फिर तो तुम नकली साहित्यकार हो सुभाष

लवलीन ...! कहानी, कविता और पत्रकारिता का हमारे समय का बेहद चर्चित और संज़ीदा नाम। जयपुर के मेरे साहित्यिक मित्रों की सूची बहुत ही छोटी है और उस सूची में से ही एक नाम है लवलीन (लवलीन को गए हुए एक ज़माना बीत गया मगर उनके लिए "थी" कहना अब भी अच्छा नहीं लगता है ) सन् 2000 के आसपास मेरा उनसे परिचय हुआ और फिर यह नाम मेरे घनिष्ठ मित्रों में शामिल हो गया। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैं जयपुर गया हूँ और लवलीन के घर ना गया होऊँ। उनके घर के बाहर वाले गेट में घुसने से पहले उनके बड़े सारे पालतू डाॅगी का भय मुझे हमेशा सताता और हर बार लवलीन का एक ही तकिया कलाम होता- "नहीं खाएगा सुभाष तुम्हें पहचानता है।" खैर... कुशलक्षेम पूछने के बाद सिगरेट के चिरपरिचित धुएँ की महक से आच्छादित वातावरण में कविता सुनने-सुनाने का दौर... और बीच-बीच में यह भी कि- "तुम्हें सिगरेट से परेशानी तो नहीं हो रही...!" कविताओं के बाद अक्सर कहतीं कि- "अब तक तुम्हारा कविता संग्रह आ जाना चाहिए था... मैं प्रकाशक से बात कर लेती हूँ ...मैं तुम्हारी कविताएँ पुस्तक रूप में देखना चाहती हूँ।" ...और लवलीन की यह इच्छा उस प्यारी दोस्त के साथ ही चली गई...
राजेंद्र यादव जी से मेरी पहली बार फोन पर बात लवलीन ने ही करवाई थी और उसके बाद उनसे बहुत अच्छे रिश्ते बने... और आज दोनों ही इस दुनिया में नहीं हैं।
एक बार हमारे समय के महत्त्वपूर्ण संपादक-कथाकार हेतु भारद्वाज जी ने नीम का थाना में दो दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम करवाया था, मुझे ठीक से तो याद नहीं, शायद वह समय भी सन् 2000 के आसपास का समय रहा होगा जिसमें मैं भी आमंत्रित था। कार्यक्रम के बाद शाम के समय पहले काॅलेज की छत पर बैठे देर तक बातें करते रहे और उसके बाद 'अंगूर की बेटी' का कार्यक्रम' जो कि चलना ही था। मैं, लवलीन और भगवानदास मोरवाल जी नीचे कमरे में आ गए... दो गिलास में 'सोमरस' डालने के बाद जैसे ही लवलीन तीसरे गिलास में डालने लगी तो मैंने मना करते हुए कहा कि- "मैं नहीं लेता।" पहले तो उन्होंने मेरी ओर आश्चर्य से देखा, जब मैंने फिर वही दोहराया कि- "हाँ ! सच में नहीं लेता ।" तो हँसते हुए बोलीं- "फिर तो तुम नकली साहित्यकार हो सुभाष।"
जब मैं 'प्रशांत ज्योति' में साहित्य संपादक था, तब ना जाने कितनी ही बार कहने के साथ ही बिना किसी ना नुकुर के बहुत ही सहजता से उन्होंने रचनात्मक सहयोग दिया जो आज 'प्रशांत ज्योति' की फाइलों में दर्ज है।
...और एक दिन (5 जनवरी, 2009) अचानक सुबह-सुबह जनवादी लेखक संघ के प्रदेश महासचिव राजेंद्र साईवाल जी का फोन आया और उन्होंने बुरी सूचना दी कि- " सुभाष जी! लवलीन...!"
हमारे समय की महत्त्वपूर्ण रचनाकार, बेहद संवेदनशील इंसान और मेरी अति सम्मानित मित्र लवलीन के जन्मदिन (10 अप्रैल) के अवसर पर मुबारकबाद और उनकी स्मृति को नमन् ! उनके और अन्य साहित्यकार मित्रों के लिखे बहुत सारे पत्र मेरी साहित्यिक निधि में शामिल थे मगर एक बार बहुत तेज़ बारिश में कमरे की छत गिर जाने से बहुत से लेखकों के अनेकानेक पत्र और बहुत सारी किताबें नष्ट हो गईं । इस बेहतरीन रचनाकार के हस्ताक्षर से युक्त एक पोस्ट कार्ड (10.10.2005) अब भी मैंने सहेजा हुआ है।
प्यारी दोस्त! हम तुम्हें आज भी वैसे ही याद करते है- हमेशा की तरह- तुम्हारी अमिट स्मृतियों को सलाम।
स्रोत: सुभाष सिंगाठिया फेसबुक पेज
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