लचित बोरफुकन जयंती: सराईघाट के वीर सेनानायक की अटल विरासत
24 नवंबर को मनाया जाने वाला लचित बोरफुकन दिवस असम और भारत की वीरता का प्रतीक है। सराईघाट में मुग़लों पर उनकी ऐतिहासिक विजय नेतृत्व, साहस और राष्ट्र-कर्तव्य का सर्वोच्च उदाहरण है। पढ़िए, 1500 शब्दों का प्रेरणादायक संपादकीय।
लचित बोरफुकन: इतिहास की धारा मोड़ने वाला एक मनुष्य
किसी भी राष्ट्र की आत्मा उसकी भूमि, उसकी भाषा, या उसके वंश में नहीं बसती; वह उन व्यक्तित्वों में बसती है जो कठिनतम क्षणों में आशा और प्रतिरोध के स्तंभ बन जाते हैं। भारत के विस्तृत इतिहास में अनेक सेनानायक हुए, परंतु कुछ नाम ऐसे हैं जो वीरता के पार जाकर नैतिक नेतृत्व की परंपरा स्थापित करते हैं। लचित बोरफुकन ऐसा ही नाम है, एक ऐसा नाम जो असम की मिट्टी में जन्मा, परन्तु जिसका साहस सम्पूर्ण भारत की चेतना का अंग बन गया। 24 नवंबर, उनकी जयंती, केवल एक ऐतिहासिक तिथि नहीं, यह वह क्षण है जब भारत अपने भीतर छिपी हुई शक्ति की याद करता है। यह दिन हमें बताता है कि जब कोई मनुष्य अपने कर्तव्य को जीवन से भी ऊपर रख देता है, तो इतिहास उसकी तलवार से नहीं, उसके संकल्प से बदलता है।
असम की चेतना का संकल्प, लचित का उदय
17वीं शताब्दी का असम राजनीतिक उथल-पुथल और बाहरी आक्रमणों से जूझ रहा था। मुग़ल साम्राज्य पूर्वोत्तर को अपने नियंत्रण में लाने के लिए विशाल सेनाओं का प्रयोग कर रहा था। ब्रह्मपुत्र घाटी, अपनी रणनीतिक स्थिति के कारण, मुग़लों की आकांक्षाओं का केंद्र बन चुकी थी। ऐसे निर्णायक समय में आहॉम राजवंश ने लचित बोरफुकन को बोरफुकन (कमांडर-इन-चीफ) नियुक्त किया। यह नियुक्ति केवल पद या परंपरा का परिणाम नहीं थी, यह समय की पुकार थी। लचित के भीतर वह दुर्लभ मिश्रण था, रणनीति की बुद्धिमत्ता, नेतृत्व की कठोरता और मातृभूमि के प्रति अपार निष्ठा। लचित का प्रारंभिक जीवन विलासिता का नहीं था; यह वह साधना थी जिसमें अनुशासन, कर्म और देश-भक्ति का संस्कार बचपन से ही गहराई तक उतारा गया था। उन्होंने यह सिद्ध किया कि नेतृत्व जन्मसिद्ध नहीं, कर्मसिद्ध गुण है।
सराईघाट, जहाँ एक संकल्प ने साम्राज्य की गति रोक दी
सराईघाट का युद्ध केवल असमिया इतिहास का गर्व नहीं, यह भारतीय सैन्य कौशल का अद्वितीय उदाहरण है। ब्रह्मपुत्र नदी की उफनती धाराएँ, धुंध से भरे तट, कम संसाधन और थकी हुई सेना, यह वह परिस्थितियाँ थीं जिनमें किसी भी सेनापति को असमर्थता का अनुभव हो सकता था। लेकिन लचित बोरफुकन ने परिस्थिति को कमजोरी नहीं, रणनीति का हथियार बना दिया।
उन्होंने नदी को दुश्मन नहीं, अपना सबसे बड़ा सहयोगी बनाया।
जहाँ मुग़ल सेना अपनी विशालता के कारण जलमार्ग पर बोझिल हो जाती थी, वहीं लचित ने असम की कुशल नौका-सेना को इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि नदी ही प्रतिरोध की दीवार बन गई। नदी की अनिश्चितता, धारा की गति, जलमार्ग के जालों का प्रयोग, यह सब लचित की युद्ध-योजना के हिस्से थे। उन्होंने सिद्ध किया कि युद्ध तलवारों का शोर नहीं, बुद्धि का शिल्प है। इतिहासकार लिखते हैं कि कई मुग़ल सरदारों ने पहली बार युद्धभूमि में भय को इतनी तीव्रता से महसूस किया, क्योंकि उन्होंने एक ऐसे सेनापति को देखा जो संख्या से नहीं, संकल्प से लड़ रहा था।
अनुशासन का वह क्षण, जिसने लचित को अमर कर दिया
लचित बोरफुकन की कथा का सबसे गूढ़ और साहसी प्रसंग वह है जब उन्होंने अपने मामा को कर्तव्यहीनता के लिए दंडित किया। यह प्रसंग इतिहास की किसी कथा की क्रूरता नहीं, यह अनुशासन की वह निष्ठुर स्पष्टता है जिसमें राष्ट्रहित को सर्वोच्च स्थान प्राप्त होता है।
व्यक्तिगत संबंधों से ऊपर उठकर लिया गया निर्णय ही राष्ट्रभक्ति की परिभाषा है।
इस घटना ने सेना की रीढ़ को नया बल दिया। सैनिकों ने देखा कि जब सेनापति अपने ही रक्त-संबंध के विरुद्ध न्याय कर सकता है, तो वह भूमि के लिए किसी भी बलिदान के लिए तैयार होगा। यह भरोसा कोई आदेश लेकर उत्पन्न नहीं होता, यह चरित्र की गहराई से उत्पन्न होता है। यही वह क्षण है जहाँ लचित असम के नायक से राष्ट्र के प्रहरी बन जाते हैं।
नेतृत्व का सार, जब एक मनुष्य सेना बन जाता है
सत्ता और नेतृत्व के स्वरूप को लेकर आधुनिक विश्व में लगातार विमर्श चल रहा है। क्या नेतृत्व पद है? विशेषाधिकार है? लोकप्रियता है?
