राजकुमार कुम्भज की नौ कविताएँ

वसंत में वसंत से पहले
पाँव तले जमीन है सिर ऊपर आसमान
अतिरिक्त इसके यहाँ कुछ नहीं, कुछ नहीं जीवन में
क्या सिर्फ एक जीवन, क्या सिर्फ एक मृत्यु?
नहीं, नहीं, एक जीवन में जीवन कई-कई
एक जीवन में प्रेम कई-कई
एक प्रेम में वसंत कई-कई
एक वसंत में वसंत कई-कई
कई-कई सुख, कई-कई दुख और-और
ताप, प्रलाप, संताप, दूरियाँ कई-कई
स्मृतियाँ, विस्मृतियाँ भी कई-कई
जो लहराती रहती हैं दूरस्थ यूँ ही, यूँ ही
एक पाँव इस तरफ, एक पाँव उस तरफ
एक राह छूटती है, आती हैं राहें नई-नई, कई-कई
हर किसी उद्बोधन की शब्दावली नई-नई
नई-नई शब्दावली के अर्थ गांभीर्य कई-कई
मैं निपट अकेला वृक्ष-सा घने सूने में
सूने में सूने कई-कई, जंगल कई-कई
जंगल में तानपुरा, तानपुरे की तान कई-कई
तान के तनाव में जीवन और प्रेम
जीवन और प्रेम की तान में तनाव कई-कई
एक नदी, एक नाव जैसे और पतवारें कई-कई
फिर यहीं-कहीं कई-कई ध्वनियाँ भी
जो सुकोमल भी, सुमधुर भी, वीभत्स भी
कुत्सित भद्दे चेहरों पर साज-सज्जाएँ कई-कई
वसंत में, वसंत से पहले जैसे आपातकाल की हलचल
हलचल में हलचल की जागती विचारधाराएँ कई-कई
पाँव तले जमीन है सिर ऊपर आसमान।
वसंत में वसंत की आकाँक्षा लिए
अंधेरे में खो जाती हैं परछाइयाँ
सदियाँ हुई कि डरती हैं वे भी अंधेरों से
सड़कें नापते हुए भी काँपती हैं भाषाएँ
बेहद लंबा, बेहद घना है साम्रज्य भय का
और किसी को भी किसी का भी भरोसा नहीं है
दूर कहीं, दूर कहीं थोड़ी-बहुत भी चिंगारियाँ होने का
थोड़ा बहुत, थोड़ा-बहुत अंदेशा तो है
किंतु वहाँ कीचड़ बहुत है, दलदल बहुत है
वसंत में, वसंत की आकाँक्षा लिए खबरदार हूँ मैं
खिलौना नहीं हूँ कि खो जाऊँगा
सिर ऊपर उठाता हूँ सपने।
वंचितों का ऐसा हो वसंत
क्रूरता विरुद्ध कायरता न हो
लोहा हो पिघलता, औजारों में ढलता हो
आग हो आवाज में, कंठ में अटकती न हो
फूलों की खुशबू जैसी दया हो सभी के लिए, सभी में
न हो, न हो खोटे सिक्के जैसी घृणा कहीं भी
ईंख की मिठास हो निबोलियों में, हर कहीं, हर कहीं
बोली-बानी में फटी कमीज के भी किस्से हों
सरकारी-तरकारी के हिस्से हों बराबर-बराबर हर कहीं
बर्बरता जाए चूल्हे में तमाम राख होने
सोने के लिए सोने के महल न हों कहीं भी
चार जन रहते हैं जैसे भी रहते हैं मिलजुल
रहे कुछ-कुछ वैसे ही ये देश, ये दुनिया
वसंत जब जो आता है, गाता है मधुरताएँ भीनी-भीनी
कब कहा उसने कि बादशाह है वह
और जंगल भर पर है एकाधिकार उसका ही?
नहीं वह कमतर, नहीं वह वाचाल जरा भी
रोटियों में नमक के स्वाद जैसा चुप वह
सुख-संचितों, सुख-वंचितों में एक जैसा
संकुचन न हो, विस्तार हो वस्तुओं का, विचारों का
वंचितों का ऐसा हो वसंत।
मुस्कुराते हुए वसंत में मुस्कुराते हुए
रिश्तों की दरारें रिश्ते जानें
दीवारों की दरारें जानें दीवारें ही, हर्ज नहीं
किंतु दीवारें मौसम की जब होती ही नहीं हैं
तब फिर, तब फिर एक ही जंगल में
हरे भी, पीले भी, नीले भी रहते हैं
खिलते हैं कैसे साथ-साथ
झूमते हुए सहते हैं ताप और आद्रताएँ सभी
मुस्कुराते हुए वसंत में मुस्कुराते हुए।
स्त्रियों से ही है वसंत
स्त्रियों से ही है वसंत
और स्त्रियों से ही है जीवन-सुख अनंत
न हों स्त्रियाँ तो फिर कैसा ब्रह्म, कैसा ब्रह्मांड...?
