UP सूचना आयोग की तीन अपीलें फिर टलीं: ऑफलाइन उपस्थिति अनिवार्य, पारदर्शिता पर उठे सवाल

प्रयागराज की तीन संयुक्त अपीलों में आयोग ने अगली तारीख 10 दिसंबर 2025 तय की। विशेषज्ञों का कहना लंबितता और रिकॉर्ड-आधारित निस्तारण RTI की आत्मा के विपरीत। पढ़ें विश्लेषण।

Nov 18, 2025 - 06:09
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UP सूचना आयोग की तीन अपीलें फिर टलीं: ऑफलाइन उपस्थिति अनिवार्य, पारदर्शिता पर उठे सवाल
उत्तर प्रदेश राज्य मुख्य सूचना आयुक्त राजकुमार विश्वकर्मा

लखनऊ, 30 अक्टूबर 2025। अपीलकर्ता रवि शंकर की तीन संयुक्त अपीलों (एस-01/ए/0141/2024, एस-01/ए/0249/2024, एस-01/ए/0059/2024) में राज्य मुख्य सूचना आयुक्त ने दोनों पक्षों की अनुपस्थिति के चलते अगली तिथि 10 दिसंबर 2025 निर्धारित कर दी है। आदेश में कहा गया है कि यदि दोनों पक्ष उपस्थित नहीं हुए तो उपलब्ध रिकॉर्ड के आधार पर अपीलों का निस्तारण किया जाएगा। नागरिक अधिकार समूहों का कहना है कि लगातार विलंब और रिकॉर्ड-आधारित निस्तारण की चेतावनी आरटीआई की मूल भावना पारदर्शिता, सुविधा और जवाबदेही के प्रतिकूल है।उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग के समक्ष लंबित तीन अपीलें फिर आगे बढ़कर अगली सुनवाई तक टल गईं। सुनवाई के समय अपीलकर्ता रवि शंकर और प्रतिवादी तहसीलदार, सोरांव अनुपस्थित पाए गए। परिणामस्वरूप राज्य मुख्य सूचना आयुक्त राजकुमार विश्वकर्मा ने दोनों पक्षों को ‘अंतिम अवसर’ देते हुए 10 दिसंबर 2025 को उपस्थिति अनिवार्य की।

 प्रकरण की पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता की शिकायतें मूलतः इस आरोप पर आधारित हैं कि तत्कालीन राजस्व निरीक्षक टिकरी अपर्णा श्रीवास्तव एवं संबंधित अन्य राजस्व अधिकारी उनके शिकायती पत्रों को लंबित रखते रहे और गलत/असत्य जांच आख्या भेजते रहे। यह आरोप सीधे-सीधे राजस्व प्रशासन की पारदर्शिता और शिकायत-निस्तारण प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाता है। आयोग ने यह उल्लेख किया कि अपीलकर्ता द्वारा भेजे गए ई-मेल पत्र (दिनांक 21.10.2025) का अवलोकन किया गया। परन्तु इस ई-मेल के आधार पर कोई निर्णय या टिप्पणी आदेश में दर्ज नहीं की गई।

आदेश और उठते हुए सवाल

 “व्यक्तिगत उपस्थिति अनिवार्य” क्या यह RTI की भावना के अनुरूप है?

RTI कानून का मूल स्वरूप न्यूनतम प्रक्रिया, अधिकतम सुविधा पर आधारित है।

परंतु आदेश में कहा गया है: उभयपक्ष अगली तिथि पर व्यक्तिगत रूप से (केवल ऑफलाइन माध्यम से) उपस्थित हों।”

यह निर्देश कई सवाल उठाता है-

 क्या ग्रामीण/दूरस्थ आवेदक के लिए व्यक्तिगत उपस्थिति संभव है?

 क्या आयोग ‘हाइब्रिड/ऑनलाइन’ माध्यम को खत्म कर रहा है?

