कानूनी भ्रांतियाँ और मनमानी | RTI आदेशों में विधिक असंगतियाँ | Jago TV Investigative Analysis
राज्य सूचना आयुक्त राकेश कुमार के आदेशों में कानून की गलत व्याख्या और मनमानी पर Jago TV की खोजी रिपोर्ट, RTI की आत्मा को कैसे किया गया कमजोर।
राकेश कुमार के आदेशों में छिपी विधिक त्रुटियाँ, सत्ता-प्रेरित व्याख्याएँ और अधिकारों की धज्जियाँ, एक दस्तावेजी विश्लेषण।
कानून, जब न्याय की जगह ‘नियंत्रण’ का साधन बन जाए, तो उसे कानूनी भ्रांति कहा जाता है। और जब यह भ्रांति किसी वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी के आदेशों में दिखाई दे, तो यह सिर्फ त्रुटि नहीं, संविधान के प्रति अपराध होता है। राकेश कुमार के हालिया आदेशों में यही देखने को मिलता है, जहाँ RTI की धारा 18 और 19 को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया, जहाँ अपीलकर्ता को ‘दोषी’ और विभाग को ‘पीड़ित’ घोषित कर दिया गया, और जहाँ ‘सूचना की अस्वीकृति’ को ‘सुव्यवस्थित प्रशासन’ कहा गया।
कानून की गलत व्याख्या, RTI की आत्मा की हत्या
मामला: प्रयागराज अपील संख्या S10/A/0008/2024 (दिनांक 25/09/2025)
विवाद: अपीलकर्ता ने सूचना न मिलने की शिकायत की। राकेश कुमार का आदेश: “सूचना याचक द्वारा बार-बार आवेदन देने से विभाग पर अनुचित दबाव पड़ता है।”
विधिक टिप्पणी:
RTI अधिनियम, 2005 की धारा 6(1) और धारा 19(1) नागरिक को बार-बार आवेदन देने से नहीं रोकती। यह नागरिक का निरंतर सूचना अधिकार है। पर राकेश कुमार ने इसे ‘दुरुपयोग’ बता दिया, यानी उन्होंने अधिकार की निरंतरता को दुरुपयोग का आधार बना दिया। यह वैसा ही है जैसे कोई न्यायाधीश कहे,
“बार-बार न्याय मांगना अदालत पर बोझ है।” यह वाक्य अपने आप में लोकतंत्र की रीढ़ तोड़ देता है।
प्रक्रियात्मक मनमानी, जब फाइल का वजन न्याय से ज़्यादा हो गया
विवरण: सुनवाई में उपस्थित न होने वाले अधिकारी को ‘वाजिब कारण’ के बिना बरी कर दिया गया।
आयुक्त ने कहा, “सूचना न देने का कोई दुर्भाव नहीं दिखता।”
विधिक विसंगति:
RTI अधिनियम की धारा 20(1) स्पष्ट कहती है कि यदि सूचना निर्धारित समय सीमा में नहीं दी जाती,
तो अपराध स्वतः सिद्ध माना जाएगा, अधिकारी को कारण बताओ नोटिस देना अनिवार्य है। पर राकेश कुमार ने ‘दुर्भाव’ न दिखने की व्यक्तिगत राय से पूरा मामला रफा-दफा कर दिया। यह न्यायिक विवेक नहीं, प्रशासनिक सहानुभूति है। यहाँ आयुक्त कानून की अदालत में नहीं, विभागीय कैंटीन में बैठा हुआ प्रतीत होता है।
अधिकारों की मनमानी, जब नागरिक अपराधी और अफसर पीड़ित बन गया
परिप्रेक्ष्य: अपीलकर्ता को ‘सिस्टम पर बोझ’ बताकर फटकार लगाई गई। यह वाक्य RTI की आत्मा के खिलाफ है, क्योंकि RTI की उत्पत्ति ही ‘सिस्टम पर सवाल’ से हुई थी। यदि सवाल पूछना बोझ है, तो जवाबदेही अब ‘सुविधा’ बन चुकी है। कानूनी दृष्टि से यह Natural Justice (प्राकृतिक न्याय) के सिद्धांत का उल्लंघन है, क्योंकि आयुक्त ने अपीलकर्ता को ‘इरादतन दुरुपयोग’ का दोषी बताया, बिना यह साबित किए कि उसका आवेदन कानून-विरुद्ध था।
