क्या कहा जाना था - जो रोका गया?
24 मई 2025 यानी आज आयोजित 'मोहन राकेश जन्मशती समारोह' और हिंदी आलोचना के पुरोधा डॉ. शंभुनाथ के 77वें जन्मदिवस पर एक विशेष गोष्ठी आयोजित की गई थी। इस अवसर पर दो मिनट की भावनात्मक अभिव्यक्ति के लिए भी मंच नहीं दिया गया।

वह वक्तव्य, जिसे आज जागो टीवी सार्वजनिक करता है, केवल एक ‘बयान’ नहीं, बल्कि एक पीढ़ी का श्रद्धासुमन था:
"आज का यह दिन केवल एक जन्मदिवस नहीं है-यह एक सृजनशील चेतना, आलोचनात्मक दृष्टि और सांस्कृतिक विचारधारा की सात दशकों से अधिक लंबी यात्रा का उत्सव है..."
"गुरुवर डॉ. शंभुनाथ एक आलोचक भर नहीं हैं-वे विवेकशीलता और विचार की वह आवाज हैं, जो आज की बौद्धिक दुनिया में हमें बार-बार सावधान करती रही है..."
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क्या साहित्यिक आयोजन अब 'अतिथि-प्रबंधन' तक सिमट रहे हैं?
यह अकेली घटना नहीं है। पिछले वर्षों में हमने देखा है कि कैसे आयोजनों में 'किसको बोलने दिया जाए और किसे नहीं?'
डॉ. शंभुनाथ जैसे मनीषी जिनके विचारों ने अनेक छात्रों, शिक्षकों और लेखकों को दिशा दी-उनके जन्मदिवस कार्यक्रम में यदि कोई शिष्य बोलना चाहे, और उसे न बोलने दिया जाए, तो यह केवल व्यक्तिगत उपेक्षा नहीं, बल्कि साहित्यिक लोकतंत्र की भी अनदेखी है।
जागो टीवी की ओर से अपील:
1. साहित्यिक आयोजनों में संवेदनशील चयन और संवाद की गुंजाइश बनी रहे।
2. आयोजकों को ‘लोकतांत्रिक संवाद’ के आधार पर, अपनी व्यवस्था में संवेदना को जरा सा स्थान अवश्य देना चाहिए।
परम आदरणीय गुरुवर डॉ. शंभुनाथ जी,
मान्यवर उपस्थितजन,
और मेरे प्रिय साथियों,
आज का यह दिन केवल एक जन्मदिवस नहीं है-यह एक सृजनशील चेतना, आलोचनात्मक दृष्टि और सांस्कृतिक विचारधारा की सात दशकों से अधिक लंबी यात्रा का उत्सव है। यह वह क्षण है जब हम सब अपने भीतर झाँक कर उस व्यक्ति को नमन करते हैं, जिन्होंने न केवल हमें साहित्य को जीना ही नहीं सिखाया, बल्कि सोचना, समझना और सच कहना भी सिखाया।
गुरुवर डॉ. शंभुनाथ एक आलोचक भर नहीं हैं-वे विवेकशीलता और विचार की वह आवाज़ हैं, जो आज की बौद्धिक दुनिया में हमें बार-बार सावधान करती रही है कि भाषा केवल माध्यम नहीं, बल्कि मनुष्यता का दर्पण है।
गुरुवर की पुस्तकें -‘संस्कृति की उत्तरकथा’, ‘धर्म का दुखांत’, ‘भारतीय अस्मिता और हिंदी’, ‘प्रेमचन्द का हिन्दुस्तान’-हमारे समय को समझने के ऐसे औज़ार देती हैं, जो तात्कालिकता से परे जाकर दीर्घकालिक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
मैंने जब पहली बार गुरुवर को सुना था - या यूँ कहूँ, जब पहली बार गुरुवर को पढ़ा था - तो शब्दों में एक नितांत सच्ची बेचैनी दिखाई दी। वह बेचैनी जो समाज के अंतर्विरोधों से उपजती है। जो लेखक की आत्मा से नहीं, उसके अनुभव से उपजी होती है।
वे जब बोलते हैं, तो सिर्फ ज्ञान नहीं देते-एक ज़िम्मेदारी सौंपते हैं। यह ज़िम्मेदारी है-ईमानदारी से देखना, बोलना और साहित्य को केवल अतीत नहीं, वर्तमान और भविष्य के रूप में बरतना।
गुरुवर, आपने हम जैसे अनगिनत छात्रों को न केवल शोध और आलोचना के पथ पर अग्रसर किया, बल्कि एक ऐसी दृष्टि भी दी, जो शब्दों में नहीं, दृष्टिकोण में बसी होती है।
आपका जीवन एक जीवंत उदाहरण है कि साधना और सादगी, दोनों मिलकर कैसे एक विराट साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं।
आज जब हम आपके 77वें जन्मदिवस पर एकत्र हैं, तो यह केवल आपकी आयु का सम्मान नहीं है-यह उन अनगिनत सृजनात्मक वर्षों का उत्सव है, जिन्हें आपने हिंदी भाषा, संस्कृति और आलोचना को समर्पित किया।
मैं, अपने व्यक्तिगत भावों और 'मुक्तांचल' व 'जागो टीवी' परिवार की ओर से, आपके दीर्घायु, स्वस्थ और सृजनशील जीवन की मंगलकामना करता हूँ।
आपकी लेखनी हिंदी साहित्य को नई रोशनी, नई दृष्टि और नया साहस देती रहे-यही हमारी प्रार्थना है।
आपके चरणों में सादर नमन।
धन्यवाद।
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