नीलकांत: जनपक्षधर साहित्य और संपूर्ण जीवन साधना का मूक अंत
प्रख्यात कथाकार, संपादक और विचारधर्मी नीलकांत का निधन - जनवादी लेखक संघ, नई कहानी आंदोलन और शुक्लीय परंपरा पर संवाद का एक सशक्त अध्याय आज स्मृतियों में सिमट गया।

आज सुबह धर्मेन्द्र यादव का फोन आया- वे अब नहीं रहे।
मन कुछ पल के लिए स्थिर हो गया। वही नीलकांत जिनसे आखिरी संवाद महीनों पहले हुआ था, जिनसे मार्च में प्रयागराज प्रवास के दौरान मिलने की आकाँक्षा थी, और जो उस समय अपने बेटे के पास मुंबई जा चुके थे - आज अचानक स्मृति में पूर्ण आयामों में उपस्थित हो उठे।
नीलकांत, नई कहानी आंदोलन के वरिष्ठ कथाकार मार्कंडेय जी के सगे अनुज, लेकिन अपनी जीवन दिशा, दृष्टि और तेवर में पूरी तरह स्वतंत्र। उनके लेखन, उनके जीवन और उनके संकल्प में एक सी आग थी- जनपक्षधरता की, आत्मसंघर्ष की और विचारधारा की आंतरिक ईमानदारी की।
उनकी स्मृति में उतरता हूँ तो याद आता है जनवादी लेखक संघ का वह दौर, जब भोपाल में आयोजित आचार्य रामचंद्र शुक्ल जन्मशती संगोष्ठी में उन्हें शुक्ल जी की सौंदर्य दृष्टि पर पढ़ना था। उन्होंने साहसिक रूप से अपने परचे को शीर्षक दिया था: 'मृत सौंदर्य शास्त्र का मसीहा: रामचंद्र शुक्ल'। शीर्षक ने तत्कालीन संगठन को हिला दिया।
डा. शिवकुमार मिश्र जैसे प्रबुद्ध अध्यापक, महासचिव चंद्रबली पांडेय जैसे वरिष्ठ संगठनकर्ता, सभी ने नीलकांत से आग्रह किया कि वे दृष्टि और तेवर में नरमी लाएं। अंततः संगठन के दबाव में सार्वजनिक प्रस्तुति में उन्होंने स्वर बदलना स्वीकार किया, लेकिन मूल लेख, जो संगठन की रचनात्मक असहिष्णुता के विरुद्ध खड़ा था, हमने रातों-रात छपवाकर संगोष्ठी में वितरित किया।
उस लेख पर नामवर सिंह ने टिप्पणी दी -“दृष्टि निर्मम। भाषा तल्ख। निर्णय सख़्त। फिर भी संपूर्ण निबंध तर्कसंगत और प्रमाण पुष्ट।”
नीलकांत ने यह टिप्पणी अपनी पुस्तक 'रामचन्द्र शुक्ल' की पीठ पर छपवायी, और शायद यह उनके लेखकीय आत्मविश्वास और विचारात्मक निर्भीकता का सबसे सशक्त प्रमाण भी था।
नीलकांत ने ‘एक बीघा गोंइड़’ और ‘बँधुआ रामदास’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से ग्रामीण भारत की वर्गीय पीड़ा को रचनात्मक रूप से रूपायित किया, और उनमें से एक उपन्यास मेरे नाम समर्पित भी है। उनके लेखन में एक सजग दृष्टि, भाषा में एक कठोर ईमानदारी और पात्रों में एक जीवंत प्रतिरोध था। उनकी कहानियाँ, उनके संपादन में निकली पत्रिका ‘हाथ’, और उनका जीवन ही एक बड़ा आख्यान बन जाता है।
पर नीलकांत सिर्फ साहित्यकार ही नहीं थे - अज्ञेय की तरह बहुशिल्पी। उन्हें कारपेन्टरी, मोचीगिरी, पाक-कला जैसी पारंपरिक कलाओं में दक्षता थी और वे इन्हें केवल जीवनोपयोगी नहीं, एक सांस्कृतिक अभ्यास मानते थे।
रामचंद्र शुक्ल पर लिखते हुए उन्होंने जो जन्मतिथि दी, 1942 वह आज के संदर्भ में एक युग के अवसान की सूचना सी लगती है।
किसी लेखक के लिए सबसे कठिन क्षण वह होता है जब वह अपने निकट के मित्र, सह-यात्री और विचार-सहचर को अलविदा कहता है। नीलकांत के जाने के साथ मेरी स्मृतियों का एक बड़ा हिस्सा आज बोझिल हो गया है। वे साहित्य के संघर्षशील, विचारशील और भावुक मनुष्य थे - और मुझे नहीं मालूम, आज के यांत्रिक समय में उनका मूल्यांकन किस तरह से किया जाएगा।
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