विमल वर्मा : साहित्य की धधकती मशाल का शांत होना

वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार, आलोचक और 'धूमकेतु' पत्रिका के पूर्व संपादक विमल वर्मा का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे बंगाल में हिंदी साहित्य आलोचना जगत की एक सशक्त आवाज रहे। 'धूमकेतु' के संपादन में उनका योगदान स्मरणीय रहेगा। वे जनवादी लेखक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता थे और हिंदी साहित्य को वैचारिक ऊर्जा देने वाले व्यक्तित्व थे।

Jun 19, 2025 - 14:43
Jun 19, 2025 - 14:43
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विमल वर्मा : साहित्य की धधकती मशाल का शांत होना
शिक्षाविद अमरनाथ , वरिष्ठ आलोचक विमल वर्मा, समीक्षक मृत्युंजय श्रीवास्तव

वरिष्ठ हिंदी आलोचक, साहित्यकार और 'धूमकेतु' पत्रिका के पूर्व संपादक विमल वर्मा का चंडीगढ़ में 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे बंगाल में हिंदी साहित्य के सशक्त स्तंभ रहे। ‘धूमकेतु’ के अनेक ऐतिहासिक अंकों का संपादन कर उन्होंने हिंदी आलोचना और साहित्यिक संवाद को समृद्ध किया। वे जनवादी लेखक संघ के संगठनात्मक जीवन में भी एक प्रभावशाली नाम रहे। यह विशेष संस्मरण उनके साहित्यिक योगदान, वैचारिक प्रतिबद्धता और साहित्यिक व्यक्तित्व की गहराई से पड़ताल करता है।

विमल वर्मा : हिंदी आलोचना का सजग प्रहरी

चंडीगढ़ में अपने बेटे के पास 90 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस लेने वाले विमल वर्मा हिंदी आलोचना और साहित्य के वे कर्मयोगी थे, जिनके बिना बंगाल में हिंदी साहित्यिक आंदोलन की कल्पना अधूरी मानी जाएगी। उनका जीवन और रचनात्मकता इस बात का उदाहरण है कि कैसे आलोचना, जो आमतौर पर एक शुष्क विधा मानी जाती है, विचारों की सृजनात्मक उर्वर भूमि भी बन सकती है।

धूमकेतु : एक आलोचक का संपादकीय हस्ताक्षर

पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी की पत्रिका ‘धूमकेतु’ उनके संपादन में जिस स्तर तक पहुँची, वह हिंदी साहित्य में उदाहरण बन गई। विमल वर्मा का मानना था-"साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि विचारधारा और समाज के प्रति जिम्मेदारी का नाम है।"

धूमकेतु’ में प्रकाशित उनके संपादकीय आज भी हिंदी आलोचना के विद्यार्थियों और अध्येताओं के लिए संदर्भ सामग्री हैं। उनके संपादन में पत्रिका ने अनेक विषयवस्तु आधारित विशेषांक निकाले, जिनमें जन साहित्य, आलोचना और हिंदी पत्रकारिता पर केंद्रित अंकों की विशेष चर्चा होती रही।

जनवादी लेखक संघ : वैचारिक संघर्ष की अग्रिम पंक्ति

विमल वर्मा की विचारधारा स्पष्ट थी- वे हिंदी साहित्य में जनवादी विचारधारा के पुरजोर समर्थक रहे। जनवादी लेखक संघ (जलेस) के संगठनात्मक ढांचे में उन्होंने अनेक वर्षों तक सक्रिय भूमिका निभाई। वे कहा करते थे - "साहित्य की दुनिया में तटस्थता दरअसल जिम्मेदारी से बचने का दूसरा नाम है। लेखक को समाज और समय के प्रति पूरी तरह उत्तरदायी होना चाहिए।"

बंगाल में हिंदी साहित्यिक गतिविधियों को संगठित करने में उनका योगदान बहुत अहम रहा। वे हिंदी और बंगला के साहित्यकारों के बीच संवाद के सेतु थे।

व्यक्तित्व : सरलता में छुपा गहन चिंतन

विमल वर्मा जी के करीबी लोगों के अनुसार वे अत्यंत सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, किंतु उनके विचारों की गहराई देखते ही बनती थी। वे अक्सर साहित्यिक आयोजनों में श्रोताओं से कहते- "मैं आलोचना को साहित्य से अलग नहीं मानता, आलोचना वही है जो रचना की जड़ों तक पहुँचे और उसके संदर्भ में सवाल खड़े करे।" उनकी आलोचना में केवल शुष्कता नहीं थी, बल्कि उसमें साहित्यिक रस, तर्क और विचारों का संतुलन दिखाई देता था।

बंगाल में हिंदी साहित्य के संरक्षक

हिंदी भाषा को बंगाल में जीवंत बनाए रखने के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया। हिंदी विद्यालयों और साहित्यिक मंचों पर उनकी उपस्थिति एक प्रेरणा होती थी। वे कहते थे - "हिंदी सिर्फ उत्तर भारत की भाषा नहीं है, यह पूरे भारत की साझा विरासत है। बंगाल में भी इसकी जड़ें गहरी हैं।"

अंतिम यात्रा, अमिट स्मृतियाँ

अब जब विमल वर्मा हमारे बीच नहीं हैं, तब उनके द्वारा संपादित 'धूमकेतु' के ऐतिहासिक अंक, उनके आलोचनात्मक लेख और वैचारिक संघर्ष साहित्यिक विरासत के रूप में हमारे पास शेष हैं। हिंदी आलोचना के लिए उनका यह योगदान कभी विस्मृत नहीं होगा।

उनकी स्मृति में यही कहना उचित होगा -"शब्द तो रहेंगे, पर आवाज़ खो गई।"

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