कमल कौर की हत्या: सोशल मीडिया युग में नैतिक सतर्कता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा

कमल कौर की हत्या सिर्फ एक व्यक्ति की मौत नहीं, बल्कि डिजिटल युग में महिलाओं की अभिव्यक्ति पर बढ़ते खतरों की चेतावनी है। सोशल मीडिया पर नैतिकता थोपने की प्रवृत्ति, खासकर महिलाओं के खिलाफ हिंसात्मक रूप में सामने आ रही है। कमल कौर का कंटेंट कानूनन अपराध नहीं था, लेकिन ‘संस्कारी’ मानसिकता ने इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विरुद्ध मान लिया। यह मामला फेमीसाइड की एक नई डिजिटल शक्ल है, जो बताता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और महिलाओं की ऑनलाइन सुरक्षा पर समाज का रवैया कितना दमनकारी हो गया है। कानून के सख्त पालन, न्याय प्रणाली की सक्रियता और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की जवाबदेही ही इस चुनौती का समाधान हो सकते हैं।

Jul 16, 2025 - 06:06
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कमल कौर की हत्या: सोशल मीडिया युग में नैतिक सतर्कता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा
कमल कौर हत्या

डिजिटल स्पेस में बढ़ती असहिष्णुता

सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स ने बीते एक दशक में युवाओं, विशेषकर महिलाओं, को एक अभूतपूर्व मंच दिया है, जहाँ वे न केवल अपने विचार व्यक्त कर सकती हैं, बल्कि पहचान, स्वतंत्रता और रचनात्मकता को भी आकार देती हैं। इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स और ट्विटर थ्रेड्स आज किसी के भी विचार को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बना सकते हैं। लेकिन कमल कौर जैसी सोशल मीडिया इन्फ्लुएँ सर्स की क्रूर हत्या यह स्पष्ट करती है कि डिजिटल अभिव्यक्ति अब सुरक्षित नहीं रही। विचारों की असहमति, अब बहस या आलोचना तक सीमित नहीं, बल्कि हिंसा और जानलेवा नतीजों तक जा पहुँची है। यह मामला न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून के शासन पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि महिलाओं के लिए डिजिटल स्पेस कितना असुरक्षित हो सकता है - खासकर तब जब वे पारंपरिक सामाजिक मूल्यों को चुनौती देती हैं।

1. अश्लीलताबनाम अभिव्यक्ति: कमल कौर का मामला कानूनी नजरिए से

कमल कौर द्वारा सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई सामग्री को कई यूज़र्स ने अश्लीलकहा और इसी के आधार पर उन्हें ट्रोल किया गया, धमकाया गया, और अंततः निशाना बनाया गया। लेकिन, भारतीय कानून में, खासतौर पर आईटी अधिनियम 2000 की धारा 67, और भारतीय दंड संहिता की धारा 292-294, के तहत 'अश्लीलता' की व्याख्या काफी सीमित और स्पष्ट है। सुप्रीम कोर्ट ने Aveek Sarkar v. State of West Bengal (2014) में कहा था कि अश्लीलता का मूल्यांकन 'सामाजिक संदर्भ' और 'समाज में बदलाव' को ध्यान में रखकर होना चाहिए, न कि केवल नैतिक दृष्टिकोणके आधार पर।

कमल कौर का कंटेंट भले ही कुछ के लिए चुभने वालाहो, लेकिन वह भारतीय कानूनों के तहत किसी भी प्रकार का संगीन अपराध नहीं था। फिर भी एक नैतिक पुलिसिंगकी भीड़ ने अपने निर्णय थोपते हुए हिंसा को जायज़ ठहरा दिया।

2. फेमीसाइड का नया चेहरा: डिजिटल सतर्कता की आड़ में लैंगिक हिंसा

कमल की हत्या एक व्यक्तिगत मामला नहीं, बल्कि फेमीसाइड यानी महिलाओं की लैंगिक पहचान के कारण हत्या का डिजिटल युग में नया रूप है। भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की प्रवृत्ति में एक नया पैटर्न दिख रहा है, जहाँ ऑनर किलिंगअब डिजिटल ओपिनियन किलिंग में बदल रही है। जैसे ही कोई महिला अपने विचारों, कपड़ों, या भाषा से पारंपरिक ढाँचे को चुनौती देती है, एक संगठित ट्रोल आर्मी उस पर टूट पड़ती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2022 में महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराधों में 28% की वृद्धि दर्ज की गई, जिनमें से अधिकांश मामले 'ऑब्सीन कंटेंट', 'ट्रॉलिंग' और 'ब्लैकमेलिंग' से जुड़े थे।

3. डिजिटल इंडिया बनाम डिजिटल सेंसरशिप: एक विरोधाभास

भारत में जब एक ओर डिजिटल इंडियाके तहत अधिक से अधिक लोगों को ऑनलाइन लाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इंटरनेट पर विचार रखने वाली महिलाओं को प्रताड़ित, धमकाया और चुप कराया जा रहा है।

महिलाओं की सोशल मौजूदगी खतरे में क्यों है?

