मुक्तांचल द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

राष्ट्रीय संगोष्ठी में वक्ताओं ने इस बात पर बल दिया कि हिंदी कहानी की शक्ति उसकी समय-सापेक्षता, सामाजिक सरोकार और शिल्पगत नवीनता में निहित है। आज की कहानी न केवल अपने समय के यथार्थ को उद्घाटित करती है, बल्कि नई पीढ़ी की सोच और संवेदनाओं को भी अभिव्यक्त करती है।

Apr 27, 2025 - 14:22
May 2, 2025 - 15:06
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मुक्तांचल द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

हावड़ा :  मुक्तांचल, विद्यार्थी मंच व गाथा प्रकाशन के संयुक्त तत्वावधान में ‘हिंदी कहानी: नई-पुरानी परंपरा एवं परिदृश्य’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। इस संगोष्ठी में देशभर के प्रतिष्ठित साहित्यकारों, आलोचकों और शिक्षाविदों ने भाग लिया तथा हिंदी कहानी के विविध पक्षों पर विचार-विमर्श किया।

संगोष्ठी का शुभारंभ मुक्तांचल पत्रिका की संपादक डॉ. मीरा सिन्हा के स्वागत वक्तव्य से हुआ, उन्होंने यह प्रस्तावना दिया कि कहानी के मौजूदा परिदृश्य पर संवाद की जरूरत है, इस संवाद को मुक्तांचल के माध्यम से जारी रखा जाए। मंच का सफल संचालन खुदीराम बोस सेंट्रल कॉलेज की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. शुभ्रा उपाध्याय ने किया। मंच पर उपस्थित अतिथियों में पूर्व प्राध्यापक डॉ. अरुण कुमार, डॉ. अरुण होता, डॉ. सत्या उपाध्याय, प्रो. मंजु रानी सिंह, मृत्युंजय श्रीवास्तव, डॉ. मनीषा झा, डॉ. इतु सिंह, कथाकार सेराज खान बातिश और स्वयं प्रख्यात कथाकार धनेश दत्त पाण्डेय शामिल थे।

आलोचना एवं विमर्श पर केन्द्रित पहले सत्र की अध्यक्षता डॉ. अरुण कुमार ने की। बीज वक्तव्य देते हुए स्टेट यूनिवर्सिटी पश्चिम बंगाल के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. अरुण होता ने कहा कि हिंदी कहानी की 222 वर्षों की यात्रा, उसके मील के पत्थर और बदलते सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि कहानी का रास्ता सपाट नहीं, बल्कि टेढ़ा-मेढ़ा होता है जो समाज की विविध गतियों को समेटता है। उन्होंने कहानी की प्रासंगिकता, उसकी बहुस्तरीय यथार्थ दृष्टि, सांद्रता, नाटकीयता और पठनीयता पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि कहानीकार के लिए समय और समाज से जुड़ना आवश्यक है, अन्यथा रचना दीर्घकालिक प्रभाव नहीं छोड़ पाती। साथ ही, उन्होंने विमर्शपरक रचनाओं की सीमाओं और सामर्थ्य दोनों को स्वीकारते हुए समकालीन कहानी के बदलते स्वरूप पर प्रकाश डाला।

खिदिरपुर कॉलेज, कोलकाता की प्राध्यापिका डॉ. इतु सिंह ने प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘कफन’ और पंकज मित्र द्वारा लिखित ‘कफन रिमिक्स’ का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि कैसे नई कहानियाँ पुराने कथानकों को नए सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में पुनर्सृजित कर रही हैं - जैसे मनरेगा, सरकारी योजनाएँ, और बदलते ग्रामीण जीवन के यथार्थ। यह प्रयोग साहित्य में परंपरा और नवीनता के संगम को दर्शाता है।

एमएसटीसी के पूर्व महाप्रबंधक मृत्युंजय श्रीवास्तव ने कहा कि जो कहानी आप सोच के नहीं पढ़ते हैं वो कहानी जीवित नहीं रहती है। कहानी में  रिपीटेशन बहुत जरूरी चीज है, ठीक वैसे ही जैसे किसी रेस्टोरेंट में ग्राहक का रिपीट होना बहुत जरूरी है। अगर, कहानी में, कविता में अगर पाठक रिपीट नहीं होता है तो वह कहानी, वह कविता जिंदा नहीं रहती।

उत्तर-बंग विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. मनीषा झा ने कहा कि मुक्तांचल के जनवरी-मार्च 2025 के अंक में प्रकाशित 'मशालदानी' कहानी की तुलना 1960 की 'वापसी' जैसी कहानियों से की जा सकती है। उन्होंने आगे कहा कि परिवार, संबंध और समय के बदलते समीकरण इन जैसी कहानियों की संवेदना को समकालीन बनाते हैं। ‘फुज्जार’ कहानी संग्रह की कहानियाँ आधुनिकता और परंपरा के द्वंद्व, पीढ़ियों के टकराव और बदलती सामाजिक संरचना को प्रभावशाली ढंग से चित्रित करती हैं।

