करियर बनाम करेक्टर | राकेश कुमार की न्यायिक यात्रा से नैतिक पतन तक | Jago TV Investigative Report

राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार, कभी न्याय की मर्यादा का प्रतीक, आज RTI के पतन का चेहरा। Jago TV की एक्सपोज़ रिपोर्ट में पढ़िए कैसे करियर की ऊँचाई ने करेक्टर की गहराई को निगल लिया।

Nov 6, 2025 - 08:15
Nov 6, 2025 - 12:50
 0
करियर बनाम करेक्टर | राकेश कुमार की न्यायिक यात्रा से नैतिक पतन तक | Jago TV Investigative Report
भ्रष्ट सूचना आयुक्त राकेश कुमार

न्यायपालिका से सूचना आयोग तक की यात्रा, जहाँ ‘कानून की समझ’ ने ‘कानून के सम्मान’ को निगल लिया।

लखनऊ : कभी अदालत में न्याय की प्रतिमूर्ति रहे राकेश कुमार, आज सूचना आयोग की कुर्सी पर बैठकर ‘सूचना के गला घोंटने वाले आयुक्त’ कहलाने लगे हैं। जो व्यक्ति कभी कानून की भाषा बोलता था, वह अब कानून के loopholes को अपना कवच बनाकर बैठा है। राकेश कुमार की यात्रा, न्याय से सूचना तक, वास्तव में करियर बनाम करेक्टर की कहानी है, जहाँ पद की ऊँचाई बढ़ती गई, लेकिन व्यक्ति की गहराई घटती चली गई।

शुरुआत, एक सशक्त न्यायिक करियर

राकेश कुमार का जन्म 25 जनवरी 1962 को उत्तर प्रदेश के संतकबीरनगर जिले के एक सामान्य परिवार में हुआ। 1985 में उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से विधि स्नातक, और 1988 में राजनीति शास्त्र से परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। कानून के क्षेत्र में उनकी यात्रा 1987 में शुरू हुई जब वे सहायक अभियोजन अधिकारी बने, और फिर 1988 में मुंशिफ (न्यायिक सेवा) के पद पर चयनित हुए। तीन दशकों में राकेश कुमार ने विभिन्न जिलों में न्यायाधीश से लेकर जिला न्यायाधीश (सुपर टाइम स्केल) तक का सफर तय किया। सेवा के दौरान उन्हें ‘कुशल प्रशासक’ और ‘कानूनी समझ रखने वाले अधिकारी’ के रूप में जाना गया। लेकिन यही अनुभव आगे चलकर प्रणाली की कमज़ोरियों को हथियार बनाने का जरिया बन गया।

सत्ता के गलियारों में प्रवेश, 'लोकायुक्त से सूचना आयोग तक'

सेवानिवृत्ति से पहले ही राकेश कुमार को उत्तर प्रदेश लोकायुक्त कार्यालय में सचिव / मुख्य सूचना अधिकारी बनाया गया। यहीं से उनके करियर का नैतिक मोड़ शुरू हुआ। लोकायुक्त, एक ऐसा संस्थान जो भ्रष्टाचार के खिलाफ बना था, पर राकेश कुमार वहाँ भ्रष्ट सिस्टम के प्रति सहानुभूति रखने वाले अधिकारी के रूप में जाने लगे। दिसंबर 2016 से मई 2020 तक उन्होंने लोकायुक्त कार्यालय में जो भूमिका निभाई, वह पारदर्शिता नहीं बल्कि प्रोटोकॉल और राजनीतिक तालमेल की मिसाल बन गई। सूत्रों के अनुसार, इसी दौरान उनकी ‘सिस्टम के भीतर स्वीकार्यता’ बढ़ी, और सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें स्थायी लोक अदालत का अध्यक्ष, और फिर 13 मार्च 2024 को राज्य सूचना आयुक्त बना दिया गया। यह यात्रा बताती है, जो व्यक्ति सत्ता को खुश रखे, वही सिस्टम में जीवित रहता है।

सूचना आयोग में प्रवेश, जब पारदर्शिता पर ताला लगा

राकेश कुमार ने राज्य सूचना आयुक्त के रूप में शपथ ली, “सत्य बोलने और संविधान की रक्षा करने” की।

