होगा। परंतु अनुभव यह सिखाता है कि न्याय की इस राह में केवल न्याय नहीं, बल्कि तारीख़ पर तारीख़, सालों की प्रतीक्षा, और थक हारकर टूटते सपने होते हैं।
छोटे-छोटे मुकदमे भी वर्षों तक लटके रहते हैं। कई बार तो न्याय मिलने से पहले ही पीड़ित इस दुनिया से विदा ले लेता है। यह व्यवस्था अब ऐसे मोड़ पर पहुँच गई है जहाँ न्याय की आशा करना भी अन्याय जैसा महसूस होने लगा है।
कई मामलों में यह प्रतीत होता है कि अदालतें अब न्याय देने का नहीं, बल्कि पीड़ित को और अधिक पीड़ित करने का मंच बनती जा रही हैं - हँसते-खेलते परिवार बिखर जाते हैं, निर्दोष लोग झूठे मामलों में सालों तक जेल की सलाखों के पीछे ज़िंदगी बिताते हैं।
दर्दनाक पहलू यह भी है कि जहाँ एक ओर गीता पर हाथ रखकर झूठ बोला जाता है, वहीं शराबखानों में नशे में धुत लोग अपने जीवन के सबसे बड़े सच को उगल देते हैं। यह एक कटु, लेकिन कड़वी सच्चाई है - हमारी न्याय प्रणाली की असल तस्वीर।
इसलिए सवाल यह नहीं कि न्याय मिलेगा या नहीं, सवाल यह है कि क्या हम उस न्याय को जीते-जी देख भी पाएँगे?
लेखक – गोपाल नेवार 'गणेश', सलुवा खड़गपुर, पश्चिम मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल
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