एकल परिवार की ओर बढ़ता भारतीय समाज : अभिशाप या वरदान
भारतीय समाज का संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर बढ़ना समय की माँग है, लेकिन यह बदलाव तभी वरदान सिद्ध होगा, जब हम इसकी चुनौतियों का समाधान सामूहिक रूप से करें। हमें आधुनिकता और परंपरा के बीच एक सेतु बनाना होगा, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक एकजुटता दोनों को संरक्षित करे। समाज, सरकार और व्यक्तियों को मिलकर ऐसी नीतियाँ और प्रयास करने होंगे, जो एकल परिवारों को सशक्त बनाएँ और साथ ही भारतीय संस्कृति की मूल भावना को जीवित रखें। यह संतुलन ही इस परिवर्तन को सही मायनों में सार्थक बनाएगा।

भारतीय समाज की सामाजिक संरचना में परिवार एक आधारभूत इकाई रहा है। परंपरागत रूप से संयुक्त परिवार भारतीय संस्कृति का प्रतीक माना जाता था, जहाँ कई पीढ़ियाँ एक छत के नीचे सामंजस्य के साथ रहती थीं। यह व्यवस्था सामाजिक सुरक्षा, भावनात्मक संबल और सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण का सशक्त माध्यम थी। लेकिन आधुनिकीकरण, शहरीकरण, वैश्वीकरण और बदलती आर्थिक परिस्थितियों के साथ भारतीय समाज संयुक्त परिवार से एकल या माइक्रो परिवार की ओर तेजी से बढ़ रहा है। यह परिवर्तन समाज के लिए अभिशाप है या वरदान, इस पर गंभीर चिंतन आवश्यक है।
एकल परिवार के लाभ: एकल परिवार, जिसमें दंपत्ति और उनके बच्चे शामिल होते हैं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देता है। शहरी जीवन की भागदौड़ और सीमित आवासीय स्थान ने माइक्रो परिवारों को व्यावहारिक बनाया है। यह व्यवस्था व्यक्तियों को अपनी प्राथमिकताओं और करियर पर ध्यान केंद्रित करने की स्वतंत्रता देती है। महिलाओं के लिए विशेष रूप से यह बदलाव सशक्तिकरण का कारण बना है, क्योंकि संयुक्त परिवार की जटिल जिम्मेदारियों से मुक्त होकर वे अपनी शिक्षा, करियर और व्यक्तिगत विकास पर ध्यान दे पा रही हैं। इसके अलावा, माइक्रो परिवारों में निर्णय लेने की प्रक्रिया सरल और त्वरित होती है, जो आधुनिक जीवनशैली के अनुकूल है। आर्थिक दृष्टि से भी माइक्रो परिवार संसाधनों का अधिक कुशल उपयोग कर सकते हैं, क्योंकि उनकी जरूरतें और खर्च सीमित होते हैं।
एकल परिवार की चुनौतियाँ: हालाँकि, एकल परिवारों का उदय बिना चुनौतियों के नहीं है। संयुक्त परिवार जहाँ बुजुर्गों के अनुभव, बच्चों के लिए सामूहिक देखभाल और आर्थिक संसाधनों का साझा उपयोग प्रदान करते थे, वहीं एकल परिवारों में यह समर्थन प्रणाली कमजोर पड़ रही है। बुजुर्ग अक्सर अकेलेपन और उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं, क्योंकि युवा पीढ़ी अपनी व्यस्तता में उन्हें समय नहीं दे पाती। बच्चों के लिए भी दादा-दादी या अन्य रिश्तेदारों का सान्निध्य कम होने से सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का हस्तांतरण प्रभावित हो रहा है। भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका असर पड़ रहा है, क्योंकि एकल परिवारों में तनाव और संघर्ष को साझा करने की गुंजाइश कम होती है। इसके अलावा, एकल परिवारों पर आर्थिक दबाव बढ़ रहा है, क्योंकि संयुक्त परिवारों में संसाधनों का बँटवारा लागत को कम करता था।
संतुलन की आवश्यकता: यह परिवर्तन न तो पूर्णतः अभिशाप है और न ही पूर्णतः वरदान। संयुक्त परिवार की अपनी ताकत थी, लेकिन उसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता की कमी अक्सर तनाव का कारण बनती थी। दूसरी ओर, एकल परिवार व्यक्तिगत विकास को बढ़ावा देते हैं, लेकिन सामाजिक और भावनात्मक एकाकीपन को जन्म दे सकते हैं। इस बदलाव को सकारात्मक दिशा में ले जाने के लिए संतुलन जरूरी है। समाज को ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित करनी होंगी, जो माइक्रो परिवारों को सामुदायिक समर्थन प्रदान करें। उदाहरण के लिए, सामुदायिक केंद्र, वृद्धाश्रमों की बजाय सहायता-आधारित देखभाल प्रणाली, और बच्चों के लिए सांस्कृतिक शिक्षा के अवसर इस कमी को पूरा कर सकते हैं। साथ ही, तकनीक का उपयोग कर परिवार के सदस्य भौगोलिक दूरी के बावजूद भावनात्मक रूप से जुड़े रह सकते हैं।
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