भारतीय ज्योतिष शास्त्र: वैदिक परंपरा से खगोलीय विज्ञान तक की यात्रा
यह लेख भारतीय ज्योतिष शास्त्र के वैदिक मूल, ऐतिहासिक विकास और वैज्ञानिक पक्ष का विश्लेषण करता है। आचार्य लगध, आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे महान विद्वानों के योगदान से यह विद्या समय और ब्रह्मांड के बीच गहरे संबंधों को समझाने वाली एक समग्र प्रणाली के रूप में विकसित हुई। यह आज भी सांस्कृतिक, धार्मिक और गणनात्मक रूप से प्रासंगिक है।

भारतीय सभ्यता अपने ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति और आध्यात्मिकता के लिए विश्वविख्यात रही है। इन अनेक विधाओं में से एक है- भारतीय ज्योतिष शास्त्र, जिसे न केवल धर्म और परंपरा से जोड़ा गया है, बल्कि यह एक गहन वैज्ञानिक अध्ययन और विश्लेषण की प्रणाली भी है। यह शास्त्र नक्षत्रों, ग्रहों और खगोलीय घटनाओं के प्रभाव का विश्लेषण करता है और उनका पृथ्वी व मनुष्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझाने का प्रयास करता है।
ज्योतिष शास्त्र की जड़ें वैदिक काल तक जाती हैं, जब ऋषियों ने आकाश की गतियों और समय चक्र को समझकर मनुष्यों के जीवन से जोड़ने का कार्य प्रारंभ किया।
इतिहास: वैदिक युग से प्रारंभ
भारतीय ज्योतिष शास्त्र का इतिहास वैदिक काल में रचित वेदांगों में वर्णित है।
वेदांग ज्योतिष – यह ज्योतिष शास्त्र की सबसे पुरानी शाखा है, जिसे आचार्य लगध ने सूत्र रूप में प्रस्तुत किया।
इसमें तिथियाँ, नक्षत्रों की स्थिति, ग्रहण, संक्रांति, ऋतु और कालगणना को वर्णित किया गया।
ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में भी सूर्य, चंद्र, ग्रहों और ऋतुओं का गहन उल्लेख मिलता है।
भारतीय गणना प्रणाली में काल चक्र – युग, वर्ष, मास, पक्ष, दिन, घड़ी (घंटा) और पल तक को खगोलीय घटनाओं से जोड़ा गया।
प्राचीन ज्योतिषाचार्य और उनकी कृतियाँ:
आर्यभट्ट (5वीं शताब्दी): 'आर्यभटीय' में पृथ्वी की गति, चंद्र-सूर्य की कलाएँ, ग्रहण की गणना आदि पर वैज्ञानिक विश्लेषण।
वराहमिहिर (6वीं शताब्दी): 'बृहज्जातक', 'बृहत्संहिता', 'पंचसिद्धांतिका' जैसी कालजयी रचनाएँ।
ब्रह्मगुप्त (7वीं शताब्दी): 'ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' – ग्रहों की गति, त्रिकोणमिति और दशा प्रणाली का वर्णन।
भास्कराचार्य (12वीं शताब्दी): 'सिद्धांत शिरोमणि' – खगोलीय गणना, ग्रहण, संक्रांति, ज्यामिति और बीजगणित का अनुपम मिश्रण।
इन सभी विद्वानों ने ज्योतिष को गणित, खगोलशास्त्र और अनुभवजन्य ज्ञान के रूप में विकसित किया।
भारतीय ज्योतिष की संरचना
भारतीय ज्योतिष तीन मुख्य भागों में विभाजित है:
1. सिद्धांत ज्योतिष (Astronomical Astrology):
इसमें खगोलीय पिंडों की स्थिति, गति, ग्रहण, अयनांश आदि की गणना की जाती है।
यह भारतीय खगोलशास्त्र का वैज्ञानिक पक्ष है।
2. संहिता ज्योतिष (Mundane Astrology):
इसमें राज्य, समाज, कृषि, प्राकृतिक घटनाओं, युद्ध, आदि की भविष्यवाणियाँ की जाती हैं।
वराहमिहिर की 'बृहत्संहिता' इसका प्रमुख उदाहरण है।
3. होराशास्त्र (Predictive Astrology):
यह व्यक्तिगत जन्मकुंडली पर आधारित होता है।
दशा प्रणाली, ग्रह गोचर, लग्न, भाव और राशियों के आधार पर व्यक्ति के जीवन की प्रवृत्तियों, समस्याओं और संभावनाओं का विश्लेषण किया जाता है।
वैज्ञानिकता और गणनात्मक पक्ष
भारतीय ज्योतिष के सिद्धांत खगोलीय घटनाओं और गणनाओं पर आधारित हैं:
पंचांग निर्माण में तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण – इन पाँच तत्वों की गणना की जाती है।
मुहूर्त निर्धारण – शुभ कार्यों जैसे विवाह, यज्ञ, यात्रा, गृहप्रवेश आदि के लिए उचित समय ज्योतिषीय गणना से तय होता है।
दशा प्रणाली (Vimshottari Dasha) – यह एक अत्यंत वैज्ञानिक समय चक्र है, जो व्यक्ति के जीवन को कालखंडों में बाँटकर विश्लेषण करता है।
गोचर (Transit) – ग्रहों की वर्तमान स्थिति का प्रभाव, कुंडली में उनकी मूल स्थिति से तुलना कर देखा जाता है।
सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव
भारतीय समाज में ज्योतिष केवल भविष्यवाणी नहीं, जीवन मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार्य रहा है:
त्योहारों और पर्वों की तिथि निर्धारण ज्योतिष पर आधारित होता है, जैसे मकर संक्रांति, होली, दीपावली, एकादशी आदि।
संस्कारों के शुभ मुहूर्त, जैसे विवाह, नामकरण, अन्नप्राशन, गृहप्रवेश आदि का निर्धारण।
ग्रहणों और संक्रांतियों में स्नान, दान और पूजा का विशेष महत्व।
यह विद्या व्यक्ति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करने का माध्यम रही है।
समकालीन संदर्भ में प्रासंगिकता
आज जब वैज्ञानिकता और तकनीक का युग है, तब भी भारतीय पंचांग, ग्रहण की सटीक तिथि और समय, चंद्र व सूर्य ग्रहण की भविष्यवाणी, आदि विषयों में भारतीय ज्योतिष शास्त्र की प्रामाणिकता और उपयोगिता बनी हुई है। देश-विदेश की अनेक विश्वविद्यालयों में यह विषय शैक्षिक अनुशासन के रूप में पढ़ाया जा रहा है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र, एक सांस्कृतिक पहचान, वैज्ञानिक सिद्धांत और आध्यात्मिक विश्वास का संगम है। इसकी वैदिक उत्पत्ति और गणनात्मक गहराई इसे अंधविश्वास से अलग करती है। आज के वैज्ञानिक युग में इसके ऐतिहासिक योगदान को समझना और पुनः आत्मसात करना आवश्यक है।
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