सिस्टम की मिलीभगत | RTI की हत्या करने वाला नेटवर्क उजागर | Jago TV Investigative Report
UP सूचना आयोग में पारदर्शिता की हत्या, राकेश कुमार की पूरी नियुक्ति यात्रा और नौकरशाही की मिलीभगत पर Jago TV की एक्सक्लूसिव इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट। RTI के गला घोंटने की कहानी।
राकेश कुमार एक ऐसा नाम जिसने RTI की आत्मा को नौकरशाही के जाल में फँसा दिया। एक व्यक्ति, तीन संस्थाएँ, और पारदर्शिता की हत्या का मौन खेल।
उत्तर प्रदेश के राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार की पूरी नियुक्ति यात्रा नौकरशाही नेटवर्क की उस गहरी जड़ को दिखाती है, जो ‘जन-सुनवाई’ और ‘सूचना-अधिकार’ जैसे कानूनों को भीतर से खोखला कर रही है। लोकायुक्त कार्यालय से लेकर स्थाई लोक अदालत तक, और फिर सूचना आयोग, हर पद पर सिस्टम की सुरक्षा और जवाबदेही के नाम पर अपारदर्शिता की नई परतें चढ़ती रहीं।
कहने को यह लोकतंत्र है, “जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता का शासन।”
पर जब जनता की सूचना ही ‘सिस्टम की फाइल’ बन जाए, तो सवाल उठना लाजिमी है, क्या RTI अब भी जनता का अधिकार है या सत्ता की सुविधा?
उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में बैठे राकेश कुमार इस सवाल के प्रतीक हैं, एक ऐसा चेहरा जो दिखने में न्यायिक ठहराव का प्रतीक लगता है, पर निर्णयों में पारदर्शिता को धूल चटाता है।
सिस्टम का आदमी, राकेश कुमार की यात्रा
राकेश कुमार की पूरी नियुक्ति यात्रा एक परिपूर्ण ब्यूरोक्रेटिक रिले रेस की तरह है।
1987 में लोक सेवा आयोग से अभियोजन अधिकारी,
1988 में न्यायिक सेवा (मुंशिफ),
2016 से 2020 तक लोकायुक्त कार्यालय में सचिव,
फिर 2022 से 2024 तक स्थाई लोक अदालत के अध्यक्ष, और अब राज्य सूचना आयुक्त।
हर संस्था, हर पद एक ही दिशा में सिस्टम की रक्षा, न कि जनसत्ता की सेवा।
न्यायपालिका से लोकायुक्त और फिर RTI आयोग तक उनकी यह यात्रा बताती है कि “सत्ता के भीतर रहना” कैसे एक करियर स्ट्रेटेजी बन चुका है।
RTI की हत्या, कागज़ पर निस्तारण, ज़मीन पर अपमान
प्रयागराज के अपीलकर्ता रविशंकर का मामला इस पूरे नेटवर्क का जीवंत उदाहरण है।
तीन साल से लंबित धारा 18 की शिकायत में जहाँ जन सूचना अधिकारी अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) थे, वहीं अवैध रूप से अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) से जवाब दिलवाकर केस निपटाने का नाटक रचा गया।
यह न केवल प्रक्रियात्मक धोखाधड़ी थी बल्कि RTI कानून की आत्मा पर चोट थी।
कानून कहता है, “सूचना देने से मना करने वाला जवाबदेह होगा।”
लेकिन यहाँ जवाब देने वाला बदला गया, जवाबदेही मिटा दी गई, और आयोग ने मौन साध लिया।
सत्ता की गोद में पारदर्शिता का गला
राकेश कुमार ने बतौर आयुक्त बार-बार ऐसे आदेश दिए, जिनसे RTI का उद्देश्य दबता गया।
असली PIO अनुपस्थित, तो किसी भी अफसर से जवाब स्वीकार।
सुनवाई में अपीलकर्ता की आवाज़ काट दी जाती है।
रिकॉर्ड में कूटरचित जवाब को “संतोषजनक” घोषित किया जाता है।
यह सब उस “संवैधानिक मौन” का हिस्सा है, जो लोकतंत्र की रीढ़ तोड़ रहा है।
सवाल उठता है, जब आयोग ही अपारदर्शिता का गढ़ बन जाए, तो नागरिक कहाँ जाए?
