फर्जी मुठभेड़, नया संविधान और लोकतंत्र पर संकट

फर्जी मुठभेड़ों, अफसरशाही और ‘नए संविधान’ की बहस के बीच भारतीय लोकतंत्र किस मोड़ पर खड़ा है? यह संपादकीय एक पॉडकास्ट में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक सुलखान सिंह के कहे गए बातों की रोशनी में विश्लेषित है।

Dec 2, 2025 - 20:46
Dec 2, 2025 - 21:38
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फर्जी मुठभेड़, नया संविधान और लोकतंत्र पर संकट
फर्जी मुठभेड़, नया संविधान और लोकतंत्र पर संकट

फर्जी मुठभेड़ से ‘नया संविधान’ तक : जब लोकतंत्र को पुलिस, अफसरशाही और साँप्रदायिकता तीनों से खतरा हो

उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह का लंबा इंटरव्यू सिर्फ एक रिटायर्ड अफसर की यादें नहीं है, यह आजाद भारत के लोकतांत्रिक ढांचे पर जारी तीन बड़े हमलों की गवाही है –

1.     फर्जी मुठभेड़ और झूठे आंकड़ों से पुलिस का क्रिमिनलाइजेशन,

2.     अफसरशाही की तंगदिली और राजनीतिक दबाव का गठजोड़,

3.     संविधान पर विचारधारात्मक हमला और ‘नए संविधान’ की आहट।

फर्जी मुठभेड़: लोकतंत्र की हत्या का शॉर्टकट

सुलखान सिंह साफ कहते हैं –

  • फर्ज़ी मुठभेड़ कामचोरी, अक्षमता और भ्रष्टाचार का ‘तमाशा’ है।
  • यह पुलिस को ब्रूटल, क्रिमिनल और अविश्वसनीय बना देता है।
  • सैकड़ों पुलिसकर्मी फर्जी एनकाउंटर के मामलों में जेलों में हैं, कई उम्रक़ैद काट रहे हैं, और अदालतें पुलिस पर आसानी से भरोसा नहीं करतीं।

ब्रिटिश राज की पुलिस की तुलना चुभती है, पर सच बोलती है। अंग्रेज़ तानाशाह थे, लेकिन वे भी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान फर्जी मुठभेड़ों का सहारा नहीं लेते। आज लोकतांत्रिक भारत में ‘कानूनी’ राज्य के नाम पर, बिना मुकदमे, बिना सबूत, बिना अदालत ‘मुठभेड़ न्याय’ को उत्सव की तरह बेचा जा रहा है।

यह सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं, संविधान के Article 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की खुलेआम हत्या है। जब ‘कानून की रखवाली’ करने वाली संस्था खुद ‘एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल किलिंग’ का औजार बन जाए, तो लोकतंत्र की बुनियाद ही हिल जाती है।

आंकड़ों का खेल और FIR न लिखने की राजनीति

एफआईआर न लिखने की परंपरा, जैसा कि पूर्व डीजीपी बताते हैं, आजादी के बाद खास तौर पर 60 के दशक से सुनियोजित तरीके से बढ़ी। कारण बहुत साफ है -

  • राजनीति को सिर्फ ‘क्राइम ग्राफ’ दिखता है, अपराध की सच्चाई नहीं।
  • अफसरों ने नेताओं को समझा दिया कि ‘कम दर्ज अपराध = अच्छी लॉ एंड ऑर्डर’।
  • नतीजा यह कि रेप, लूट, चोरी, मारपीट सबका बड़ा हिस्सा ‘कागज पर ही पैदा नहीं होने दिया जाता’।

जब अपराध दर्ज ही नहीं होंगे, तो न पीड़ित को न्याय मिलेगा, न पुलिस की वास्तविक क्षमता और कमी का पता चलेगा, न स्टाफ बढ़ेगा। ये झूठे आंकड़े सत्ता की इमेज मेकिंग और अधिकारियों के ‘टेन्योर सुरक्षित रखने’ का टूल बन जाते हैं। यहीं से पुलिस और जनता के बीच अविश्वास की खाई गहरी होती है। जनता थाने जाने से डरती है, पुलिस जनता से मिलना टालती है और एक दुष्चक्र बनता है, जिसमें अपराध पनपता है, लोकतंत्र कमजोर होता है।

अफसरशाही की तंगदिली और जनता की बेबसी

इंटरव्यू का सबसे कड़वा हिस्सा वह है जहां सुलखान सिंह साफ कहते हैं –

  • नेता उतने ‘विंडिक्टिव’ नहीं होते, जितना ब्यूरोक्रेसी।
  • आईएएस–आईपीएस की एक बड़ी जमात ‘तंगदिल और संगदिल’ है, छोटी बातों में निजी रंजिश पाल लेती है।
  • गलत ट्रांसफर, अनुचित सस्पेंशन, राजनीतिक दबाव में फैसले, यह सब पुलिस के भीतर फ्रस्ट्रेशन और एग्रेशन पैदा करता है, जिसका असर सीधे जनता के साथ बदतमीजी, मारपीट, फर्जी केस और फर्जी मुठभेड़ के रूप में दिखता है।

जब सिपाही को 30 दिन की छुट्टी का हक भी ‘अफसर की मर्जी’ बन जाए, जब ईमानदार चालान करने पर टीएसआई को तुरंत हटा दिया जाए, जब अच्छे काम करने वाले अफसर को साइड पोस्टिंग दे दी जाए, तो यह साफ संदेश है कि सिस्टम का उद्देश्य न्याय नहीं, सत्ता की सुविधा है।

ऐसी अफसरशाही, जो संविधान के बजाय फाइल और ‘किसको खुश रखना है’ से चलती हो, वह किसी भी लोकतंत्र के लिए दीमक से कम नहीं।

