संजय जायसवाल: सांस्कृतिक उत्सवधर्मिता के ध्रुवतारा
डॉ. संजय जायसवाल केवल आयोजक नहीं, बल्कि एक संवेदनात्मक सूत्रधार हैं जो मंच, वक्ता, विषय और श्रोता के बीच समरसता का सेतु निर्मित करते हैं। उनकी संगठनात्मक दक्षता, सृजनशील कल्पना और समावेशी दृष्टिकोण उन्हें सांस्कृतिक उत्सवधर्मिता का ध्रुवतारा बनाते हैं।

जब संगठन विचार बन जाता है
'साहित्य और संस्कृति केवल शब्दों की बाज़ीगरी नहीं, वे सामूहिक चेतना का उत्सव हैं।'
इस कथ्य को जीवंत करते हुए जब कोई व्यक्ति कर्म, करुणा और कल्पना का त्रिवेणी-संगम बन जाए, तो वह एक व्यक्ति नहीं, संस्कृति का संवाहक होता है।
डॉ. संजय जायसवाल आज ऐसे ही व्यक्तित्व का नाम है - जिनकी भूमिका किसी आयोजन में केवल संयोजक की नहीं, बल्कि एक संवेदनात्मक शक्ति केंद्र की होती है।
‘मोहन राकेश जन्मशती समारोह’: जहाँ मंच पर नहीं, मन में बोले संजय
24 मई 2025 को भारतीय भाषा परिषद और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा आयोजित 'आधुनिकतावादी आंदोलन और मोहन राकेश के नाटक' विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में,
डॉ. संजय जायसवाल की उपस्थिति एक 'मूक सूत्रधार' की तरह थी - नाटकीयता के बिना, मगर पूरी नाटकीय शक्ति के साथ।
उनकी सक्रियता में:
✔️ वक्ताओं के चयन में विचार का संतुलन
✔️ सभी आयु-वर्गों और क्षेत्रों को मंच देने का प्रयास
✔️ संवाद और सृजन के बीच समरसता का निर्माण
इस कार्यक्रम में प्रख्यात आलोचक, रंगकर्मी, शिक्षाविद, नवोदित शोधार्थी - सभी एक साझे बौद्धिक छाते के नीचे सहजता से उपस्थित थे, और इसका श्रेय, कहीं न कहीं, संजय जी के संगठनात्मक सौंदर्यबोध को जाता है।
डॉ. संजय जायसवाल की कार्यशैली की 3 विशेषताएँ:
1. दृश्य से अधिक ध्वनि का निर्माण
वे मंच पर बहुत कम बोलते हैं, पर उनकी उपस्थिति आयोजन की आत्मा में गूँजती है।
2. कर्म और करुणा का संगम
वे कड़े अनुशासक हैं, पर उनमें हृदय की ऊष्मा और आत्मीयता का रस विद्यमान रहता है।
3. योजना नहीं, कल्पना के वाहक
उनके आयोजनों में केवल निष्पादन नहीं, सृजन की चेतना स्पंदित करती है।
उत्सवधर्मिता: एक संस्कृतिकर्मी के लिए क्या सीख है?
डॉ. संजय जायसवाल का व्यक्तित्व हर उस व्यक्ति के लिए पाठशाला है जो सांस्कृतिक कर्म को केवल मंच, मीडिया और मेडल से जोड़कर देखता है।
एक संस्कृतिकर्मी उनसे क्या सीख सकता है?
· संगठन और सृजन में सामंजस्य - प्रशासनिक दक्षता और कलात्मक सौंदर्यबोध का समन्वय कैसे हो, यह संजय जी से सीखा जा सकता है।
· सर्वसमावेशी दृष्टि - अनुभवी से लेकर नवोदित तक, सभी को अवसर देना ही वास्तविक नेतृत्व है।
· मौन नेतृत्व - नेतृत्व केवल भाषण नहीं, दृष्टि और उपलब्धता में प्रकट होता है।
· संवाद-संस्कृति -एक अच्छे आयोजक को सबसे पहले सुनना आना चाहिए, बोलना नहीं।
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण में एक प्रमुख नाम
यदि पश्चिम बंगाल के समकालीन हिंदी साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में किसी एक व्यक्ति को 'उत्सवधर्मिता' का जीवित प्रतिरूप माना जाए, तो डॉ. संजय जायसवाल का नाम स्वाभाविक रूप से सामने आता है।
वे केवल कार्यक्रमों के आयोजक नहीं, विचारों के संरक्षक, सर्जनात्मक ऊर्जा के संवाहक और साहित्यिक गरिमा के सेतुबंधक हैं।
उनकी उपस्थिति के बिना किसी आयोजन की कल्पना नहीं करते उनके चाहने वाले।
उनका होना - साहित्य का मुस्कुराना होता है, कार्यक्रम का खिल उठना होता है।
जागो टीवी की टिप्पणी:
“संगठनात्मक व्यक्ति बहुत होते हैं,
विचारधर्मी बहुत कम।
संजय जायसवाल उनमें से हैं जो दोनों हैं -
और इसलिए वे किसी भी आयोजन के ‘ध्रुवतारा’ होते हैं -
स्थिर, मार्गदर्शक और प्रज्ज्वल।”
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