जॉन चार्नोक और कलकत्ता की स्थापना : इतिहास, राजनीति और आधुनिक प्रभाव
24 अगस्त 1690 को जॉन चार्नोक द्वारा कलकत्ता की स्थापना भारतीय इतिहास का अहम मोड़ थी। यह लेख ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों, कलकत्ता के व्यापारिक, सांस्कृतिक और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान तथा आधुनिक कोलकाता पर इसके दीर्घकालीन प्रभावों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

भारतीय उपनिवेशवाद के इतिहास में 24 अगस्त 1690 की तिथि एक विशेष महत्व रखती है। इसी दिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जॉन चार्नोक (Job Charnock) ने हुगली नदी के तट पर एक छोटे से गाँव में अपना ठिकाना बनाया, जिसे बाद में कलकत्ता (अब कोलकाता) के रूप में जाना गया। यह घटना केवल एक नगर की स्थापना भर नहीं थी, बल्कि भारत में अंग्रेज़ी प्रभुत्व के दीर्घकालीन विस्तार की शुरुआत भी थी।
तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य
सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत की राजनीतिक स्थिति जटिल थी। मुग़ल साम्राज्य औरंगज़ेब के अधीन चरमोत्कर्ष पर था, परंतु उसकी केंद्रीय सत्ता धीरे-धीरे कमजोर पड़ रही थी। बंगाल, जो कृषि-संपन्न और व्यापारिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध प्रदेश था, मुग़ल प्रशासन का अहम अंग था। यूरोपीय व्यापारिक कंपनियाँ पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज़ सभी बंगाल की संपन्नता और रणनीतिक स्थिति पर निगाहें गड़ाए हुए थे। स्थानीय स्तर पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर थी, परंतु विदेशी व्यापार के अवसरों ने बंगाल को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ना शुरू कर दिया। इसी समय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने लिए स्थायी ठिकाना खोजने का प्रयास किया।
ईस्ट इंडिया कंपनी की विस्तारवादी नीति
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का उद्देश्य भारत में मसालों, वस्त्रों और अन्य कच्चे माल के व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करना था। शुरुआती दौर में उन्हें पुर्तगालियों और डचों से कड़ी प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ी। कंपनी की नीति यह थी कि स्थानीय सत्ता चाहे मुग़ल दरबार हो या प्रांतीय नवाब से फ़रमान प्राप्त कर राजनीतिक संरक्षण हासिल किया जाए और फिर धीरे-धीरे सैन्य व प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित किया जाए। कलकत्ता में कंपनी का ठिकाना इसी नीति का परिणाम था। जॉन चार्नोक ने हुगली नदी के किनारे स्थित तीन गाँवों सूतानटी, गोविंदपुर और कलिकाता को मिलाकर अपना केंद्र बनाया। यहाँ से कंपनी को गंगा-डेल्टा के जरिए आंतरिक व्यापार और समुद्री व्यापार दोनों में सुविधा मिली।
कलकत्ता का विकासक्रम और भूमि-राजनीति
कलकत्ता का विकास भूमि-राजनीति से गहराई से जुड़ा था। कंपनी ने स्थानीय ज़मींदारों और मुग़ल प्रशासन से भूमि पट्टे लेकर धीरे-धीरे अपना कब्ज़ा मजबूत किया। 1698 में कंपनी ने इन तीनों गाँवों का अधिकार सुबेदार आज़ीम-उश-शान से ले लिया। इसके बाद फ़ोर्ट विलियम का निर्माण हुआ, जो केवल व्यापारिक सुरक्षा का केंद्र नहीं बल्कि राजनीतिक प्रभुत्व का प्रतीक भी था। कंपनी ने गाँवों को नगर के रूप में विकसित किया, बंदरगाहों का विस्तार किया और व्यापार के लिए आवश्यक बुनियादी ढाँचा खड़ा किया।
व्यापारिक महत्व और आर्थिक प्रभाव
कलकत्ता का भौगोलिक स्थान इसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण बनाता था। यहाँ से जूट, रेशम, कपास, नील, चाय और चावल का व्यापार फलने-फूलने लगा। ब्रिटिश व्यापारी यहाँ से माल लादकर यूरोप भेजते थे और बदले में औद्योगिक क्रांति से उपजे सामान भारत में बेचते थे। इस व्यापार ने भारत की पारंपरिक कुटीर उद्योगों को कमजोर किया और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विदेशी पूँजी और माल पर आश्रित बना दिया। आर्थिक दृष्टि से यह उपनिवेशवादी शोषण का शुरुआती चरण था।
सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव
कलकत्ता केवल व्यापारिक केंद्र नहीं रहा; यह धीरे-धीरे सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी केंद्र बना। अंग्रेज़ों के साथ-साथ आर्मेनियाई, चीनी और अन्य समुदाय भी यहाँ बसने लगे। नगर के विस्तार ने आधुनिक शिक्षा, प्रेस और साहित्य के केंद्रों को जन्म दिया।
उन्नीसवीं शताब्दी में कलकत्ता भारतीय पुनर्जागरण का गढ़ बना, रबींद्रनाथ ठाकुर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय जैसे महान चिंतक यहीं से उभरे। अंग्रेज़ी शासन की दमनकारी नीतियों के बीच यह शहर भारतीय चेतना और सुधार आंदोलनों की जन्मभूमि बन गया।
स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
कलकत्ता स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख भूमि रहा। 1905 के बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन यहीं से प्रारंभ हुआ। यहीं पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनेक ऐतिहासिक अधिवेशन हुए। यह शहर क्रांतिकारी गतिविधियों का भी केंद्र रहा, अनुशीलन समिति और युगांतर जैसी संस्थाओं ने यहीं से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी।
कलकत्ता ने न केवल राजनीतिक प्रतिरोध को जन्म दिया बल्कि मजदूर आंदोलनों, छात्र आंदोलनों और साहित्यिक प्रतिरोध के जरिए स्वतंत्रता संग्राम की गति को निर्णायक बनाया।
आधुनिक कोलकाता पर दीर्घकालीन प्रभाव
आज का कोलकाता अपने औपनिवेशिक अतीत का साक्षी है। फ़ोर्ट विलियम, विक्टोरिया मेमोरियल और पुराने औपनिवेशिक भवन इस इतिहास की झलक देते हैं। यह शहर आज भी भारत का सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है, साहित्य, रंगमंच, संगीत और कला की धरोहर यहीं सबसे गहरी है।
परंतु उपनिवेशवाद की छाया अब भी देखी जा सकती है, जैसे असमान शहरी ढाँचा, पुराने औद्योगिक ढाँचे पर निर्भरता और ग्रामीण-शहरी विषमता। साथ ही, इस स्थापना ने आधुनिक शहरीकरण और वैश्विक संपर्क का मार्ग भी प्रशस्त किया।
जॉन चार्नोक द्वारा 1690 में कलकत्ता की स्थापना केवल एक व्यापारिक कदम नहीं था; यह भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य की नींव रखने वाला ऐतिहासिक क्षण था। यह नगर धीरे-धीरे उपनिवेशवाद का प्रतीक बनकर उभरा, लेकिन साथ ही भारतीय पुनर्जागरण, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारतीय पहचान का भी केंद्र बना।
आज का कोलकाता इस ऐतिहासिक यात्रा का जीवंत साक्ष्य है, जहाँ उपनिवेशवादी शोषण की स्मृतियाँ और स्वतंत्रता संग्राम की गौरवपूर्ण विरासत एक साथ दिखाई देती हैं।
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