नदियाँ स्त्रियों से, फूलों में खुशबू स्त्रियों से
आकाश स्त्रियों से, आकाश में उड़ना स्त्रियों से
शस्त्र और शास्त्र स्त्रियों से और हार-जीत भी
पाँव-पाँव चलता है, दौड़ता है, हाँफता है संसार
तार-तार भी, बेतार भी, हो जाता है स्मृतियों में
पहाड़ सदियों के ढोता है अपने कांधों पर
बिजली के तारों से लपेटता है दुख अपने
दुख मगर स्त्रियों के भी तो कुछ कम नहीं
टुकड़ा-टुकड़ा सुलगती रहती हैं गीली लकिड़याँ
जीवन में जीवनभर के लिए भर जाता है धुआँ
अक्षर-अक्षर क्षरण, घिसता है पत्थर भी
परिभाषाएँ बदलती नहीं हैं ताप की, संताप की
जितना-जितना खुलती हैं अपनी आकाँक्षाओं में
उतना-उतना बंद होती जाती हैं स्त्रियाँ
अपनी पवित्रताओं से करती हैं उद्धार सभी का
उनकी सोच सिर्फ उनकी नहीं, न प्रेम ही
एकाकी कुछ नहीं उनके एकांत में कुछ भी नहीं
ढोल-ढमाके छीनते ही रहते हैं उनके सपने
सपने वे भी छिन ही जाते हैं स्त्रियों के
स्त्रियाँ जो देखती हैं सपने दूसरों के लिए
दूसरों की दुनिया में जीवन नहीं, जीवन का अनंत है
स्त्रियों से ही वसंत है।
है मेरा वसंत भी यही
है मेरा वसंत भी यही
माँगने से पेश्तर बेहतर है मर जाना
माँगने से कभी भी मुकम्मल नहीं होती है जिंदगी
हक है जो उसे हारना क्यों?
बेशक है जो उसे माँगना क्यों?
माँगना भीख है, लाचारी है, बना रही है भिखारी
नहीं बनूँगा भिखारी, मैं बनूँगा नहीं
माँगूगा जो भीख तो लडूँगा कैसे?
भीख जो माँगते हैं,
सच कभी भी, कहीं भी कहते नहीं हैं
कहीं भी अन्याय के विरूद्ध
युद्ध कभी भी, कहीं भी लड़ते नहीं हैं
माँगने से पेश्तर बेहतर है मर जाना
माँगना ही हुआ तो माँगूगा आग और ताप और साहस
ताकि लड़ूँ और मरूँ जब तक रहूँ जिंदा यहाँ
शक नहीं, मेरा हक है मेरी ये जिंदगी
है मेरा वसंत भी यही...
वसंत हूँ मैं - 1
वसंत हूँ मैं, अलग है लहजा मेरा
आता हूँ, गाता हूँ, मस्ती की अपनी ही धुन में
मुझे नहीं परवाह किसी की भी नहीं जरा भी
किंतु नहींहूँ मैं जरा भी लापरवाह
परवाह मुझे हर किसी राह की, हद-बेहद
उसकी भी कि बेपरबाह जो, लापरवाह जो
और हाँकता रहता है सिर्फ अपनी-अपनी ही शौर्य गाथाएँ
जागो और जगाओ इधर से उधर विप्लव फिर एक बार
और अपनों को, अपनों के सपनों को भी यारों
ये भूलते हुए ठीक-ठीक कि गैर नहीं, कोई यहाँ
सभी में हो एक जैसा, एक जैसा ही हाजिर-नाजिर
उल्लास और उजास फिर-फिर।
वसंत हूँ मैं - 2
वसंत हूँ मैं, अलग है मिजाज मेरा
जागता हूँ, जगाता हूँ नींद से अपनी ही लय में
मुझे नहीं भाषा की नक्काशीदार तमीज भी वैकल्पिक
किंतु नहीं हूँ मैं किंचित भी बदतमीज
खुशबू है मुझमें हर किसी फूल की अछूती
उसकी भी कि असहमत जो, कमतर जो
और भौंकता-झौंकता रहता है हर कहीं, हर कहीं
एकाधिकारवाद
अगर वह जागता नहीं है तो करूँ क्या मैं?
बेसबब-बे वक्त मरना आता नहीं, सीखा नहीं
बेसुरा भी मैं कभी कहीं कदापि गाता नहीं
बुद्ध में हूँ, तो युद्ध में भी हूँ, मैं ही निरंतर-निरंतर
एक ऊर्जा, एक ताप जैसा सब में।
वसंत हूं मैं - 3
वसंत हूँ मैं अलग है हिसाब मेरा,
थका भी नहीं हूँ, चुका भी नहीं हूँ मैं अभी,
कभी थकूँगा भी नहीं, शायद कि पृथ्वी-पुत्र हूँ,
चुक जाएँगे जो, थक जाएँगे वो, यहीं-कहीं
चूकने से पहले, चुकता करूँगा छल-बल सब
अपने ही जैसे हैं जो उनसे भी लड़ूँगा भरपूर
सोचता हूँ तो सोचता हूँ ये भी कि कुछ इधर-उधर नहीं
कारण नहीं डरने का जरा भी, तो डरूँगा ही क्यों?
अखबार में छपूँगा नहीं तो क्या जन्म पाऊँगा नहीं?
मेरा आना जन्मसिद्ध अधिकार है मेरा, याद रखना
घर अपना ही बुहारने में निमंत्रण कैसा और क्यों?
पीले चावल भी नहीं चाहिए मुझे।
संपर्क: 331, जवाहरमार्ग, इंदौर - 452002, फोन: 0731-2543380
ई-मेल : rajkumarkumbhaj47@gmail.com
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