जोहरान ममदानी : दीवारें तोड़ने वाला मुसलमान
न्यूयॉर्क के विधायक जोहरान ममदानी ने साबित किया कि राजनीति पहचान से नहीं, इंसानियत से जीती जाती है। भारत के मुस्लिम युवाओं के लिए उनकी जीत लोकतंत्र का सबसे अहम सबक है- दीवारें तोड़िए, पुल बनाइए।
जोहरान ममदानी : दीवारें तोड़ने वाला मुसलमान, जिसने अमेरिका को इंसानियत का पाठ पढ़ाया
जोहरान ममदानी ने न्यूयॉर्क सिटी मेयर चुनाव जीत कर इतिहास रच दिया है। यह चुनाव जीतने वाले वह पहले भारतीय-अमेरिकी मेयर होंगे। जोहरान ममदानी, 34 वर्षीय अमेरिकी विधायक, जिन्होंने न तो अपने धर्म को छिपाया, न ही उसे राजनीति की ढाल बनाया। उनकी राजनीति मस्जिदों के मीनारों से नहीं, किराए के मकानों, मजदूरों की मजदूरी और बुज़ुर्गों की गरिमा से शुरू होती है। यही उनकी सबसे बड़ी जीत है और यही सबक है उस दुनिया के लिए जहाँ पहचान की राजनीति ने इंसानियत को किनारे कर दिया है।
जोहरान का रास्ता: मोहल्लों से विधान तक
जोहरान ममदानी का जन्म भारतीय मूल के परिवार में युगांडा में हुआ। वे आठ साल की उम्र में न्यूयॉर्क आ गए, वही शहर जहाँ प्रवासियों के सपने और संघर्ष एक साथ चलते हैं। उनके माता-पिता मशहूर फिल्मकार मीरा नायर और शिक्षाविद महमूद ममदानी हैं। जोहरान ने राजनीति की राह किसी तख़्त या ताज के लिए नहीं चुनी, बल्कि उस सिस्टम को बदलने के लिए चुनी जहाँ ‘गरीबी, नस्ल और पहचान’ इंसाफ़ में बाधा बन जाती है। उन्होंने न्यूयॉर्क के Astoria, Queens से चुनाव लड़ा, जहाँ यहूदी, हिस्पैनिक, ब्लैक और अरब नागरिकों की मिश्रित बस्तियाँ हैं। वे बोले, “मैं मुस्लिम हूँ, पर मेरा एजेंडा इंसानियत है।” वे बोले, “मैं इमिग्रेंट हूँ, पर मेरी नीतियाँ सबके लिए हैं।” और यही वो क्षण था जब एक मुसलमान ने अमेरिका में 'डर' नहीं, 'विश्वास' बेचा।
पहचान की राजनीति बनाम नागरिकता की राजनीति
जब जोहरान बोले कि किराया कैसे कम हो, मेट्रो कैसे समय पर चले, पुलिस कैसे इंसाफ करे, तब उन्होंने अपने मतदाताओं को बताया कि धर्म नहीं, व्यवस्था असली मुद्दा है। उनकी पार्टी Democratic Socialists of America (DSA) है, जो नस्लीय समानता, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा पर केंद्रित है। वे नमाज़ पढ़ते हैं, लेकिन कैमरे के सामने नहीं। वे इस्लाम को जीते हैं, लेकिन प्रचार नहीं करते। वे कहते हैं, “मैं अपने विश्वास को निजी रखता हूँ, क्योंकि जनता मुझसे नीति चाहती है, न कि नारा।” यही वो फर्क है जो उन्हें बदरुद्दीन अजमल या असदुद्दीन ओवैसी से अलग करता है।
असम से हैदराबाद तक : जब धर्म ने राजनीति को निगल लिया
असम में बदरुद्दीन अजमल की राजनीति शुरू हुई ‘हक़’ से, लेकिन खत्म हुई ‘डर’ पर। उन्होंने कहा, “हमें मुस्लिम मुख्यमंत्री चाहिए।” और उसी क्षण बहुसंख्यक राजनीति ने जवाब दिया, ‘हिंदू खतरे में हैं।‘ परिणाम यह हुआ कि हेमंत बिस्वा सरमा सत्ता में आए, NRC और धर्म आधारित नागरिकता कानून बने और वो सब हुआ जिससे मुसलमानों का राजनीतिक वजूद और सिकुड़ गया। जो हार अजमल की थी, वो दरअसल पूरा अल्पसंख्यक समाज हार गया।
हैदराबाद में असदुद्दीन ओवैसी ने संविधान की भाषा बोली, लेकिन मंच से उनके छोटे भाई ने “5 मिनट पुलिस हटा लो” जैसी बातें कीं। उनका दल ‘मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन’ आज भी उसी धार्मिक पहचान से बंधा है, जो उन्हें सीमित कर देती है। ओवैसी ने ‘जय भीम जय मीम’ का नारा दिया, पर राष्ट्रीय राजनीति में जगह नहीं बना सके, क्योंकि उन्होंने इंसानियत से पहले पहचान रखी।
जोहरान की जीत: इंसानियत की साझी ज़मीन