लोकायुक्त से लेकर आयोग तक, एक ही नेटवर्क की छाया
राकेश कुमार 2016 से 2020 तक लोकायुक्त कार्यालय में सचिव रहे।
वहीं से उनकी ब्यूरोक्रेटिक लॉबी से निकटता बनी।
सूत्रों के अनुसार, कई प्रमुख जिलों में “RTI फाइलों की हेराफेरी” के मामलों में आयोग और प्रशासन के बीच अदृश्य समन्वय की भूमिका देखी जाती रही है।
स्थाई लोक अदालत में उनके निर्णयों ने भी यही दिखाया, “जन हित” हमेशा “सिस्टम हित” के नीचे दबा रहा। आज सूचना आयोग में वही पैटर्न दिख रहा है।
अपीलकर्ता की आवाज़ बनाम आयोग की दीवार
रविशंकर जैसे अपीलकर्ताओं का अनुभव बताता है कि आयोग की सुनवाई अब न्यायिक मंच नहीं, बल्कि “सिस्टम द्वारा संचालित मीटिंग” बन चुकी है।
अवैध रूप से जवाब देने वाले अधिकारी को “सम्मानित प्रतिनिधि” बना दिया जाता है, और असली PIO की जवाबदेही गायब हो जाती है।
यह सीधा हमला है RTI की आत्मा, जवाबदेही, पारदर्शिता, और नागरिक अधिकार पर।
कानून के खिलाफ आदेश, आयोग का नया चेहरा
RTI अधिनियम की धारा 19(8)(a)(ii) के अनुसार, आयोग को यह शक्ति है कि वह “प्राधिकृत अधिकारी को निर्देश दे कि सूचना कैसे दी जाए।”
लेकिन राकेश कुमार के कार्यकाल में, आयोग ने इस शक्ति का इस्तेमाल “सूचना रोके रखने वालों” के पक्ष में किया।
आयोग की वेबसाइट पर कई ऐसे आदेश मौजूद हैं, जिनमें “सूचना नहीं मिलनी चाहिए” जैसे शब्दों से ही शासन की झलक मिलती है।
सिस्टम लॉबी बनाम जन लॉबी
उत्तर प्रदेश का सूचना आयोग अब ब्यूरोक्रेसी-लोकायुक्त-जुडिशियरी की त्रिमूर्ति से नियंत्रित हो रहा है।
राकेश कुमार जैसे अधिकारी इन तीनों के बीच सुव्यवस्थित सेतु हैं -
जो जनता और जवाबदेही के बीच लोहे का पर्दा बन चुके हैं।
जहाँ जनता जवाब माँगती है, वहाँ फाइलों की दीवारें खड़ी कर दी जाती हैं।
“RTI की आत्मा मर चुकी है, बस शव यात्रा बाकी है”
उत्तर प्रदेश में RTI अब “सूचना का अधिकार” नहीं, बल्कि “सत्ता का कवच” बन चुकी है।
राकेश कुमार की नियुक्ति यात्रा इसका सटीक उदाहरण है -
जहाँ सेवा, न्याय, और पारदर्शिता की जगह
“संरक्षण, संबंध, और सत्ता-निष्ठा” ने कब्ज़ा कर लिया है।
RTI की आत्मा को मारने वाले इस सिस्टम के पीछे वही लोग हैं जो कभी लोकायुक्त, कभी न्यायाधीश, और अब आयुक्त बनकर जनता की आँखों पर परदा डालते हैं।
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