क्योंकि सामाजिक संरचनाएँ  अब भी महिलाओं को नियंत्रणके दायरे में रखना चाहती हैं-और सोशल मीडिया उस नियंत्रण को तोड़ देता है। जब महिलाएँ  स्वतंत्रता के साथ बोलती हैं, हँसती हैं, पहनती हैं और जज़्बात दिखाती हैं तो यह पुरुष वर्चस्ववादी मानसको असहज करता है।

संस्कारी इंटरनेट की निगरानी:

इंटरनेट पर एक नया मॉरल पुलिसवर्ग सक्रिय है, जो अपने विचारों को सार्वजनिक नैतिकताका दर्जा देकर दूसरों पर थोपना चाहता है।

इस संदर्भ में Rehana Fathima, Disha Ravi, या Ridhima Pandey जैसे कई उदाहरण हैं, जहाँ  महिलाओं को उनके ऑनलाइन विचारों के लिए न्यायिक या सामाजिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।

4. अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई और न्याय प्रणाली की भूमिका

कमल कौर की हत्या को केवल एक आपराधिक घटना मानना एक बड़ी भूल होगी। यह न्यायिक प्रणाली और प्रशासन के लिए एक चेतावनी है कि डिजिटल स्पेस में हिंसा अब आभासी नहीं रही, यह वास्तविक जानलेवा खतरा बन चुकी है। इसलिए ऐसे मामलों में त्वरित जांच, फास्ट-ट्रैक कोर्ट में सुनवाई और दोषियों को सख्त सज़ा देना जरूरी है, ताकि 'ऑनलाइन नफरत' का 'ऑफलाइन परिणाम' न हो सके। साथ ही, सोशल मीडिया कंपनियों को भी जवाबदेह बनाना होगा, रिपोर्टिंग और मॉडरेशन सिस्टम को और मजबूत करना जरूरी है ताकि धमकी, गाली-गलौज और हिंसात्मक ट्रेंड्स को समय रहते रोका जा सके।

कानून, स्वतंत्रता और एक प्रगतिशील समाज की ओर

कमल कौर की हत्या ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हमारे संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाकई हर नागरिक को समान रूप से हासिल है?

भारत का संविधान अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी की गारंटी देता है। लेकिन यह अधिकार तब बेमानी हो जाता है जब समाज अपने पूर्वग्रहों को कानून से ऊपर रख देता है।

हमें यह समझना होगा कि विचारों का विरोध, विचारों से ही किया जाना चाहिए, हिंसा या हत्या से नहीं। यह समय है कि हम सोशल मीडिया के दौर में अभिव्यक्ति की जगह को अधिक समावेशी, सुरक्षित और संवेदनशील बनाएँ ।

डेटा क्या कहते हैं?

 NCRB डेटा (2022): महिलाओं के खिलाफ 15,000 से अधिक साइबर अपराध मामले दर्ज।

 NCW रिपोर्ट (2021): सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर महिलाओं को सबसे ज़्यादा ट्रोलिंग का सामना इंस्टाग्राम और ट्विटर पर होता है।

 Global Gender Gap Report (WEF, 2023): भारत में डिजिटल भागीदारी में लैंगिक अंतर अब भी 30% से अधिक है। उदाहरण: 2020 में TikTok की एक महिला क्रिएटर को मिली धमकियों के बाद आत्महत्या का मामला।

समावेशिता और संवाद की अपील

यह घटना एक बार फिर हमें सोचने पर मजबूर करती है कि समाज को किस दिशा में ले जाना है, क्या हम संवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर बढ़ना चाहते हैं या डर और चुप्पी की ओर?

कमल कौर की मौत को एक मूक अंत नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत का आधार बनाएँ जहाँ हर आवाज़ को ज़िंदा रहने और खुलकर बोलने का अधिकार हो।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I