ईश्वरचंद विद्यासागर: आधुनिक भारत के शिल्पकार, जिनकी विचारधारा आज भी राह दिखाती है
ईश्वरचंद विद्यासागर 19वीं शताब्दी के भारत के महान शिक्षाविद्, समाज-सुधारक और मानवतावादी विचारक थे, जिन्होंने भारतीय समाज में तर्क, करुणा और समानता के आधार पर बदलाव की नींव रखी। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह को वैध कराने, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने और बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध साहसी संघर्ष किया। उनकी रचनाएँ और शिक्षा सुधार आज भी प्रासंगिक हैं। विद्यासागर का जीवन आदर्शों, नैतिकता और सेवा भावना का उदाहरण है। उनकी पुण्यतिथि पर यह लेख उनके बहुआयामी योगदान और विचारों की समकालीन उपयोगिता को रेखांकित करता है।

शिक्षा, समाज-सुधार और मानवीय गरिमा के संवाहक युगपुरुष की पुण्यतिथि पर एक गहन मूल्यांकन
भारत के सामाजिक, शैक्षिक और नैतिक पुनर्जागरण में जिन कुछ व्यक्तित्वों का योगदान कालातीत है, उनमें ईश्वरचंद विद्यासागर का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है। वे केवल बंगाल ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में मानवता, तर्कशीलता और करुणा के अप्रतिम प्रतीक थे। 29 जुलाई उनकी पुण्यतिथि है, यह न केवल श्रद्धांजलि देने का दिन है, बल्कि उनके विचारों की पुनःप्रासंगिकता पर विचार करने का भी अवसर है।
जीवन का आरंभ: विपरीत परिस्थितियों में जन्मा 'ज्ञान का सागर'
ईश्वरचंद का जन्म 26 सितंबर 1820 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के बीरसिंह गाँव में एक अत्यंत साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता ठाकुरदास बंद्योपाध्याय अत्यंत निर्धन थे, लेकिन बेटे की शिक्षा के लिए उन्होंने असाधारण त्याग किए। कोलकाता में अध्ययन करते समय, ईश्वरचंद रात को सड़क की लैंपपोस्ट के नीचे पढ़ाई करते थे। ऐसी कठिन परिस्थितियों में उन्होंने संस्कृत कॉलेज से व्याकरण, वेदांत, साहित्य, तर्कशास्त्र और ज्योतिष की शिक्षा में उच्चतम स्थान प्राप्त किया।
उनकी विद्वता को सम्मान देते हुए उन्हें ‘विद्यासागर’ की उपाधि प्रदान की गई, जिसका अर्थ है-ज्ञान का सागर।
शिक्षा में सुधार: जड़ पर प्रहार
विद्यासागर भारतीय समाज की जड़ता को शिक्षा के माध्यम से तोड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि केवल धर्म या कर्मकांड से समाज में सुधार नहीं होगा, बल्कि तार्किक, आधुनिक, और मानवीय शिक्षा से ही परिवर्तन आएगा।
उनके शिक्षा सुधारों में शामिल थे:
स्त्री शिक्षा का प्रसार: उन्होंने स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए लड़कियों के विद्यालयों की स्थापना की।
सरल भाषा का प्रयोग: उन्होंने बांग्ला भाषा को संस्कृतनिष्ठ बोझिलता से मुक्त कर सरल, सुबोध और व्यवहारिक बनाया।
शिक्षा का मानवीकरण: उन्होंने शिक्षा को सैद्धांतिक ज्ञान से आगे बढ़ाकर सामाजिक जिम्मेदारी और नैतिक मूल्य निर्माण का माध्यम बनाया। उनकी पुस्तक ‘वर्ण परिचय’ आज भी बंगाली बच्चों की पहली पाठ्य-पुस्तक के रूप में जानी जाती है।
समाज सुधार: क्रांति बिना रक्त के
विद्यासागर एक ऐसे समाज सुधारक थे जो धर्म की आड़ में होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध पूरी दृढ़ता से खड़े हुए।
विधवा पुनर्विवाह का आंदोलन
19वीं शताब्दी का भारतीय समाज विधवाओं के प्रति अमानवीय था। कम उम्र में विधवा हुई स्त्रियों को जीवनभर कठोर सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ता था। विद्यासागर ने शास्त्रों का गहन अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि हिंदू धर्म में विधवा पुनर्विवाह वर्जित नहीं है। उन्होंने अकेले दम पर ब्रिटिश शासन को 1856 में हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित करने के लिए विवश किया। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह की अगुआई अपने ही परिजनों में करवाई, ताकि आंदोलन महज़ विचार न रह जाए, बल्कि कर्म बने।
बाल विवाह के विरोध में आवाज़
वे बाल विवाह के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने इसे नारी के मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया और इसके खिलाफ जनचेतना अभियान चलाया।
निजी जीवन: आदर्श और आचरण की समरूपता
विद्यासागर का जीवन त्याग और आदर्शों का जीवंत उदाहरण था।
सरल जीवन: उन्होंने कभी किसी पद या सम्मान को महत्त्व नहीं दिया।
निस्वार्थ सेवा: अकाल पीड़ितों के लिए उन्होंने अपने वेतन का बड़ा भाग दान कर दिया।
धार्मिक सहिष्णुता: वे अंधविश्वास के विरोधी थे, लेकिन सभी धर्मों के प्रति सम्मान रखते थे।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता
आज जब समाज पुनः पितृसत्ता, धर्मांधता और वर्गभेद के संकटों से घिरा है, विद्यासागर की शिक्षाएं प्रेरणा और समाधान दोनों प्रदान करती हैं:
विषय विद्यासागर का दृष्टिकोण आज की प्रासंगिकता
स्त्री अधिकार शिक्षा, पुनर्विवाह, गरिमा महिलाओं के लिए समान अवसरों की आवश्यकता
शिक्षा सरल, नैतिक और सार्वभौमिक वर्तमान शिक्षा प्रणाली में मूल्यों की कमी
धर्म और तर्क धर्म के साथ तर्क की संगति धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध वैज्ञानिक सोच
विचारों की रोशनी आज भी जल रही है
ईश्वरचंद विद्यासागर मात्र एक नाम नहीं, एक विचारधारा हैं जो तर्क, करुणा और साहस के स्तंभों पर टिकी है।
उनकी पुण्यतिथि केवल श्रद्धांजलि का अवसर नहीं, बल्कि एक आत्ममंथन का क्षण है, क्या हम उनके अधूरे कार्यों को आगे बढ़ा रहे हैं?
आज की पीढ़ी को विद्यासागर से यह सीखना चाहिए कि सच्चा परिवर्तन केवल सत्ता से नहीं, बल्कि विचार और कर्म से आता है।
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