भ्रष्टाचार से सभी को होता लाभ!
यह व्यंग्य भ्रष्टाचार की विडंबनापूर्ण स्वीकृति पर आधारित है, जिसमें बताया गया है कि कैसे रिश्वत सरकारी अफसरों की सुविधा, कर्मचारियों की तरक्की और आम आदमी के काम में तेजी लाती है। नौकरी से लेकर चुनाव और अर्थव्यवस्था तक, हर जगह भ्रष्टाचार ‘त्वरित सेवा’ और ‘आर्थिक निवेश’ जैसा व्यवहार कर रहा है। लेखक ने तीखे कटाक्ष के साथ यह दिखाया है कि जब अफसर, नेता और जनता सभी इससे खुश हैं तो कहना गलत नहीं होगा कि ‘भ्रष्टाचार से सभी को होता लाभ।‘

भारत जैसे देश में भ्रष्टाचार को लेकर जितनी निन्दा की जाती है, उतना ही अधिक यह हमारे जीवन में गहराई से समाया हुआ है। अख़बारों की सुर्खियों, टीवी की बहसों और सोशल मीडिया के क्रांतिकारी पोस्टों में भले इसे गाली दी जाती हो, पर असल ज़िन्दगी में यह ऐसा ‘अघोषित राष्ट्रीय त्योहार’ है, जिसमें हर कोई शामिल होता है चाहे वह अफसर हो, व्यापारी हो, या आम आदमी।
यह लेख किसी सुधार योजना का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि भारतीय जीवन की उस सच्चाई का आईना है, जिसे हम सभी जानते हैं पर बोलते नहीं। तो आइए, देखते हैं कैसे भ्रष्टाचार वास्तव में ‘सबको लाभ’ पहुँचाने वाली गुप्त राष्ट्रीय नीति बन चुका है।
अधिकारियों का मानसिक कल्याण
सरकारी नौकरी में बैठे अधिकारियों के जीवन को देखकर मत सोचना कि वे केवल गाड़ी और बंगले में ऐश कर रहे हैं। असल में उनकी दुनिया फाइलों, आदेशों, ट्रांसफर की धमकियों और मंत्रीजी के मूड के उतार-चढ़ाव से बनी है। ऐसे में यदि कोई ठेकेदार या व्यापारी उन्हें ‘प्रोत्साहन शुल्क’ दे दे, तो सोचिए कितनी राहत मिलती होगी उन्हें!
भ्रष्टाचार उनके जीवन में वही भूमिका निभाता है जो बीपी मरीज के लिए दवा निभाती है। इसके बिना न तो निर्णय लेने में उत्साह आता है, न ही फाइलों में गति। ‘प्रेम पत्र’ वाली फाइलें जल्दी चलती हैं, बाकी फाइलें सरकारी कागजों के कब्रिस्तान में दम तोड़ देती हैं। रिश्वत से ही अधिकारी अपने बच्चों को विदेश भेज पाते हैं और अपने बंगले में इतालवी मार्बल लगवा पाते हैं। मानसिक शांति के लिए योग मत करो - रिश्वत लो।
धन देकर नौकरी-निवेश योजना
सरकारी नौकरी पाने के लिए अब न तो रात-दिन पढ़ाई करनी पड़ती है और न ही कड़ी मेहनत। योग्यता तो महज एक औपचारिकता है, असली पासवर्ड है - नोटों का वजन। जब कोई धन देकर नौकरी प्राप्त करता है, तो वह न सिर्फ खुद को, बल्कि पूरे खानदान को आर्थिक ऊँचाई पर पहुँचा देता है।
यह रिश्वत नहीं, बल्कि ‘पेशेवर प्रशिक्षण शुल्क’ है, जिसके बाद वह व्यक्ति खुद भी भ्रष्टाचार का हिस्सा बन जाता है और आगे दूसरों से ‘सहयोग राशि’ वसूल कर अपने निवेश का ब्याज लेता है। यही वजह है कि हर दफ्तर में रिश्वतखोरी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती है, जैसे किसी कुल में पुश्तैनी व्यापार चलता है। यह व्यवस्था इतनी सुंदर है कि अर्थशास्त्री इसे भारत का ‘गृह उद्योग’ घोषित कर सकते हैं।
आम आदमी का ‘एक्सप्रेस सेवा अनुभव’