कलकत्ता गर्ल्स कॉलेज की प्राचार्य डॉ. सत्या उपाध्याय ने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रत्येक कहानी का एक उद्देश्य होता है वही उसकी शिक्षा है बिना उद्देश्य के, बिना शिक्षा के कोई कहानी नहीं हो सकती है, इसे एक वाक्य में कहे 'सहितस्य भावः साहित्यम्' यानी  जिसमें सहित का भाव हो, उसे साहित्य कहते हैं। जो रचना अपने भीतर प्राणी मात्र के हित साधन का भाव लिए हो, वही साहित्य है।

राँची विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक डॉ. अरुण कुमार ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि “कहानियाँ कहना और सुनना हमारी आदि प्रवृत्ति है-वे शिक्षा भी देती हैं, और समय-समाज से जुड़कर ही दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ती हैं।”

आलेख पाठ एवं संवाद पर केन्द्रित दूसरे सत्र की अध्यक्षता विश्वभारती विश्वविद्यालय डॉ. मंजु रानी सिंह ने की। इसमें विशिष्ट अतिथि प्रख्यात कथाकार धनेश दत्त पांडेय, कथाकार सेराज खान ने कहानी के समकालीन स्वरूप और नए संदर्भों में कहानी की प्रासंगिकता पर विचार रखा।

'फुज्जार' कहानी संग्रह का मुख्य समीक्षा वक्तव्य विश्वभारती विश्वविद्यालय, शान्तिनिकेतन की पूर्व प्राध्यापिका डॉ. मंजु रानी सिंह ने प्रस्तुत किया।  उन्होंने कहा कि 'फुज्जार' संग्रह की कहानियाँ भारतीय समाज के विविध यथार्थ-महानगरीय, ग्रामीण, कस्बाई की परतों को गहराई से उद्घाटित करती हैं। धनेश दत्त पाण्डेय की कहानियाँ केवल सतही यथार्थ नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक यथार्थ की जटिलताओं को उजागर करती हैं। उन्होंने कहा कि कहानी में संप्रेषणीयता, सांद्रता और नाटकीयता आवश्यक हैं, और 'फुज्जार' की कहानियाँ इन तत्वों को बखूबी समेटे हुए हैं।

'फुज्जार' की कहानियों पर लिलुआ हाई स्कूल के प्रधानाचार्य विवेक लाल, शिक्षक ऋतेश पाण्डेय, हिंदी विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका दिव्या प्रसाद व डॉ. अनिता कुमारी ठाकुर ने कहानी की समालोचना में भाग लिया। 

          कार्यक्रम में शोधार्थी निखिता पाण्डेय, शालू सिंह, संध्या राम, दिव्या पाण्डेय व प्राध्यापिका डॉ. रेखा कुमारी त्रिपाठी, डॉ. अनिता कुमारी ठाकुर ने अपने शोधपत्र का वाचन किया। समापन सत्र में वक्ताओं ने कहा कि 'फुज्जार' कहानी संग्रह हिंदी कहानी की समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाता है और समकालीन समाज की जटिलताओं को नई दृष्टि से प्रस्तुत करता है।

कोलकाता के ख्यातिलब्ध कथाकार सिद्धेश जी द्वारा संपादित 'कथान्तर' कहानी संग्रह का समीक्षा वक्तव्य कथाकार सेराज खान बातिश ने देते हुए कहा कि साहित्यिक सृजन केवल लेखन नहीं, बल्कि जीवन के गहरे अनुभवों, संघर्षों, संवेदनाओं और पारिवारिक सहयोग का परिणाम है। लेखक और उसकी रचना के बीच का संबंध अत्यंत आत्मीय और गहन होता है, जो साहित्य को जीवंत और प्रासंगिक बनाता है।

          यह समीक्षा कार्यक्रम न केवल 'फुज्जार' और ‘कथान्तर’ कहानी संग्रह की साहित्यिक महत्ता को रेखांकित करने वाला रहा, बल्कि हिंदी कहानी की परंपरा, उसकी नवीन प्रवृत्तियों और सामाजिक सरोकारों पर भी गंभीर विमर्श का मंच बना।

संगोष्ठी में वक्ताओं ने इस बात पर बल दिया कि हिंदी कहानी की शक्ति उसकी समय-सापेक्षता, सामाजिक सरोकार और शिल्पगत नवीनता में निहित है। आज की कहानी न केवल अपने समय के यथार्थ को उद्घाटित करती है, बल्कि नई पीढ़ी की सोच और संवेदनाओं को भी अभिव्यक्त करती है। कार्यक्रम के अंत में सभी अतिथियों व श्रोताओं का आभार व्यक्त किया गया तथा हिंदी कहानी की निरंतर समृद्धि की कामना के साथ संगोष्ठी का समापन हुआ। यह राष्ट्रीय संगोष्ठी हिंदी कहानी के समकालीन विमर्श, परंपरा और नवीनता के संवाद का महत्वपूर्ण मंच बनी।

            साहित्यिक कार्यक्रम को सफल बनाने में संयोजक डॉ. विनय मिश्रा, डॉ. विजया सिंह, सुशील कुमार पाण्डेय, विनोद यादव, पद्माकर व्यास, सरिता खोवाला, विनिता लाल, परमजीत पंडित व प्रिया श्रीवास्तव, त्रिनेत्रकांत त्रिपाठी, राजसार्थक शर्मा, बलराम साव, रुद्रकांत झा तथा अन्य का सहयोग रहा।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I