जहाँ लफ़्ज़ रूह बन जाते हैं, विश्व उर्दू दिवस और मोहब्बत की ज़ुबान
जहाँ हर लफ़्ज़ में रूह की ख़ुशबू और हर तर्ज़ में एहसास की नरमी है, वही है उर्दू। पढ़िए एक संपादकीय लेख, जो बताता है कि उर्दू महज़ ज़ुबान नहीं, बल्कि मोहब्बत और तहज़ीब की रूह है।
हर अल्फ़ाज़ में जादू, हर तर्ज़ में एहसास यही है उर्दू। जहाँ हर लफ़्ज़ दिल की कहानी कहे, जहाँ तहज़ीब और अदब की छाया मिले, वहीं उर्दू खिलती है। यह ज़ुबान महज़ बोलचाल का माध्यम नहीं, बल्कि इंसानियत की धड़कन है, जिसमें मोहब्बत की नर्मी, अदब की मिठास और रूह की ख़ुशबू बसी है।
9 नवंबर को पूरी दुनिया ‘विश्व उर्दू दिवस (World Urdu Day)’ के रूप में मनाती है, उस भाषा की ख़ातिर जिसने सदियों से दिलों के दरमियान मोहब्बत के पुल बनाए हैं। यह दिन उस अज़ीम शायर, दार्शनिक और विचारक डॉ. मोहम्मद इक़बाल की याद में भी मनाया जाता है, जिन्होंने इंसान को उसकी ‘ख़ुदी’ का एहसास कराया और कहा था, “ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है।”
उर्दू की कहानी हिंदुस्तान की उस मिट्टी से शुरू होती है जहाँ संस्कृत की गहराई, फ़ारसी की नज़ाकत, अरबी की रोशनी और हिंदवी की सादगी एक साथ घुली थीं। यही वजह है कि इसे “गंगा-जमुनी तहज़ीब की ज़ुबान” कहा जाता है, एक ऐसी भाषा जिसने सरहदों और मज़हबों की दीवारें गिराकर इंसानियत की एकता को पिरोया।
दिल्ली के क़सीदों से लेकर लखनऊ की नज़ाकत भरी महफ़िलों तक और हैदराबाद की चौपालों से लेकर कराची की गलियों तक उर्दू ने हर जगह अपने नर्म लहजे और मीठे लफ़्ज़ों से दिलों को जीत लिया। यह सियासत की नहीं, जज़्बात की ज़ुबान है; यह हुकूमतों से नहीं, मोहब्बतों से चलती है।
जब कोई कहता है “ज़िंदगी गुलज़ार है” या “दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है”, तो ये महज़ शब्द नहीं, एहसास हैं, जो दिल में उतर जाते हैं। इसी एहसास की वजह से मीर, ग़ालिब, फ़ैज़, जोश, इक़बाल और साहिर जैसे शायरों ने उर्दू को वो ऊँचाई दी कि यह भाषा एक तहज़ीब, रवायत और जीवन-दर्शन बन गई।
आज डिजिटल युग में भी उर्दू का जादू ज़िंदा है सोशल मीडिया, ग़ज़लों, फ़िल्मों और साहित्यिक मंचों पर इसकी मौजूदगी बताती है कि यह भाषा समय से नहीं, संवेदनाओं से चलती है। बॉलीवुड के गीतों की मिठास और अदब की नज़ाकत का रिश्ता इसी उर्दू से है।
नई पीढ़ी के लिए उर्दू सीखना सिर्फ़ एक भाषा सीखना नहीं, बल्कि अपने सांस्कृतिक अतीत से जुड़ना है। यह भाषा ‘आप’, ‘जनाब’, ‘शुक्रिया’, ‘महरबानी’ जैसे शब्दों में अदब सिखाती है। इसमें तकरार नहीं, तहज़ीब है; इसमें तल्ख़ी नहीं, नरमी है।
डॉ. इक़बाल ने उर्दू को आत्मगौरव और आत्मनिर्भरता की आवाज़ दी। आज जब तकनीक भाषाओं की सीमाएँ तय कर रही है, तो उर्दू को बचाना हमारी जिम्मेदारी बनती है। स्कूलों, विश्वविद्यालयों और मीडिया में उर्दू को बढ़ावा देना ज़रूरी है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें कि उर्दू केवल शेर-ओ-शायरी नहीं, बल्कि सभ्यता का आईना है।
विश्व उर्दू दिवस हमें याद दिलाता है, यह भाषा किसी एक मज़हब, इलाक़े या वर्ग की नहीं, बल्कि उन सबकी है जो दिल से बोलते हैं और इंसानियत में यक़ीन रखते हैं। एक बच्चे को उर्दू का शेर सिखाना, किसी पोस्ट में उर्दू का जुमला लिखना या किसी बुज़ुर्ग से उनकी ज़ुबान में बात करना, यही छोटे कदम इस विरासत को आगे बढ़ाते हैं।
क्योंकि जब उर्दू बोलती है, तो दिल सुनता है, और जब सुनाई देती है, तो रूह मुस्कुराती है। विश्व उर्दू दिवस दरअसल एक तारीख़ नहीं, बल्कि एक एहतराम है, उस ज़ुबान के नाम, जिसने सदियों से मोहब्बत को अल्फ़ाज़ दिए, इंसानियत को आवाज़ दी, और दुनिया को ख़ूबसूरत बनाया।
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