जोहरान ममदानी की सबसे बड़ी जीत यह है कि उन्होंने ‘हम बनाम वे’ की दीवार गिराई। उन्होंने साबित किया कि अगर मुस्लिम नेता अपनी पहचान से ऊपर उठकर नागरिक सरोकारों की बात करे, तो यहूदी भी वोट देता है, ब्लैक भी, और हिस्पैनिक भी। वे किसी ‘इस्लामी नेता’ की तरह नहीं, बल्कि ‘जन प्रतिनिधि’ की तरह उभरे। उनकी कैंपेन मीटिंग्स में कोई नारा नहीं गूँजता, ‘ला इलाहा इल्लल्लाह।’ बल्कि स्लोगन होता है, ‘Housing is a human right.’ यह वही फर्क है जो एक नेता को ‘प्रतीक’ से ‘परिवर्तन’ तक ले जाता है।
सबक भारत के लिए: अल्पसंख्यक नेतृत्व का नया मॉडल
भारत में 20 करोड़ से ज़्यादा मुसलमान हैं, लेकिन उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व गिर रहा है। संसद में मुस्लिम सांसदों की संख्या आज़ादी के बाद सबसे कम है। कारण सिर्फ़ यह नहीं कि बहुसंख्यक राजनीति हावी है, बल्कि यह भी कि अल्पसंख्यक राजनीति धार्मिक घेरे से बाहर नहीं निकल पा रही। अजमल और ओवैसी जैसे नेता अपने समाज की आवाज़ ज़रूर बने, पर वे विश्वसनीयता का पुल नहीं बना सके। क्योंकि, लोकतंत्र में अल्पसंख्यक को डर नहीं, प्यार बेचना पड़ता है। जोहरान ने यही किया, उन्होंने इस्लाम से न मुँह मोड़ा, न उसे हथियार बनाया। वे बोले, “मैं सबका प्रतिनिधि हूँ।” और जनता ने कहा, “तुम हमारे हो।”
जब अब्दुल्ला को नेहरू ने दीवारें तोड़ने को कहा
1930 के दशक में नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को सलाह दी थी, “Muslim Conference का नाम बदलकर National Conference रखो।” क्योंकि, जब तक नाम में धर्म है, राजनीति में विश्वास नहीं आ सकता।
शेख अब्दुल्ला ने माना। और आज तक कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस को हिंदू और मुस्लिम दोनों का समर्थन मिलता है। जोहरान उसी परंपरा के उत्तराधिकारी हैं। उन्होंने साबित किया कि अगर अल्पसंख्यक नेता अपने समुदाय से आगे बढ़कर लोकतांत्रिक सरोकार अपनाए, तो वे पूरे देश या पूरी दुनिया के नेता बन सकते हैं।
ज़ोहरान मॉडल : सेक्युलरिज़्म नहीं, सेंस ऑफ़ यूनिवर्सल जस्टिस
जोहरान का मॉडल ‘सेक्युलर’ होने से आगे बढ़कर ‘मानवीय’ है। वे धर्म को नकारते नहीं, बल्कि उसे निजता और नैतिकता में समेटते हैं। वे कहते हैं, “धर्म मुझे ईमानदार बनाता है, पर नीति जनता बनाती है।” यही सच्चा धर्मनिरपेक्षता है, जहाँ ईश्वर और संविधान दोनों का आदर है, पर कोई किसी पर हावी नहीं।
भारत के मुस्लिम युवाओं के लिए संदेश
भारत में सैकड़ों जोहरान हैं डॉक्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर, सामाजिक कार्यकर्ता, जिनमें राजनीतिक समझ और दृष्टि है। पर जब तक वे अपने मंच को धार्मिक परिभाषा देंगे, तब तक उनकी यात्रा ‘स्थानीय’ ही रहेगी। जोहरान बनने के लिए ‘अल्लाहु अकबर’ से पहले ‘इंसान ज़िंदा है’ कहना होगा। क्योंकि, लोकतंत्र में शक्ति अधिक संख्या से नहीं, बल्कि अधिक विश्वास से मिलती है।
दीवारें तोड़िए, पुल बनाइए
जोहरान ममदानी की जीत केवल न्यूयॉर्क की कहानी नहीं, बल्कि एक विचार का पुनर्जन्म है कि पहचान से ऊपर इंसानियत की राजनीति ही टिकती है। वे उस दौर में खड़े हैं जहाँ मुस्लिम नाम वाले व्यक्ति को अमेरिकी राष्ट्रपति तक ‘रेडिकल’ कह देता है, पर उन्होंने उत्तर दिया, “मैं इंसान हूँ, और इंसाफ़ की बात कर रहा हूँ।” भारत को आज ऐसे ही नेताओं की ज़रूरत है, जो अपनी पहचान से भागें नहीं, पर उसे बाँधने की जंजीर न बनाएँ। क्योंकि, दुनिया जीतने के लिए पहले अपनी दीवारें तोड़नी पड़ती हैं। जोहरान ने वो दीवार तोड़ी और इतिहास ने उन्हें सुना।
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