नाम का स्मरण: टेनिसन से ओशो तक ध्यान की अनूठी राह
अंग्रेज़ कवि अल्फ्रेड लॉर्ड टेनिसन बचपन में भय से बचने के लिए अपने ही नाम का स्मरण करते थे। ओशो इस उदाहरण को ध्यान और स्मरण की शक्ति से जोड़ते हैं। यह अनुभव बताता है कि ध्यान केवल धार्मिक आस्था पर आधारित नहीं है, बल्कि स्मरण किसी भी नाम का हो, आत्मिक शांति और साक्षीभाव तक ले जा सकता है।

अकसर यह माना जाता है कि ध्यान या साधना केवल धार्मिक मंत्रों, देवताओं के नाम या किसी गुरु द्वारा दिए गए विशेष वचनों से ही संभव है। लेकिन अंग्रेज़ कवि अल्फ्रेड लॉर्ड टेनिसन का अनुभव इस मान्यता से एक अलग दिशा खोलता है।
टेनिसन बताते हैं कि बचपन में जब उन्हें अंधेरे कमरे में अकेला सुला दिया जाता, तो भय और बेचैनी उन्हें घेर लेती। कोई धार्मिक प्रार्थना उन्हें नहीं सिखाई गई थी, इसलिए उन्होंने सहज ही अपना ही नाम दोहराना शुरू किया, “टेनिसन, टेनिसन, टेनिसन।” इस छोटे-से उपाय ने उनके मन को इतना स्थिर किया कि धीरे-धीरे यह एक गहरी ध्यान पद्धति बन गई।
ओशो इस उदाहरण को स्मरण की शक्ति से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि स्मरण चाहे किसी भी नाम का हो मन को केंद्रित करता है, भीतर की बेचैनी को शांत करता है और धीरे-धीरे साक्षीभाव की ओर ले जाता है। स्मरण केवल शब्द नहीं, बल्कि आत्म-जागरण की सीढ़ी है।
इस दृष्टि से टेनिसन का अनुभव और ओशो की व्याख्या हमें यह संदेश देती है कि ध्यान के लिए किसी धार्मिक आस्था की अनिवार्यता नहीं है। नाम का स्मरण चाहे वह अपना ही क्यों न हो भीतरी यात्रा का द्वार खोल सकता है।
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