लचित बोरफुकन की कथा इस भ्रम को मिटा देती है। उनका नेतृत्व हमें बताता है कि नेतृत्व वह है जो थके हुए मनुष्यों को उठाता है, भयभीत सैनिकों में आत्मविश्वास जगाता है और परिस्थितियों की कठोरता को चुनौती में बदल देता है। सराईघाट में कई स्रोत लिखते हैं कि लचित गंभीर रूप से बीमार थे। परंतु जब उन्होंने देखा कि सेना का मनोबल डगमगा रहा है, तो वे बीमार शरीर को घसीटते हुए नदी किनारे पहुँचे और युद्धनौका पर खड़े हो गए।
उन्होंने कहा, “मातृभूमि के लिए मेरा शरीर भले टूट जाए, पर मेरा संकल्प नहीं टूटेगा।” यही वह क्षण था जब असमिया सेना ने अपने भीतर नया बल अनुभव किया। एक अकेले मनुष्य ने अपनी उपस्थिति से पूरे युद्ध का परिणाम बदल दिया।
24 नवंबर, क्यों यह दिन केवल स्मरण नहीं, एक राष्ट्रीय संदेश है
हर वर्ष 24 नवंबर पर असम और देश भर में लचित बोरफुकन को श्रद्धांजलि दी जाती है। पर यह केवल इतिहास-पूजन नहीं, यह उस चेतना के पुनर्जागरण का दिन है जो बताती है कि राष्ट्र उन लोगों से नहीं बनता जो सुरक्षित किलों में बैठकर आदेश देते हैं, बल्कि उन लोगों से बनता है जो कठिनतम क्षणों में आगे बढ़कर कहते हैं, “वापसी विकल्प नहीं है।” लचित दिवस इस मनोवैज्ञानिक दृढ़ता का उत्सव है। असम के विद्यालयों में जब बच्चे उनकी कथा सुनते हैं, तो यह केवल गुणगान नहीं; यह आने वाली पीढ़ियों की रीढ़ के निर्माण की प्रक्रिया है। दिल्ली में हर वर्ष होने वाला लचित दिवसम समारोह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि उनकी वीरता अब क्षेत्रीय नहीं, राष्ट्रीय धरोहर है।
आज के भारत के लिए लचित बोरफुकन का संदेश
भारत आज भी अनेक चुनौतियों से गुजर रहा है-
● भौगोलिक खतरे
● सामाजिक तनाव
● वैचारिक विभाजन
● तकनीकी आक्रमण
● नेतृत्व पर बढ़ते नैतिक प्रश्न
ऐसे समय में लचित बोरफुकन की कथा किसी दूरस्थ इतिहास की प्रतिध्वनि नहीं, बल्कि वर्तमान की आवश्यकता है।
स्पष्टता और नैतिकता का नेतृत्व
उन्होंने दिखाया कि शक्ति पद में नहीं, नैतिकता में होती है।
सामूहिक हित निजी हित से ऊपर
उनका मामा-प्रसंग हमें याद दिलाता है कि राष्ट्रहित से बड़ा कोई संबंध नहीं।
दृढ़ता और रणनीति
कम संसाधन कोई कमजोरी नहीं होते, यदि नेतृत्व बुद्धिमान और संकल्पबद्ध हो।
भय पर विजय
लचित का संकल्प बताता है, सैनिक नदी से नहीं डरता, नेता का डगमगाना उसे डराता है।
जब राष्ट्र अपनी आत्मा को छू लेता है
लचित बोरफुकन की जयंती हर वर्ष हमें पुनः यह स्मरण कराती है कि राष्ट्र की शक्ति सेनाओं की संख्या या साम्राज्यों की व्यापकता में नहीं, बल्कि उन लोगों में छिपी होती है जो सही समय पर सही निर्णय लेते हैं। जिनके भीतर यह साहस होता है कि कर्तव्य जीवन से ऊँचा है, और मातृभूमि का सम्मान व्यक्ति के सम्मान से बड़ा है। लचित की कथा में वह प्रकाश है जो समय के अंधकार को चीर देता है। वह बताती है कि इतिहास का सबसे बड़ा सत्य यह है, एक दृढ़ मनुष्य अकेले भी राष्ट्र की दिशा मोड़ सकता है। और 24 नवंबर को जब यह नाम हमारे भीतर उठता है, तो यह केवल स्मरण नहीं, यह कर्तव्य का पुनर्जागरण है, यह साहस का पुनरुत्थान है, यह भारत की आत्मा का पुनर्प्रकाशन है।
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