RTI एक्ट का गला घोंटने वाला आयुक्त | Jago TV Investigates
उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार के आदेशों ने RTI की आत्मा को चोट पहुँचाई है। यह रिपोर्ट दिखाती है कि कैसे पारदर्शिता के प्रहरी बनकर बैठे आयुक्त ने खुद RTI कानून का गला घोंट दिया।
उत्तर प्रदेश के राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार की कार्यशैली RTI की आत्मा पर हमला है, जहाँ जवाबदेही की जगह ‘सिस्टम थक गया’ का बहाना और पारदर्शिता की जगह ‘सत्ता की सहूलियत’ ने ले ली है।
उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में इन दिनों पारदर्शिता नहीं, बल्कि पर्देदारी का शासन है।
राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार ने अपने आदेशों से यह साबित कर दिया है कि RTI अब जनता का अधिकार नहीं रहा, बल्कि अधिकारियों का बचाव कवच बन गया है।
जिस कुर्सी पर बैठकर उन्हें जवाबदेही सुनिश्चित करनी थी, वहाँ से अब यह आवाज़ आती है-
“सवाल मत पूछो, सिस्टम थक गया है।”
यानी अब RTI कानून में न ‘सूचना’ बची है, न ‘अधिकार’।
राकेश कुमार का कार्यकाल इस बात का प्रमाण है कि कैसे एक व्यक्ति ने कानून की आत्मा का गला घोंटकर उसे प्रशासनिक मर्यादा के नाम पर दफन कर दिया।
मामला: जब “सिस्टम थक गया” RTI का बहाना बन गया
प्रयागराज के अपीलकर्ता रवि शंकर ने अपील संख्या S10/A/0008/2024 के तहत 2023 से लंबित सूचना माँगी थी।
अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) द्वारा सूचना न देने और सूचना आयोग के पुराने आदेशों की अवहेलना का।
कानून कहता है कि सूचना 30 दिनों में देनी ही होगी (धारा 7(1))।
लेकिन अधिकारी ने महीनों तक कोई जवाब नहीं दिया।
जब मामला आयोग पहुँचा, तो आयोग ने कार्रवाई करने के बजाय अपील निस्तारित करते हुए लिखा,
“अपीलकर्ता द्वारा अत्यधिक आवेदन दिए जाने से सिस्टम पर भार पड़ा है।”
यानी जो नागरिक सरकार से सवाल पूछे, वही अब ‘सिस्टम पर बोझ’ कहलाने लगा!
राकेश कुमार के इस एक वाक्य ने RTI के पूरे सिद्धांत ‘सूचना ही शक्ति है’ का गला घोंट दिया।
अवैध प्रतिनिधि, फर्जी जवाब, और आयोग की चुप्पी
रवि शंकर का कहना है कि इस प्रकरण में जन सूचना अधिकारी (PIO) अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) थे।
लेकिन आयोग के रिकॉर्ड में दिनांक 26 जून 2024 को अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) को ‘PIO’ बनाकर पेश किया गया, और उस फर्जी प्रतिनिधित्व को आयोग ने वैध मान लिया।
“यह न केवल असंवैधानिक था बल्कि सूचना आयोग की विश्वसनीयता पर सीधा प्रश्नचिह्न है।”
आयोग के सामने यह तथ्य स्पष्ट था कि जिस अधिकारी को जवाब देना था, उसने नहीं दिया।
फिर भी कोई कार्रवाई नहीं -
ना धारा 20(1) का दंड,
ना धारा 20(2) की अनुशासनात्मक कार्यवाही।
बस चुप्पी।
और उस चुप्पी में पारदर्शिता की मौत।
राकेश कुमार की ‘सिस्टम लॉबी’ यात्रा
राकेश कुमार का करियर ग्राफ ही बताता है कि वह हमेशा सत्ता-संरक्षित पदों पर रहे हैं।
1987 में सहायक अभियोजन अधिकारी
1988 में मुंशिफ न्यायिक सेवा