क्या आप सरकारी दफ्तरों की लंबी लाइन में लगे हैं? क्या आपके फॉर्म पर महीनों से नोटिंग नहीं हो रही? चिंता मत करिए, भ्रष्टाचार आपके लिए है। यह वह जादुई पास है जो आम आदमी को वीआईपी बना देता है। केवल 500 या 1000 रुपए देकर आप तीन महीने का काम तीन दिन में करवा सकते हैं। यह सरकारी ‘फास्ट ट्रैक सेवा’ है, जो नियमों से ऊपर उठकर सीधे समाधान देती है। रिश्वत के बिना आप केवल सरकारी कुर्सियों की धूल फाँकते रहेंगे।
विन-विन सौदा - दोनों ओर मुस्कान
भ्रष्टाचार वो दुर्लभ नीति है जहाँ देने वाला भी संतुष्ट और लेने वाला भी प्रसन्न। देने वाले को काम मिल जाता है और लेने वाले को बच्चों की स्कूल फीस भरने की राहत।
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इतनी ‘सहमतिपूर्ण’ नीति मिलना दुर्लभ है। यहाँ कोई जाति-धर्म भेद नहीं, कोई आरक्षण का झगड़ा नहीं, बस ‘समझदारी’ होनी चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे प्रैक्टिकल मॉडल है, जो बिना हंगामे और बिना क्रांति के लगातार काम कर रहा है।
अर्थव्यवस्था की गुप्त धारा
GDP की गणना करते समय सरकारें रिश्वतखोरी की इस समानांतर अर्थव्यवस्था को भूल जाती हैं। पर यह वही धारा है जिससे बाजार में नकदी आती है, दुकानें चलती हैं, फ्लैट बिकते हैं, और ब्रांडेड कपड़ों की दुकानें गुलज़ार रहती हैं।
रिश्वत के पैसे से ही चायवाले, धोबी, रिक्शे वाले और कूरियर बॉय का घर चलता है। इसीलिए इसे आर्थिक भाषा में ‘मल्टीप्लायर इफेक्ट’ कहा जाता है। यदि वर्ल्ड बैंक को इसकी असली ताकत पता चल जाए, तो वे इसे भारत का ‘अर्थव्यवस्था नवाचार मॉडल’ घोषित कर देंगे।
चुनाव जीतने वालों की पूँजी वापसी योजना
चुनाव में खर्च किया गया करोड़ों रुपयों का हिसाब कौन देगा? नेता क्या फ़िजूल में करोड़ों खर्च करता है? बिल्कुल नहीं। जीतने के बाद घोटाले, कमीशन और टेंडरिंग में साझेदारी से वह हर एक पैसा न केवल वसूल करता है, बल्कि अगली पीढ़ियों के लिए भी छोड़ जाता है।
वास्तव में यह भ्रष्टाचार नहीं, बल्कि ‘सत्ता संचालन नीति’ है। और सोचिए, ये पैसा भी जनता पर ही खर्च होता है - सड़कों पर, पुलों पर, श्मशान घाटों पर। यानी भ्रष्टाचार = विकास।
लाइन में खड़े रहने से मुक्ति
सरकारी दफ्तरों की लाइनें आम जनता के धैर्य की परीक्षा लेती हैं, पर समझदार नागरिकों के लिए भ्रष्टाचार वही करता है जो फ्लाइट में बिजनेस क्लास करता है - सीधी एंट्री। बिना रिश्वत के आप दस्तावेज़ों की कब्रगाह में दम तोड़ते रहेंगे।
‘राष्ट्रहित में रिश्वत’
अब जब अधिकारी से लेकर नेता, व्यापारी से लेकर आम आदमी, चायवाले से लेकर ब्रांडेड शोरूम तक सभी इस ‘समानांतर नीति’ से लाभान्वित हो रहे हैं तो क्यों न इसे आधिकारिक राष्ट्रीय नीति घोषित कर दिया जाए?
‘भ्रष्टाचार से सभी को होता लाभ’ यह कोई मज़ाक नहीं, बल्कि नवभारत का गुप्त आर्थिक सिद्धांत है, जो बिना किसी आधिकारिक घोषणा के हर दिन लागू हो रहा है।
और जो इसे नैतिक पतन कहता है, उसे व्यवस्था की इस गुप्त ‘सेवा नीति’ का ज्ञान ही नहीं है।
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