सत्ता और सिस्टम का आदमी | Jago TV Investigates
उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार के विवादित आदेशों ने RTI की आत्मा को ठेस पहुँचाई है। यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे एक जज से लोकायुक्त और अब सूचना आयुक्त बने व्यक्ति ने पारदर्शिता को मज़ाक बना दिया।
एक जज से लोकायुक्त तक और फिर सूचना आयुक्त राकेश कुमार की सत्ता यात्रा यह बताने के लिए काफी है कि कैसे एक व्यक्ति ‘सिस्टम का रक्षक’ बनकर जवाबदेही के हर दरवाजे पर ताला लगा देता है।
यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश के राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार के विवादित आदेशों, सत्ता से जुड़ी नज़दीकियों, और सूचना अधिकार अधिनियम (RTI Act, 2005) के प्रति उनके रवैये पर केंद्रित है। प्रयागराज के अपीलकर्ता रविशंकर के प्रकरण से यह स्पष्ट होता है कि राकेश कुमार ‘पारदर्शिता के प्रहरी’ नहीं, बल्कि ‘सिस्टम के संरक्षक’ बन बैठे हैं। तीन दशक से अधिक की उनकी प्रशासनिक यात्रा अभियोजन, न्यायपालिका, लोकायुक्त, और अब सूचना आयोग एक ही धुरी पर घूमती रही है: ‘सिस्टम बचाओ, सवाल दबाओ।’
राकेश कुमार द्वारा जब पारदर्शिता को मज़ाक बना दिया गया
राकेश कुमार का नाम उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में आज डर और निराशा का पर्याय बन चुका है।
जो कानून जनता को जवाबदेही देता था, उसी कानून के प्रहरी ने उसे कागज़ी मज़ाक बना दिया है।
17 अक्टूबर 2025 को पारित आदेश में उन्होंने यह कहते हुए अपील निस्तारित कर दी कि “अपीलकर्ता द्वारा अत्यधिक संख्या में आवेदन प्रस्तुत किए जाने से सिस्टम पर भार पड़ा है।” यानी अब सवाल पूछना भी अपराध है।
RTI माँगना ‘सिस्टम पर बोझ’ है।
और जवाब न देना ‘न्यायिक विवेक’।
राकेश कुमार की यह कार्यप्रणाली बताती है कि वह अब ‘सत्ता की भाषा बोलने’ लगे हैं, वही भाषा जो कहती है, ‘सवाल मत पूछो, सिस्टम थक गया है।’
मामला क्या था? ‘RTI नहीं, सिस्टम की थकान का ड्रामा’
प्रयागराज के अपीलकर्ता रवि शंकर ने अपील संख्या S10/A/0008/20241 के तहत यह प्रश्न उठाया था कि कलेक्टरेट प्रयागराज के अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) ने सूचना कानून की धारा 7(1) और 7(9) का उल्लंघन करते हुए न तो समय पर सूचना दी और न ही बिंदुवार उत्तर दिया। उन्होंने माँग की थी कि संबंधित जनसूचना अधिकारी (PIO) अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) के विरुद्ध RTI अधिनियम की धारा 20(1) और 20(2) के तहत दंडात्मक कार्रवाई की जाए। लेकिन आयोग ने जवाबदेही की दिशा में कदम बढ़ाने के बजाय पूरा मामला ‘सिस्टम थक गया’ कहकर खत्म कर दिया।
कोई दंड नहीं, कोई चेतावनी नहीं, कोई पारदर्शिता नहीं।
बस एक लाइन, ‘बहुत आवेदन आ रहे हैं।’
कूटरचित जवाब और अवैध प्रतिनिधि: ‘अधिकारियों की सुरक्षा कवच’
रवि शंकर बताते हैं- तीन वर्षों से धारा-18 अंतर्गत लंबित शिकायत में जन सूचना अधिकारी अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) ही उत्तरदायी थे।
लेकिन अचानक, दिनांक 26 जून 2024 को एक कूटरचित पत्र के साथ अपर नगर मजिस्ट्रेट (प्रथम) को ‘जन सूचना अधिकारी’ बनाकर पेश किया गया।
यह एक स्पष्ट अवैध प्रक्रिया थी, क्योंकि यह न केवल असंवैधानिक था, बल्कि आयोग के अपने पूर्व आदेशों का भी खुला उल्लंघन था।
इसके बावजूद राकेश कुमार ने इस फर्जी प्रतिनिधित्व को वैध मान लिया और अपीलकर्ता को अपमानित करते हुए निस्तारित कर दिया।
यह वही बिंदु है जहाँ राकेश कुमार न्याय के रक्षक से सिस्टम के सेवक बन गए।
अपीलकर्ता का आरोप- “आयुक्त बनकर भ्रष्टाचार का कवच ओढ़ लिया”
अपीलकर्ता का कहना है कि राकेश कुमार जवाबदेही की कुर्सी पर बैठकर भ्रष्टाचार का कवच बन गए हैं।