2016-2020 तक सचिव / मुख्य सूचना अधिकारी, लोकायुक्त प्रशासन
2022-2024 तक अध्यक्ष, स्थाई लोक अदालत, 11 मार्च 2024 को यहाँ से सेवानिवृत्त और
13 मार्च 2024 को बने राज्य सूचना आयुक्त
हर पद सत्ता के भीतर, हर भूमिका सिस्टम की दीवार के अंदर।
कभी जनता की ओर नहीं, हमेशा ‘सरकारी रुख’ की ओर।
यही वजह है कि अब वह ‘RTI के प्रहरी’ नहीं, बल्कि ‘RTI के प्रहरी-विरोधी’ बन चुके हैं।
जब एक अयोग्य आयुक्त ने RTI को ‘कठघरे’ में खड़ा कर दिया
RTI कानून कहता है, “सूचना देना प्रशासन का दायित्व है।”
लेकिन राकेश कुमार की भाषा कहती है-
“बहुत आवेदन आ रहे हैं।”
“सिस्टम थक गया है।”
“आवेदक दुरुपयोग कर रहे हैं।”
यह वही तर्क है जो हर भ्रष्ट व्यवस्था देती है जब उसकी पोल खुलने लगती है।
राकेश कुमार अब कानून के नहीं, कुर्सी के आदमी बन चुके हैं।
उनके आदेश न तो कानून की आत्मा को दर्शाते हैं, न ही न्याय की भावना को।
बल्कि हर बार यह दिखाते हैं कि पारदर्शिता का गला कानूनी शब्दों की फाँसी से कैसे घोंटा जाता है।
RTI कार्यकर्ताओं की नाराज़गी
RTI कार्यकर्ता खुले शब्दों में कहते हैं,
“राकेश कुमार का आयोग अब सूचना आयोग नहीं, दमन आयोग बन गया है।”
“वह अपीलकर्ता को डराते हैं, अपमानित करते हैं, और फिर आदेश में सिस्टम की थकान लिख देते हैं।”
ऑनलाइन सुनवाई के दौरान उनका रवैया अपीलकर्ताओं के प्रति अहंकार और अवमानना से भरा रहता है।
जिस नागरिक ने सवाल किया, उसे ‘RTI माफिया’ कहकर हतोत्साहित किया जाता है।
उनका आदेश एक संदेश देता है, “जो सवाल पूछेगा, उसका अपमान होगा।”
यह लोकतंत्र नहीं, प्रशासनिक तानाशाही का लघु संस्करण है।
पारदर्शिता पर प्रहार, RTI की आत्मा का गला घोंटना
RTI कानून की आत्मा धारा 20 में बसती है, यानी जवाबदेही और दंड।
लेकिन राकेश कुमार की कार्यशैली में यह धारा मृतप्राय है।
वह अधिकारी को दंडित करने के बजाय अपीलकर्ता को दोषी ठहराते हैं।
उनके आदेशों ने जनता को यह सिखा दिया है कि “RTI से जानकारी नहीं मिलती, सिर्फ हताशा मिलती है।”
यानी कानून ज़िंदा है, लेकिन उसकी आत्मा मर चुकी है।
सत्ता की परछाई में आयुक्त
राकेश कुमार की नियुक्ति कोई संयोग नहीं थी -
वह उसी सत्ता-व्यवस्था के लिए उपयुक्त व्यक्ति थे जो जवाबदेही से बचना चाहती है।
लोकायुक्त में उन्होंने शिकायतों को ठंडे बस्ते में डाला,
और अब सूचना आयोग में सूचनाओं को।
उनकी कुर्सी अब ‘सत्ता की छाया’ है, न कि ‘जनता की उम्मीद’।
जब प्रहरी ही भक्षक बन जाए
RTI अधिनियम 2005 जनता को सशक्त करने के लिए बना था।
लेकिन जब इसके पहरेदार ही इसे “सिस्टम का बोझ” मानने लगें,
तो समझिए कानून नहीं, लोकतंत्र मरा है।
राकेश कुमार का कार्यकाल इस सच्चाई का आईना है —
“पारदर्शिता अब अदालतों और आयोगों की दीवारों में कैद है।”
“सवाल पूछने वाले अपराधी हैं, और जवाब टालने वाले सम्मानित।”
यह रिपोर्ट सिर्फ राकेश कुमार की आलोचना नहीं, यह चेतावनी है उस सिस्टम के लिए जो अपने ही कानूनों का गला घोंट रहा है।
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