बालासोर की त्रासदी: यह एक छात्रा की हार नहीं, व्यवस्था की आत्महत्या
12 जुलाई की दोपहर, ओडिशा के बालासोर जिले में एफएम ऑटोनॉमस कॉलेज की एक 20 वर्षीय छात्रा ने कॉलेज गेट के सामने खुद को आग लगा ली। कुछ दिन अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझने के बाद 14 जुलाई की रात उसकी मृत्यु हो गई।

12 जुलाई की दोपहर, ओडिशा के बालासोर जिले में एफएम ऑटोनॉमस कॉलेज की एक 20 वर्षीय छात्रा ने कॉलेज गेट के सामने खुद को आग लगा ली। कुछ दिन अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझने के बाद 14 जुलाई की रात उसकी मृत्यु हो गई। कारण - लगातार यौन उत्पीड़न की शिकायत, जिसकी अनसुनी कर दी गई। यह सिर्फ एक आत्महत्या नहीं, बल्कि प्रशासनिक लापरवाही, कॉलेज प्रबंधन की निष्क्रियता और पूरे सरकारी तंत्र की असंवेदनशीलता का जीवंत प्रमाण है।
शिकायतों की अनदेखी, निष्क्रिय प्रशासन
पीड़िता ने कॉलेज के एक वरिष्ठ शिक्षक के विरुद्ध कई बार यौन उत्पीड़न की लिखित शिकायतें दी थीं। उसने स्पष्ट रूप से कहा था कि आरोपी उसे धमकी दे रहा है कि यदि वह उसकी 'बातें नहीं मानेगी' तो उसे परीक्षा में फेल कर देगा। कॉलेज प्रशासन को न छात्रा की पीड़ा दिखी, न शिकायत में दम नजर आया, और न ही उन्होंने कार्यवाही करने की जहमत उठाई। आखिरकार, जब इस देश की एक बेटी को न्याय नहीं मिला, तो उसने खुद को आग के हवाले कर दिया।
चरम कदम और जनता का आक्रोश
इस दिल दहला देने वाले घटनाक्रम के बाद, कॉलेज और प्रशासनिक परिसर में भारी जनाक्रोश फैल गया। छात्र संगठन, महिला मोर्चा और सामाजिक संगठनों ने सड़कों पर उतरकर कार्रवाई की माँग की। इसके बाद ही आरोपी शिक्षक और कॉलेज प्राचार्य को निलंबित कर गिरफ्तार किया गया, लेकिन तब तक एक अनमोल जीवन बुझ चुका था।
देरी से न्याय, दरअसल अन्याय
यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी देश ने उन्नाव, हाथरस (उ.प्र.), मुजफ्फरपुर (बिहार), कठुआ (जम्मू), या कोपर्डी (महाराष्ट्र) जैसे मामलों में शासन-प्रशासन की असंवेदनशीलता को देखा है, जहाँ या तो पीड़िता को इंसाफ नहीं मिला, या उसे खामोश कर दिया गया। पीड़िता की मौत के बाद हुई कार्रवाई सवाल खड़े करती है कि क्या प्रशासनिक तंत्र की संवेदना अब मृत शरीर देखकर ही जागेगी?
ये हादसे क्यों बार-बार?
1. संवेदनहीन अफसरशाही — शिकायत दर्ज कर लेना और 'देखा जाएगा' कह देना एक सामान्य चलन बन चुका है।
2. लचर जवाबदेही — कॉलेज प्राचार्य, जिला प्रशासन या पुलिस कोई नहीं मानता कि उनका दायित्व क्या है।
3. प्रक्रियाओं का जाल — हर पीड़ित को कमेटियाँ, आंतरिक जांच, रिपोर्ट, अनुशंसा जैसी प्रक्रियाओं के बोझ तले दबा दिया जाता है।
4. समाज की चुप्पी — जब तक मौत न हो, समाज भी पीड़िता को ‘मसला’ मानकर चुप रहना पसंद करता है।
अब तो बदलो यह तंत्र!
बालासोर की यह घटना केवल एक छात्रा की मौत नहीं, यह हर उस बेटी, बहन और महिला की चीख है, जो इस तंत्र से उम्मीद लगाती है और जवाब में खामोशी पाती है। सरकार और प्रशासन को समझना होगा कि एक जीवन की क्षति केवल एक आंकड़ा नहीं होती।
यह समय है कि:
शिकायतों की समयबद्ध, निष्पक्ष और पारदर्शी जांच सुनिश्चित की जाए।
कॉलेजों में आंतरिक शिकायत समितियाँ (ICC) प्रभावी बनें, नाम मात्र की नहीं।
शिक्षकों और अधिकारियों के खिलाफ सख्त सेवा नियम और त्वरित निलंबन की व्यवस्था हो।
यौन उत्पीड़न को सामाजिक अपराध मानकर न्याय प्रणाली में तेज़ी लाई जाए।
अंतिम बात:
हर लड़की की जिंदगी मूल्यवान है। उसकी सुरक्षा, गरिमा और न्याय सुनिश्चित करना देश की प्राथमिक जिम्मेदारी है - न कि बाद में दिए जाने वाला एक 'मुआवज़ा' या 'घोषणा'। अगर अब भी हम नहीं चेते, तो अगली आग किसी और छात्रा के भीतर दहकेगी और तब शायद हमारे मौन की आँच हमें भी जला दे।
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