हर बार जब कोई जनसूचना अधिकारी नियम तोड़ता है, राकेश कुमार उसे बचाने के लिए तकनीकी भाषा और फर्जी कानूनी जाल बुन देते हैं। राकेश कुमार की पूरी कोशिश यही रहती है कि कोई भी अधिकारी RTI से डरे नहीं, बल्कि अपीलकर्ता ही हार मान लेना पड़े।
राकेश कुमार की पृष्ठभूमि ‘सत्ता की गोद में जन्मा एक आयोगीय चेहरा’
राकेश कुमार का जन्म 25 जनवरी 1962 को संतकबीरनगर में हुआ।
कानून की पढ़ाई के बाद वह 1987 में सहायक अभियोजन अधिकारी बने, फिर 1988 में मुंशिफ न्यायिक सेवा में।
लगभग तीन दशक तक वे न्यायपालिका के भीतर रहे, फिर लोकायुक्त प्रशासन में सचिव/मुख्य सूचना अधिकारी बने, यानी वही जगह जहाँ शिकायतें दफन होती हैं।
11 मार्च 2024 को सेवानिवृत्ति के पश्चात 13 मार्च 2024 को मा० राज्य सूचना आयोग, उत्तर प्रदेश के पद पर पदभार ग्रहण किया।
एक ही सिस्टम के भीतर,
तीन दशकों तक,
तीन संवैधानिक मुखौटे बदलते हुए -
लेकिन नीति एक ही: ‘अधिकारी को बचाओ, जनता को उलझाओ।’
सत्ता से तादात्म्य ‘हर कुर्सी सत्ता की छाया में’
लोकायुक्त से लेकर सूचना आयोग तक, राकेश कुमार की हर नियुक्ति राजनीतिक नेटवर्किंग और प्रशासनिक वफादारी की देन मानी जाती है।
सिस्टम में उनका नाम ‘सत्तापरस्त न्यायिक चेहरा’ के रूप में चर्चित है।
राकेश कुमार की भाषा भी सिस्टम की भाषा हो चुकी है —
“RTI का दुरुपयोग हो रहा है,”
“सिस्टम थक चुका है,”
“बहुत आवेदन आ रहे हैं।”
“500 शब्दों से ज्यादा का उत्तर नहीं दिया जाएगा, निस्तारित।”
यानी वही पंक्तियाँ जो हर भ्रष्ट अधिकारी की जुबान पर होती हैं जब उनसे जवाब माँगा जाए।
RTI का अपमान ‘सूचना आयोग नहीं, दमन आयोग’
राकेश कुमार का आयोग आज उस मोड़ पर है जहाँ नागरिक नहीं, अधिकारी सुरक्षित हैं।
RTI कार्यकर्ता बताते हैं, “जहाँ राकेश कुमार की बेंच होती है, वहाँ न्याय नहीं, अपीलकर्ता का मानसिक शोषण होता है।”
ऑनलाइन सुनवाई में वह अपीलकर्ताओं को धमकाते, डाँटते और अपमानित करते हैं, और अंत में आदेश में लिख देते हैं, ‘सूचना उपलब्ध कराई जा चुकी है’ या ‘सिस्टम ओवरलोड है।’ यह सबूत है कि अब आयोग जनता का नहीं, सिस्टम का हथियार बन गया है।
कानूनी दृष्टि से ‘धारा 20 का गला घोंटा गया’
RTI अधिनियम की धारा 20(1) और 20(2) के तहत जनसूचना अधिकारी पर ₹25,000 तक का दंड लगाया जा सकता है।
लेकिन राकेश कुमार की कार्यशैली में यह धारा सिर्फ किताबों में बची है।
उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में दर्जनों मामलों में उल्लंघन के बावजूद शायद ही किसी अधिकारी पर दंड लगाया हो। इससे स्पष्ट है, “उनकी निष्ठा कानून से नहीं, नौकरशाही से है।”
सार्वजनिक प्रतिक्रिया, ‘पारदर्शिता के खिलाफ एक आयोग’
RTI कार्यकर्ताओं, नागरिक समूहों और पारदर्शिता मंचों ने राकेश कुमार के आदेशों को RTI की आत्मा के खिलाफ बताया है।
कई सामाजिक संगठनों ने यह माँग उठाई है कि उनके आदेशों की न्यायिक समीक्षा की जाए।
कुछ ने तो यहाँ तक कहा, “राकेश कुमार का आयोग अब पारदर्शिता का कब्रिस्तान बन चुका है।”
‘सत्ता का आदमी, जनता का नहीं’
राकेश कुमार की नियुक्ति-यात्रा यह साफ बताती है कि उन्होंने सिस्टम से लड़ने की बजाय सिस्टम के लिए लड़ने का रास्ता चुना। उनके आदेशों में न्याय नहीं, उनकी भाषा में पारदर्शिता नहीं, उनकी कुर्सी पर जनता का हक नहीं। वह उस सत्ता-व्यवस्था का चेहरा हैं जो जवाबदेही से डरती है और सवालों से नफरत करती है। आज जब RTI एक्ट जनता की आख़िरी उम्मीद थी, राकेश कुमार जैसे आयुक्तों ने उसे अपमानित कर दिया है। उनके आदेश लोकतंत्र की उस विडंबना का प्रतीक हैं जहाँ ‘सूचना का अधिकार’ अब ‘सूचना का उपहास’ बन चुका है।
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