प्रशासनिक तानाशाही: IGRS शिकायतों पर कार्रवाई से पहले शपथ-पत्र की माँग, स्वास्थ्य विभाग पर सवाल
UP स्वास्थ्य महानिदेशालय ने मीरजापुर के शिकायतकर्ता जयचंद मौर्य से IGRS शिकायतों पर आगे कार्रवाई से पहले शपथ-पत्र मांगकर विवाद खड़ा किया। क्या यह प्रशासनिक तानाशाही है?
प्रशासनिक तानाशाही या जाँच प्रक्रिया? स्वास्थ्य महानिदेशालय ने शिकायतकर्ता पर ही डाल दी जवाबदेही का बोझ
लखनऊ, 18 नवंबर 2025। उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी पत्र संख्या 1फ/आईजीआरएस/2025/1575 एक बार फिर उन आरोपों को बल देता है कि राज्य में शिकायत निस्तारण प्रक्रिया अब लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व से हटकर प्रशासनिक तानाशाही की ओर मुड़ी दिखाई देती है।
पत्र में मीरजापुर निवासी जयचंद मौर्य को संबोधित करते हुए कहा गया है कि उनकी शिकायतें IGRS संदर्भ संख्या 60000250248976, 60000250237249, 60000250237250, 60000250237251, 6000250237255, 6000250237254, 600002507256 पर आगे कोई कार्रवाई तभी की जाएगी, जब वे शपथ-पत्र के माध्यम से अपने आरोपों की पुष्टि करेंगे।
घटना का मूल विवाद
शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि उनकी पत्नी सरिता मौर्या तथा अभय राज विश्वकर्मा की मेडिकल पर्चियों की हस्तलिपि जाँच की जानी चाहिए। उन्होंने प्रयागराज CMO कार्यालय की भ्रामक व त्रुटिपूर्ण रिपोर्ट को रद्द करने तथा जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई की माँग की थी।
शासनादेश का ‘पूरा’ उपयोग पर चुनिंदा तरीके से
महानिदेशक कार्यालय ने शासनादेश 1/2024/63/सैंतालीस-का-1-2024-13(1)/1997 दिनांक 29.01.2024 का हवाला देते हुए कहा कि: “अन्य स्रोतों / व्यक्तियों से प्राप्त शिकायतों पर कार्रवाई तभी की जाएगी जब शिकायतकर्ता शपथ-पत्र व साक्ष्य प्रस्तुत करे।”
लेकिन प्रश्न यह है - क्या यह प्रावधान ‘जाँच’ सुनिश्चित करने के लिए है, या ‘जाँच टालने’ के लिए?
विशेषज्ञों की राय: यह ‘प्रशासनिक तानाशाही’ का आधुनिक रूप मानवाधिकार और प्रशासनिक प्रणाली पर शोध करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि हाल के वर्षों में ब्यूरोक्रेसी में फाइल-सुरक्षा मानसिकता बढ़ी है। शिकायतकर्ता को ही ‘संदिग्ध’ मान लेना एक संस्थागत प्रवृत्ति बन चुकी है। शासनादेशों का उपयोग न्याय टालने के उपकरण के रूप में होने लगा है। यह प्रक्रिया जवाबदेही से भागने की रणनीति है। विशेषज्ञ इसे ‘प्रशासनिक तानाशाही का साइलेंट मॉडल’ कहते हैं।
शपथ-पत्र क्यों माँगा जा रहा है? आलोचकों की दृष्टि
अधिकारी पहले से दी गई लिखित शिकायतों और IGRS सत्यापन को ही पर्याप्त नहीं मानते।
इससे जाँच का बोझ नागरिक पर डाल दिया जाता है।
प्रशासन स्वयं कोई प्राथमिक जाँच नहीं करना चाहता।
यदि शिकायतकर्ता गरीब, अशिक्षित या असहाय हो, तो वह शपथ-पत्र नहीं दे पाएगा।
और यही प्रशासन के लिए ‘शिकायत निस्तारण से बचने’ का आसान रास्ता बन जाता है।
पत्र में ‘दोषियों’ का नाम नहीं, ‘शिकायतकर्ता’ ही केंद्र में
पत्र में CMO प्रयागराज की त्रुटियों, भ्रामक रिपोर्ट, दोषी अधिकारियों का कहीं कोई उल्लेख जवाबदेही के रूप में नहीं किया गया। पूरी भाषा का स्वर शिकायतकर्ता को ही कटघरे में खड़ा करने जैसा महसूस होता है।
प्रशासनिक तानाशाही का लक्षण: शिकायतकर्ता को ही शांत कर दो।
उत्तर प्रदेश में बढ़ती शिकायत-व्यवस्था पर विशेषज्ञों की टिप्पणी:
“जाँच से बचने का सरल तरीका है शिकायतकर्ता पर ही अतिरिक्त दबाव डाल दो।”
“शपथ-पत्र, सत्यापन, पुन: प्रस्तुति यह सब फाइलों का बोझ नहीं, नागरिकों का बोझ बढ़ाता है।”
“यह जनता को सत्यापित होने की स्थिति में खड़ा करता है, जबकि सत्यापित होना प्रशासन का कर्तव्य है।”
यह मामला एक प्रशासनिक संकट का संकेत
यह पूरा प्रकरण एक बड़े प्रश्न को जन्म देता है: “क्या शिकायतों का निस्तारण नागरिक अधिकार है या प्रशासन की कृपा?” उत्तर प्रदेश में हाल के मामलों में बढ़ती यही प्रवृत्ति दर्शाती है कि ब्यूरोक्रेसी, नागरिकों से अधिक फाइलों को बचाने में लगी हुई है। यह घटना पारदर्शिता, जवाबदेही, और नागरिक अधिकारों की परीक्षा ले रही है।
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