लेकिन कुछ ही महीनों में उन्होंने यह शपथ सिर्फ औपचारिकता में बदल दी। 17 अक्तूबर 2025 को प्रयागराज के अपीलकर्ता रवि शंकर की अपील पर उन्होंने जो आदेश दिया, वह RTI अधिनियम के इतिहास में सबसे विचित्र और खतरनाक उदाहरणों में गिना जा सकता है। उन्होंने कहा, अपीलकर्ता द्वारा अत्यधिक संख्या में आवेदन प्रस्तुत किए जाने से सिस्टम पर भार पड़ा है।” यह वाक्य सुनने में सामान्य है, पर यह पूरे कानून की आत्मा को कुचल देता है। क्योंकि RTI का उद्देश्य ही है, “सिस्टम पर सवाल उठाना।” और जब आयुक्त कहे कि “सवाल मत पूछो, सिस्टम थक गया,” तो यह लोकतंत्र की थकान का सबसे भयावह रूप है।

अवैध निस्तारण, जब कानून की किताब को हथियार बना दिया गया

इस मामले में रवि शंकर ने RTI आवेदन (DMOPR/R/2023/60270) के तहत अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) से जानकारी मांगी थी। लेकिन सूचना आयोग में सुनवाई के दौरान अवैध रूप से अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) को जन सूचना अधिकारी घोषित कर दिया गया, जो पूरी तरह विधि-विरुद्ध था। 26 जून 2025 को एक कूटरचित पत्र लेकर यह दिखाया गया कि सूचना दे दी गई है। राकेश कुमार ने बिना कोई सत्यापन किए, उसी झूठे पत्र के आधार पर अपील निस्तारित कर दी। न तो जवाबदेही तय हुई, न ही अधिकारी पर कोई कार्रवाई। बल्कि अपीलकर्ता को ही ‘सिस्टम पर बोझ’ कहकर अपमानित किया गया। यह घटना सिर्फ एक अपील की नहीं, यह उस ‘प्रवृत्ति’ का प्रतीक है जो अब सूचना आयोगों में व्याप्त है।

करियर का झिलमिलाता मुखौटा बनाम करेक्टर का धुंधला चेहरा

राकेश कुमार का करियर बाहरी तौर पर एक ‘सफल अधिकारी’ की कहानी है, पर अंदर से यह एक सिस्टम-सर्वाइवर की दास्तान है। जिन्होंने न्याय की भाषा का इस्तेमाल सत्ता की भाषा में अनुवाद करने के लिए किया। एक ओर वे कानून पढ़ाते हैं, दूसरी ओर वही कानून तोड़ते हैं। एक ओर वे संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं, दूसरी ओर वही संविधानिक अधिकारों को ‘सिस्टम पर भार’ कहकर ठुकरा देते हैं। यही है वह फर्क, करियर बनाम करेक्टर। करियर पद दिलाता है, करेक्टर प्रतिष्ठा। और राकेश कुमार के मामले में, पद तो ऊँचा हुआ, पर प्रतिष्ठा ज़मीन में धँस गई।

सिस्टम लॉबी, जब आयोग सत्ता का सब-कॉन्ट्रैक्टर बन गया

सूत्रों के अनुसार, राकेश कुमार की नियुक्ति सिस्टम लॉबी की सिफारिश पर हुई थी। यह वही लॉबी है जो लोकायुक्त, न्यायिक सेवा और आयोगों के बीच सत्ता-समर्थक अधिकारियों को सर्कुलेट करती है। इनका काम है “संविधान की रक्षा नहीं, सत्ता की छवि की रक्षा।” यही वजह है कि आयोग अब जनहित का मंच नहीं, बल्कि सिस्टम का पब्लिक रिलेशन विभाग बन चुका है। जहाँ पारदर्शिता का हर सवाल ‘सिस्टम थक गया’ कहकर दबा दिया जाता है।

लोकतंत्र का गिरता मानक, जब जवाबदेही डराने लगी

राकेश कुमार जैसे अधिकारी सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक संरचना का प्रतीक हैं। जहाँ जवाबदेही डराने लगती है, जहाँ सूचना मांगना अपराध बन जाता है, और जहाँ नागरिक को ‘अपीलकर्ता’ नहीं, ‘अपराधी’ समझा जाता है। यह वही दौर है जहाँ RTI अब ‘Right To Information’ नहीं, ‘Restricted To Information’ बन चुका है।

राकेश कुमार ने अपने करियर में सब कुछ हासिल किया पद, प्रतिष्ठा, सत्ता की स्वीकृति। पर उन्होंने खो दिया वह जो सबसे मूल्यवान था नैतिकता। जब किसी न्यायाधीश का विवेक सत्ता के प्रति झुक जाता है, तो वह आयुक्त नहीं, संविधान का अपराधी बन जाता है। उनका करियर लंबा था, लेकिन करेक्टर छोटा। और इतिहास ऐसे ही लोगों को नहीं, उनके पतन को याद रखता है।

What's Your Reaction?

like

dislike

love

funny

angry

sad

wow

न्यूज डेस्क जगाना हमारा लक्ष्य है, जागना आपका कर्तव्य