‘मेडुसा’: मिथक, नारी और आधुनिकता के संगम पर प्रो. नंदिनी साहू का अद्भुत काव्य-संसार
प्रोफेसर नंदिनी साहू का नवीन काव्य-संग्रह ‘Medusa’ प्राच्य-पाश्चात्य मिथकों, नारीवादी चेतना और समकालीन वैश्विक विमर्शों का गहन संगम है। यह संग्रह स्त्री-अस्तित्व की बहुआयामी परतों को उघाड़ते हुए न केवल मिथकीय चरित्र ‘मेडुसा’ का पुनर्लेखन करता है, बल्कि आधुनिक पूँजीवादी और औपनिवेशिक समाज में स्त्री की संवेदना, प्रतिरोध और पुनर्जन्म की कहानी भी कहता है।

हावड़ा, पश्चिम बंगाल। लोकगीतों और मिथकीय पुनराख्यानों की सशक्त हस्ताक्षर प्रोफेसर नंदिनी साहू, जो वर्तमान में हिंदी विश्वविद्यालय, हावड़ा की कुलपति हैं, अपने नवीन अंग्रेज़ी काव्य-संग्रह ‘Medusa’ के माध्यम से नारीत्व और मिथक के संबंध को नए आयाम में परिभाषित करती हैं।
यह काव्य-संग्रह ग्रीक मिथक की चरित्र मेडुसा को केंद्र में रखकर रचा गया है, किंतु प्रो. साहू उसकी व्याख्या को पश्चिमी दायरे से निकालकर भारतीय सांस्कृतिक दृष्टिकोण में पुनः स्थापित करती हैं। यहाँ मेडुसा केवल शापित स्त्री नहीं, बल्कि पुनर्जन्म की प्रतीक, आत्मबोध और चेतना की वाहक बनकर उभरती है।
कवयित्री की रचनाएँ इस बात को रेखांकित करती हैं कि मिथक केवल बीते युग की कथा नहीं, बल्कि आज की स्त्री के भीतर छिपे उस प्रतिरोध का रूपक है जो पितृसत्ता, पूंजीवाद और औपनिवेशिक संरचनाओं के विरुद्ध जूझता है।
संग्रह में नारी, प्रकृति और पर्यावरण के त्रिकोणीय संबंध की संवेदनशील पड़ताल की गई है। ‘Medusa’ आधुनिक समाज में ‘डिजिटल देवी’ का रूप लेकर सामने आती है, जो अपने भीतर भय, सौंदर्य और प्रतिशोध को एक साथ समेटे हुए है।
डॉ. रेखा कुमारी त्रिपाठी (अतिथि प्राध्यापिका, हिंदी एवं अनुवाद विभाग, हिंदी विश्वविद्यालय, हावड़ा) के अनुसार, “प्रो. साहू का ‘Medusa’ न केवल मिथक का पुनर्लेखन है, बल्कि यह उत्तर-नारीवाद और नवउदारवाद की द्वंद्वात्मकता को उजागर करने वाला एक काव्य-प्रयोग है, जो पाठकों को आधुनिक स्त्री-स्वायत्तता की जटिलताओं से रूबरू कराता है।”
यह काव्य-संग्रह उन पाठकों के लिए अनिवार्य है जो मिथक, नारी और साहित्य के संगम पर आधुनिक संवेदनाओं की तलाश में हैं।
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