'सुई से विमान तक' – औपनिवेशिक मिथकों के विरुद्ध भारत का प्राचीन नवाचार
यह संपादकीय उस मिथक का खंडन करता है जिसमें कहा गया है कि ब्रिटिश राज से पहले भारत में सुई तक नहीं बनती थी। ऐतिहासिक व पुरातात्विक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि भारत प्राचीन काल से ही धातु विज्ञान, शल्य चिकित्सा, वस्त्र निर्माण, यांत्रिकी और नवाचार में विश्व के अग्रणी देशों में रहा है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने सुनियोजित रूप से भारत की वैज्ञानिक और औद्योगिक विरासत को नष्ट करने और भारतीयों को हीनभावना से ग्रस्त करने का कार्य किया। यह लेख भारतीय आत्मबोध और तकनीकी परंपरा को पुनः पहचानने का आह्वान करता है।

भारतीय इतिहास के विषय में एक बहुप्रचारित कथन है- “ब्रिटिश राज से पहले भारत में सुई तक नहीं बनती थी।” यह कथन सुनने में जितना सरल और प्रभावशाली लगता है, उतना ही वह ऐतिहासिक तथ्यों से परे, उपनिवेशवादी मानसिकता की पैदाइश है। यह कथन न केवल भारत के समृद्ध शिल्प, विज्ञान और तकनीकी परंपरा को नकारता है, बल्कि यह एक सचेतन प्रयास था भारतीयों के आत्मसम्मान को छीनने और ब्रिटिश उपनिवेशवाद को ‘उद्धारकर्ता’ के रूप में प्रस्तुत करने का। आज जब हम अपने अतीत को नए सिरे से देखने की चेष्टा कर रहे हैं, यह आवश्यक है कि ऐसे मिथकों का तार्किक, तथ्यात्मक और विवेकपूर्ण खंडन किया जाए।
औद्योगिक समझ से पहले की तकनीकी दृष्टि
भारत में विज्ञान और तकनीक का इतिहास केवल कुछ सौ वर्षों का नहीं, बल्कि सहस्राब्दियों पुराना है। हड़प्पा सभ्यता (2500–1700 ई.पू.) की खुदाइयों में धातु-निर्माण, शृंखलाबद्ध नगर-योजना, जल निकासी प्रणाली, वस्त्र उद्योग और उपकरण निर्माण के प्रमाण प्राप्त होते हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांसे की नर्तकी (Bronze Dancing Girl) यह दर्शाती है कि लगभग पाँच हजार वर्ष पहले भारत में धातु मिश्रण (एल्लॉय) तकनीक विकसित हो चुकी थी।
'सुई' का मिथक और तथ्य
यदि 'सुई' को प्रतीकात्मक रूप से सबसे सूक्ष्म या जटिल औजारों में से एक माना जाए, तो भी भारत इसकी निर्माण कला से अपरिचित नहीं था। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) की रिपोर्टों के अनुसार महाजनपद काल (600 ई.पू.) तथा गुप्त काल (320–550 ई.) के दौरान लोहे, कांसे और हड्डी की सूइयाँ निर्मित होती थीं। इन सूइयों का प्रयोग न केवल वस्त्र सिलने में, बल्कि आयुर्वेदिक चिकित्सा में शल्य क्रिया के उपकरणों के रूप में भी होता था।
भारत का विज्ञान और नवाचार
आयुर्वेद और शल्यचिकित्सा
चरक और सुश्रुत जैसे आचार्यों ने आयुर्वेद, शरीर रचना और शल्यचिकित्सा के जो सिद्धांत प्रतिपादित किए, वे केवल दार्शनिक नहीं, व्यावहारिक थे। सुश्रुत संहिता में 125 से अधिक शल्य उपकरणों का वर्णन है, जिनमें सुई जैसे उपकरण भी सम्मिलित हैं।
धातु विज्ञान
दिल्ली का लौह स्तंभ (लगभग 5वीं शताब्दी ई.) आज भी बिना जंग लगे खड़ा है। इससे स्पष्ट है कि भारत में लौह शोधन (iron smelting) और स्थायित्व की तकनीक उच्च स्तर पर थी। ज़िंक डिस्टिलेशन (जस्ते की आसवन प्रक्रिया) भारत में 12वीं सदी तक प्रचलित थी, जबकि यूरोप में यह प्रक्रिया सत्रहवीं सदी में पहुँची।
विमान-विचार और यंत्रविद्या
भले ही 'विमान' का आधुनिक अर्थ उड़ने वाले यंत्र से है, लेकिन प्राचीन भारतीय ग्रंथों- विशेषकर विमान शास्त्र जैसे ग्रंथों में यंत्रविमान की अवधारणा विस्तृत रूप में मिलती है। भले ही इन ग्रंथों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता आज बहस का विषय हो, परंतु यह तो स्पष्ट है कि कल्पना और यांत्रिक प्रयोगशीलता का बीज बहुत पहले बोया जा चुका था।
ब्रिटिश दृष्टिकोण: रणनीतिक मिथ्याचार
ब्रिटिश राज का उद्देश्य भारत के संसाधनों का शोषण और उसकी सांस्कृतिक आत्मा को अपदस्थ करना था। इसके लिए आवश्यक था कि भारतीयों को यह विश्वास दिलाया जाए कि वे तकनीकी रूप से पिछड़े, असंगठित और “सभ्यता” के अभाव में हैं। थॉमस मैकॉले का प्रसिद्ध Minute on Indian Education (1835) इसी मानसिकता की अभिव्यक्ति है, जिसमें कहा गया कि भारतीयों को ऐसा शिक्षा तंत्र दो जो उन्हें अपनी संस्कृति से दूर ले जाए।
ब्रिटिश शासन से पहले भारत विश्व के वस्त्र व्यापार का केंद्र था। ढाका की मलमल, बनारस की रेशम, सूरत की छपाई – ये सब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध थे। अंग्रेजों ने न केवल इन उद्योगों को योजनाबद्ध तरीके से समाप्त किया, बल्कि भारतीय कारीगरों की उंगलियाँ काटने जैसी क्रूर घटनाएँ भी इतिहास में दर्ज हैं।
मिथकों का उत्तर, आत्मबोध से
“सुई तक नहीं बनती थी” कहना एक सभ्यता को अपमानित करने का प्रयास था। यह कथन उन करोड़ों हाथों की कला, उन असंख्य मस्तिष्कों की नवोन्मेषी ऊर्जा और उन हजारों वर्षों की परंपरा को नकारता है जिसने भारत को एक प्राचीन वैश्विक शक्ति बनाया था।
अब आवश्यकता है कि भारत अपने अतीत को बिना अंध-गौरव के, किंतु बिना हीन-ग्रंथि के भी देखे। हमें अपनी सभ्यता की वैज्ञानिक, तकनीकी और औद्योगिक उपलब्धियों को पुनः पढ़ना, सहेजना और वर्तमान शिक्षा में समाहित करना होगा।
क्योंकि यदि मिथक ‘सुई’ से शुरू होता है, तो सत्य ‘विमान’ तक जाता है।
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