भाषा की अस्मिता का दुरुपयोग और भारतीय समाज पर इसके दुष्प्रभाव
भाषा भारत की आत्मा है, लेकिन इसका दुरुपयोग सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन रहा है। भाषा की अस्मिता को मुद्दा बनाकर भावनाएँ भड़काना न केवल सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान को भी कमजोर करता है। हमें यह समझना होगा कि भारत की ताकत इसकी विविधता मंै है, और भाषाएँ इस विविधता का अभिन्न अंग हैं। इन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने के बजाय, हमें इन्हें एकजुट करने वाले सेतु के रूप में उपयोग करना होगा। केवल तभी हम एक सशक्त, समावेशी और एकजुट भारत का निर्माण कर सकते हैं।

भारत एक बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है, जहाँ भाषा न केवल संवाद का माध्यम है, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक गौरव का प्रतीक भी है। हिंदी, तमिल, बंगाली, मराठी, तेलुगु जैसी भाषाएँ अपने साहित्य, इतिहास और परंपराओं के साथ लाखों लोगों की भावनाओं को जोड़ती हैं। हालाँकि, हाल के वर्षों में, भाषा की इस अस्मिता को राजनीतिक, सामाजिक और क्षेत्रीय मुद्दों से जोड़कर भावनाएँ भड़काने का एक खतरनाक चलन देखा गया है। यह प्रवृत्ति न केवल सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुँचाती है, बल्कि भारत की एकता और अखंडता को भी कमजोर करती है। यह संपादकीय भाषा की अस्मिता के दुरुपयोग के दुष्प्रभावों का विश्लेषण करता है और भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसके दीर्घकालिक परिणामों पर प्रकाश डालता है।
भाषा का दुरुपयोग: एक रणनीति
भारत में भाषा को अक्सर भावनात्मक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। राजनेता, क्षेत्रीय संगठन और कुछ मीडिया समूह भाषा को अस्मिता का मुद्दा बनाकर समाज को बांटने का काम करते हैं। उदाहरण के लिए, हिंदी को 'राष्ट्रीय भाषा' के रूप में प्रचारित करने या क्षेत्रीय भाषाओं को 'दूसरे दर्जे' की बताने की कोशिशें बार-बार विवाद का कारण बनी हैं। 2019 में केंद्रीय गृह मंत्री के 'हिंदी को एकजुट करने वाली भाषा' के बयान ने दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु और कर्नाटक, में तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया। इसी तरह, कुछ क्षेत्रीय दलों ने अपनी भाषा को 'सांस्कृतिक गौरव' का प्रतीक बनाकर अन्य भाषाओं के खिलाफ भावनाएँ भड़काने की कोशिश की।
यह रणनीति केवल भाषाई नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती है। सोशल मीडिया ने इस प्रवृत्ति को और तेज किया है, जहाँ एक भाषा के समर्थन में या दूसरी के खिलाफ भड़काऊ पोस्ट वायरल होकर हिंसा और तनाव को जन्म देते हैं। उदाहरण के लिए, 2020 में महाराष्ट्र में मराठी और गैर-मराठी भाषियों के बीच सोशल मीडिया पर छिड़ी बहस ने सामाजिक तनाव को बढ़ाया। यह दर्शाता है कि भाषा की अस्मिता को मुद्दा बनाकर समाज में विभाजन पैदा करना कितना आसान हो गया है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में दुष्प्रभाव
सामाजिक सौहार्द पर खतरा: भारत की ताकत इसकी विविधता में निहित है। भाषा आधारित विवाद क्षेत्रीय और सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाते हैं। 1960 के दशक में तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन हिंसा में तब्दील हो गए थे, जिसमें कई लोगों की जान गई। आज भी, भाषा को लेकर होने वाले विवाद सामुदायिक एकता को कमजोर करते हैं।
राष्ट्रीय एकता को नुकसान: भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा को विभाजनकारी हथियार बनाना राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है। जब एक भाषा को दूसरी पर थोपने की कोशिश होती है या किसी भाषा को "श्रेष्ठ" बताया जाता है, तो यह क्षेत्रीय अस्मिता को उकसाता है। इससे "हम बनाम वे" की मानसिकता जन्म लेती है, जो भारत की संघीय संरचना को कमजोर करती है।
शिक्षा और अवसरों पर प्रभाव: भाषाई विवादों का असर शिक्षा नीतियों और रोजगार के अवसरों पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में त्रिभाषा फॉर्मूले पर बहस ने कई राज्यों में असंतोष पैदा किया। इससे छात्रों में भ्रम और क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति उपेक्षा की भावना बढ़ी। साथ ही, भाषा आधारित भेदभाव नौकरियों और सामाजिक गतिशीलता को प्रभावित करता है।
सांस्कृतिक हानि: भाषा को अस्मिता का हथियार बनाना सांस्कृतिक समृद्धि को नुकसान पहुँचाता है। भारत की भाषाएँ एक-दूसरे के पूरक हैं। हिंदी साहित्य में तुलसीदास और प्रेमचंद हैं, तो तमिल में तिरुवल्लुवर और सुब्रह्मण्य भारती। जब भाषाओं को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता है, तो यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बाधित करता है।
हिंसा और अस्थिरता: भाषा आधारित भड़कावे से हिंसा और सामाजिक अस्थिरता बढ़ती है। 2023 में बेंगलुरु में कन्नड़ और हिंदी साइनबोर्ड को लेकर हुए विवाद ने दुकानों में तोड़फोड़ और तनाव को जन्म दिया। ऐसे मामले सामाजिक शांति को भंग करते हैं और आर्थिक नुकसान का कारण बनते हैं।
समाधान की दिशा
भाषा की अस्मिता का दुरुपयोग रोकने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है:
संवेदनशील संवाद: राजनेताओं और मीडिया को भाषा से जुड़े मुद्दों पर संवेदनशील और समावेशी भाषा का उपयोग करना चाहिए। भाषा को एकजुट करने वाला साधन बनाना होगा, न कि विभाजन का हथियार।
शिक्षा में समावेशिता: राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करते समय सभी भाषाओं को समान सम्मान देना होगा। क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के साथ-साथ बहुभाषी शिक्षा को प्रोत्साहित करना चाहिए।
कानूनी कार्रवाई: भड़काऊ भाषण और भाषा आधारित हिंसा को रोकने के लिए सख्त कानूनी प्रावधान लागू किए जाएँ। सोशल मीडिया पर भ्रामक और उत्तेजक सामग्री की निगरानी जरूरी है।
सांस्कृतिक आदान-प्रदान: भाषाई और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के लिए साहित्यिक उत्सव, अनुवाद परियोजनाएँ और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ।
जागरूकता अभियान: जनता को भाषा की विविधता के महत्व और इसके सकारात्मक उपयोग के बारे में शिक्षित करना होगा। स्कूलों और कॉलेजों में बहुभाषी संस्कृति को प्रोत्साहित करना चाहिए।
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