 क्या इतनी बड़ी देरी के बाद “अनुपस्थिति” को ही प्राथमिक आधार बनाना न्यायसंगत है?

RTI विशेषज्ञ मानते हैं कि सुनवाई को केवल ऑफलाइन कर देना कई आवेदकों के अधिकार को सीमित कर सकता है।

लगातार लंबितता, क्या यह संस्थागत समस्या बन चुकी है?

इन अपीलों की तिथियाँ 2024 से लंबित हैं, और सुनवाई 2025 में भी समाधान से दूर है।

लंबितता का असर:

 नागरिक अपने वैध अधिकारों से वंचित

 प्रशासनिक रिकॉर्ड वर्षों तक अनुत्तरित

 शिकायतकर्ता और अधिकारी दोनों अनिश्चितता में

 जवाबदेही का अभाव बढ़ता है

यह स्थिति RTI कानून के उद्देश्यों, तत्काल पारदर्शिता और सुशासन के बिलकुल विपरीत है।

रिकॉर्ड-आधारित निस्तारण की चेतावनी, क्या यह असंगत नहीं?

आदेश में कहा गया:उपस्थिति न होने पर पत्रावली में उपलब्ध अभिलेखों के आधार पर निर्णय लिया जाएगा।”

जबकि आवेदक का ही आरोप है कि रिकॉर्ड अपूर्ण है, गलत आख्या लगाई गई, शिकायती पत्रों को लंबित रखा गया, ऐसी स्थिति में ‘केवल पत्रावली के आधार पर निर्णय’ क्या न्यायसंगत हो सकता है? विशेषज्ञ कहते हैं कि यह जवाबदेही से बचने का रास्ता तैयार करता है।

संस्थागत असंवेदनशीलता का संकेत

मामले के तथ्य दिखाते हैं, शिकायत-आवेदन पहले से लंबित, अपीलें कई माह/वर्ष से लंबित, रिकॉर्ड पर गंभीर आरोप,

 पर आयोग आदेश में केवल ‘उपस्थिति’ पर जोर देता है, अपीलकर्ता की शिकायतों के मूल बिंदुओं पर कोई प्राथमिक टिप्पणी नहीं। यह रवैया नागरिकों में यह धारणा पैदा करता है कि ‘सुनवाई की तारीखें बढ़ती रहेंगी, जवाबदेही तय नहीं होगी।’

नीतिगत चिंता (Policy Concern)

यदि ऐसे मामलों में संस्थागत देरी, अपूर्ण रिकॉर्ड और गलत जांच आख्या जैसे आरोपों पर कठोर कार्रवाई या समीक्षा नहीं होती, तो यह पूरे RTI ढांचे को कमजोर कर सकता है।

कानून की भावना कहती है-

 सूचना समय पर मिले,

 अपीलों का त्वरित निस्तारण हो,

 अधिकारियों की जवाबदेही तय हो,

परंतु व्यवहार में लंबितता, सुनवाई स्थगन, रिकॉर्ड-आधारित निस्तारण, ऑफलाइन अनिवार्यता ये सब नागरिक अधिकार के पायों को कमजोर करते हैं।

यह आदेश न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है, लेकिन इससे कई गंभीर संरचनात्मक प्रश्न उठते हैं:

क्या सुनवाई पर निर्भरता बढ़ाकर आयोग सुविधा के बजाय औपचारिकता को बढ़ा रहा है?

क्या लंबित अपीलों में देरी खुद पारदर्शिता को कमजोर नहीं करती?

क्या ‘उपस्थिति न होने पर रिकॉर्ड-आधारित निस्तारण’ नागरिक अधिकारों को सीमित करता है?

क्या यह मॉडल विभागीय जवाबदेही से बचने का रास्ता खोल सकता है?

RTI का उद्देश्य नागरिक को मजबूत बनाना है, पर लगातार बढ़ती देरी, प्रक्रियागत कठोरता और सुनवाई-केन्द्रित प्रणाली उस उद्देश्य से दूर जाती दिखती है।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I