संविधान, अंबेडकर और ‘नए संविधान’ की धमकी

इसी बातचीत में संविधान निर्माता पर चल रही बहस का भी जिक्र आता है। सुलखान सिंह बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं –

  • संविधान किसी एक व्यक्ति ने नहीं बनाया; यह संविधान सभा की सामूहिक देन है।
  • लेकिन ‘एक-एक शब्द को सही कानूनी जामा पहनाने’ में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका सर्वाधिक और केंद्रीय है।
  • बी.एन. राव जैसे अधिकारी ‘कॉनस्टिट्यूशनल एडवाइज़र’ थे, असिस्टेंट की तरह ड्राफ्ट तैयार करते थे, राजनीतिक दिशा संविधान सभा और डॉ. अम्बेडकर जैसी नेतृत्वकारी हस्तियों से आती थी।

इस तथ्य को कमजोर करके ‘अम्बेडकर बनाम बी.एन. राव’ का झूठा विमर्श खड़ा करना दरअसल दलित चेतना, सामाजिक न्याय और संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करने की एक वैचारिक चाल है।

आगे जब वह यह कहते हैं कि अगर राज्य का धर्म घोषित रूप से हिंदू हो गया, तो मौजूदा संविधान ‘कूड़े में’ जाएगा और नया संविधान शायद मनुस्मृति पर आधारित होगा, तो वे किसी काल्पनिक भय की नहीं, साँप्रदायिक राजनीति की घोषित मंशाओं की ओर इशारा कर रहे हैं।

यह वही राजनीति है, जो

  • गांधी की हत्या की वैचारिक पृष्ठभूमि को महिमा मंडित करती है,
  • पाकिस्तान के ‘मुस्लिम राष्ट्र’ से घृणा करते-करते, उसी की तरह ‘हिंदू राष्ट्र’ की राह पर चल पड़ती है,
  • और भारतीय मुसलमानों को ‘दूसरे दर्जे के नागरिक’ बनाने के खतरनाक विचार से संचालित होती है।

अगर ‘सरकारी धर्म’ तय हो गया, तो पुलिस, न्यायपालिका, कानून–व्यवस्था सबका नैतिक आधार नागरिक–समता से हटकर धार्मिक पहचान पर शिफ्ट हो जाएगा। फर्जी मुठभेड़ तब सिर्फ गैंगस्टर या माफिया तक सीमित नहीं रहेगा; असहमति, विरोध, अल्पसंख्यक आवाज और संवैधानिक अधिकारों पर भी बंदूक तनी होगी।

बुंदेलखंड, एक्सप्रेसवे और विकास का छल

इसी संदर्भ में सुलखान सिंह के बुंदेलखंड की चर्चा इस बात को उजागर करती है कि

  • कैसे राज्य पुनर्गठन की गलत नीतियों और
  • ‘कमीशन–ड्रिवन’ बड़े प्रोजेक्ट्स ने पूरे क्षेत्र को पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से वंचित छोड़ दिया है।

दो राज्यों में बाँटे बुंदेलखंड में

  • 32 लाख लोग आज भी मजदूरी के लिए बाहर भटक रहे हैं,
  • मेडिकल कॉलेजों में डॉक्टर नहीं, पैरामेडिकल स्टाफ आउटसोर्स पर,
  • स्कूलों में शिक्षक नहीं, अस्पताल बंद, लेकिन 8000 करोड़ के एक्सप्रेसवे बन रहे हैं, जिन पर ट्रैफिक भी नहीं।

जब ‘विकास’ का मतलब सिर्फ कंक्रीट, टोल और कमीशन हो जाए, और न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी सब पीछे छूट जाएं, तो यह समझना मुश्किल नहीं कि विकास की भाषा, लोकतंत्र के दर्द को ढकने का बहाना बन गई है।

पुलिस, लोकतंत्र और नागरिक की आखिरी उम्मीद

इस पूरी बातचीत से एक ही बात बार-बार उभरती है –

  • पुलिस मूलतः ‘ट्रस्ट डिपार्टमेंट’ है।
  • अगर जनता को पुलिस से भरोसा नहीं, तो जो भी बंदूक, वर्दी और कानून पुलिस के हाथ में है, वह लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाता है।

आज हालत यह है कि

  • रात में सुनसान सड़क पर अगर अकेला नागरिक पुलिस वाला देखता है, तो खुद को सुरक्षित नहीं, असुरक्षित महसूस करता है।
  • यह किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा अलार्म है।

फिर भी उम्मीद की थोड़ी सी चिंगारी बची है –

  • वे ईमानदार अफसर,
  • वे संवादप्रिय थाना प्रभारी,
  • वे इंस्पेक्टर जिनके नाम पर आज भी लोग कहते हैं, “साहब, हमारी तफ्तीश उनसे करा दीजिए।”

इन्हीं के भरोसे लोकतंत्र के भीतर अभी भी कानून के राज और मानवाधिकार की कुछ साँसें बची हुई हैं। जरूरत इस चिंगारी पर राख डालने की नहीं, इसे हवा देने की है पुलिस सुधार, पारदर्शी जवाबदेही, एफआईआर की पूर्ण रजिस्ट्रेशन, फर्जी मुठभेड़ पर जीरो टॉलरेंस, और संविधान की मूल आत्मा न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता  को खुलेआम, बेझिझक, सड़कों से अदालतों तक, मीडिया से संसद तक बार-बार दोहराने की।

लोकतंत्र ‘डबल इंजन’ से नहीं, एक ईमानदार इंजन जनता और संविधान से चलता है। बाकी इंजन अगर दिशा बदलना चाहें, तो उन्हें पटरी पर लाना जनता की जिम्मेदारी भी है और सबसे बड़ा अधिकार भी।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I