विधिक असंगतियाँ, कानून की किताब, पर राजनीतिक कलम
राकेश कुमार के आदेशों में एक स्थायी पैटर्न दिखाई देता है:
बार-बार RTI देना दुरुपयोग, RTI कानून में नागरिक अधिकार की सीमा बताई गई, जो कानून में है ही नहीं। या नागरिक का मौलिक अधिकार सीमित। दुर्भाव न दिखने से अधिकारी बरी। जवाबदेही को भावना पर आधारित किया। सूचना आयोग जनसूचना अधिकारी को सूचना न देने का सलाह दे सकता है। खुद के दिए आदेशों को ही गैर-आवश्यक बताना। इन सबमें एक बात कॉमन है- कानून की किताब वही है, पर कलम सत्ता की है।
‘कानूनी भाषा’ बनाम ‘कानूनी भावना’
राकेश कुमार के निर्णयों में भाषा कानूनी है, पर भावना प्रशासनिक। वे ‘shall’ को ‘may’ की तरह पढ़ते हैं, और ‘mandatory’ को ‘optional’ बना देते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि वे कानून को नहीं, सिस्टम को प्राथमिकता देते हैं। उनके आदेशों में ‘citizen-centric’ दृष्टिकोण गायब है, जो RTI अधिनियम की आत्मा का मूल तत्व है।
सूचना आयोग का वैधानिक विघटन
जब कोई आयुक्त धारा 20 की दंड प्रक्रिया का उपयोग नहीं करता, तो आयोग सिर्फ सलाहकार संस्था बनकर रह जाता है। उत्तर प्रदेश में अब यही हो रहा है, जहाँ आयोग का काम ‘सूचना देना’ नहीं, ‘सूचना रोकना’ हो गया है। राकेश कुमार के कई आदेशों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आयोग अब विभागों के पक्ष में फैसले सुनाने वाला मंच बन चुका है। यह पारदर्शिता का संस्थागत ह्रास है, जहाँ न्याय का तराजू झुकता नहीं, सीधा सरकारी डेस्क पर टिक जाता है।
‘विवेक का अतिरेक’, जब आदेश निजी व्याख्या बन गए
न्यायिक विवेक तब तक न्यायसंगत होता है जब तक वह विधिक सीमाओं में रहे। पर राकेश कुमार के आदेशों में यह विवेक अतिरेक में बदल गया है। वे ‘मामले की प्रकृति’ का हवाला देकर कानून की अनिवार्यता को दरकिनार कर देते हैं। यह वही स्थिति है जहाँ कानून व्यक्तिगत व्याख्या का बंधक बन जाता है, और आयोग संविधान का नहीं, आयोगरूपी साम्राज्य का संचालन करने लगता है।
राकेश कुमार के आदेश यह दिखाते हैं कि ‘कानूनी भ्रांतियाँ’ कैसे ‘संवैधानिक मनमानी’ बन सकती हैं। जब न्यायिक अनुभव सत्ता की छाया में काम करता है, तो कानून की व्याख्या नहीं, विकृति होती है। आज उत्तर प्रदेश का सूचना आयोग पारदर्शिता का नहीं, प्रोटोकॉल का अड्डा बन चुका है, जहाँ फाइलें कानून से बड़ी हैं, और अफसर नागरिक से ऊँचा। राकेश कुमार ने कानून की आत्मा को नहीं समझा, बल्कि उसे अपने आदेशों की दास बना दिया। यही है, कानूनी भ्रांति और मनमानी का क्लासिक उदाहरण।
What's Your Reaction?
