भ्रष्टाचार के विरुद्ध मौन: अभिषेक प्रकाश प्रकरण पर एजेंसियों की चुप्पी चिंता का विषय
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अभिषेक प्रकाश पर लगे गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद जाँच एजेंसियां आश्चर्यजनक रूप से मौन हैं। मंत्री स्तर तक शिकायतों के बावजूद यदि जाँच शुरू नहीं होती, तो यह सिर्फ प्रशासनिक उदासीनता नहीं, बल्कि सुनियोजित संरक्षण का संकेत है। उच्च पदस्थ अधिकारियों पर आरोप लगने पर भी संस्थाएं कार्रवाई करने में असफल होती हैं, तो यह लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर देता है। यह मौन न केवल जनता के भरोसे को तोड़ता है, बल्कि ईमानदार अफसरशाही को हतोत्साहित करता है।

लोकतंत्र की बुनियाद ईमानदारी और जवाबदेही पर टिकी होती है। जब ये स्तंभ डगमगाने लगते हैं, तब शासन की नैतिकता और जनविश्वास दोनों पर आघात होता है। उत्तर प्रदेश में निलंबित IAS अधिकारी अभिषेक प्रकाश के विरुद्ध सामने आए भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप इस बात का प्रमाण हैं कि सत्ता और तंत्र के उच्च स्तरों पर भी भ्रष्ट आचरण किस प्रकार जड़ें जमा चुका है, और उससे भी अधिक चिंताजनक है कि इसके खिलाफ की जा रही कार्रवाई केवल 'दिखावटी' प्रतीत हो रही है।
इन्वेस्ट यूपी रिश्वत प्रकरण में, जहाँ अभिषेक प्रकाश के करीबी सहयोगी निकांत जैन को गिरफ्तार किया गया, SIT ने 1600 पन्नों की चार्जशीट और 50 से अधिक गवाहों के बयान दर्ज कर, इस केस को गंभीरता और साक्ष्य के स्तर पर स्पष्ट रूप से प्रमाणित कर दिया। वहीं, डिफेंस कॉरिडोर भूमि अधिग्रहण घोटाले में भी वे प्रमुख आरोपी हैं, जहाँ ₹20 करोड़ की अनियमितता दर्ज की गई है और स्वयं सरकार द्वारा गठित जाँच समिति ने उन्हें दोषी ठहराया है।
इतने प्रबल तथ्यों के बावजूद अभिषेक प्रकाश की अब तक गिरफ्तारी न होना, न केवल शासन की इच्छाशक्ति पर प्रश्न खड़े करता है, बल्कि जाँच एजेंसियों की स्वायत्तता पर भी गंभीर संदेह उत्पन्न करता है। क्या यह संभव है कि उच्च स्तर पर किसी ‘संरक्षण’ के कारण इस मामले को टाला जा रहा है? यदि हाँ, तो यह न केवल कानून के समक्ष सबकी समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है, बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए तथाकथित 'जीरो टॉलरेंस' अभियान की भी पोल खोलता है।
यह मामला इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक ऐसे अधिकारी से जुड़ा है जिसे पहले 'सक्षम और तेजतर्रार' माना जाता था और जिसे लखनऊ जैसे संवेदनशील जिले की कमान सौंपी गई थी। यदि ऐसे व्यक्ति के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के इतने स्पष्ट प्रमाण मिलें, और फिर भी वह कानून की गिरफ्त से बाहर रहे, तो यह संदेश जाता है कि नौकरशाही में ईमानदारी की कोई कीमत नहीं, और सियासी समीकरण ही सच्चाई को तय करते हैं।
इस समय आवश्यकता है न्यायपालिका की सक्रियता की, मीडिया की निर्भीकता की और जनचेतना की। क्योंकि, अगर इस तरह के प्रकरणों में भी हम खामोश रहते हैं, तो यह चुप्पी ही भविष्य के लिए सबसे बड़ा अपराध बन जाएगी।
उत्तर प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह इस प्रकरण को एक उदाहरण के रूप में स्थापित करे, न कि एक अपवाद के रूप में टाल दे। यदि अभिषेक प्रकाश दोषी हैं, तो उनके विरुद्ध शीघ्र और कठोर कार्रवाई होनी ही चाहिए। और यदि नहीं, तो उन्हें स्पष्ट रूप से क्लीनचिट दी जानी चाहिए - किंतु, यह रहस्यात्मक चुप्पी न लोकतंत्र को स्वीकार है, न जनता को।
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