बंद होते सरकारी स्कूल: शिक्षा के अधिकार पर संकट
2014 से 2022 के बीच भारत में 89,441 सरकारी स्कूल बंद हुए, जिससे गरीब और ग्रामीण बच्चों की शिक्षा पर गंभीर असर पड़ा। भाजपा शासित राज्यों में यह प्रवृत्ति अधिक दिखी। स्कूल बंद करने के पीछे नामांकन में गिरावट और निजी शिक्षा को बढ़ावा जैसे कारण बताए गए, पर असल में यह सरकारी शिक्षा को कमजोर करने की नीति का हिस्सा है। समाधान स्कूलों को बंद करने में नहीं, उन्हें मजबूत बनाने में है जिसमें बजट वृद्धि, शिक्षक नियुक्ति और समुदाय की भागीदारी जरूरी है।

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में शिक्षा को न केवल सामाजिक न्याय का साधन माना जाता है, बल्कि यह समावेशी विकास का मूलाधार भी है। परंतु वर्ष 2014 के बाद से सरकारी स्कूलों की लगातार होती बंदी ने शिक्षा व्यवस्था की नींव को ही हिला देने का कार्य किया है। शिक्षा मंत्रालय के अनुसार 2014 से 2022 के बीच 89,441 सरकारी स्कूल बंद हुए यह केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि लाखों गरीब और ग्रामीण बच्चों के भविष्य पर ताला लगने का दस्तावेज़ है।
स्कूलों की बंदी के संभावित कारण
सरकारी स्कूलों के बंद होने के पीछे तर्क दिए जाते हैं जनसंख्या में गिरावट, शहरीकरण की प्रवृत्ति, निजी स्कूलों की बढ़ती संख्या और ‘school rationalization’ जैसी सरकारी नीतियाँ। परंतु, इन तर्कों के पीछे छिपी असली सच्चाई कहीं अधिक गहरी और चिंताजनक है। जहाँ एक ओर शिक्षा में निजी क्षेत्र के प्रवेश को बढ़ावा मिला है, वहीं दूसरी ओर सरकारी स्कूलों को कमजोर और अनुत्पादक घोषित कर उन्हें धीरे-धीरे बंद करने की नीति अपनाई गई है। कई राज्यों में न्यूनतम नामांकन न होने को आधार बनाकर स्कूल बंद किए गए, जबकि यह प्रश्न कभी नहीं पूछा गया कि नामांकन घटा क्यों?
भाजपा शासित राज्यों में अधिक बंद स्कूल: एक संकेतक
राष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि बंद हुए स्कूलों में से 61% स्कूल केवल उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बंद किए गए दोनों ही भाजपा शासित राज्य हैं। यह मात्र संयोग नहीं, बल्कि उन नीतियों का परिणाम है जो शिक्षा को सेवा नहीं, बल्कि लागत और बोझ की तरह देखती हैं।
मध्य प्रदेश में ‘स्कूल समेकन’ (school merger) की नीति के तहत हजारों छोटे-छोटे गाँवों के स्कूल एकीकृत कर दिए गए, जिससे बच्चों को अब 3 से 5 किमी तक पैदल चलकर स्कूल जाना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में भी कई प्राथमिक विद्यालय शिक्षकों की भारी कमी और अधोसंरचना की जर्जर हालत से जूझ रहे थे, जिन्हें बंद करने के बजाय सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
ग्रामीण भारत में शिक्षा के अधिकार पर संकट
शहरों में निजी स्कूलों की भरमार ने एक वर्ग को विकल्प तो दिया है, परंतु ग्रामीण और पिछड़े इलाकों के बच्चे सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर हैं। इन स्कूलों की बंदी से न केवल शिक्षा के अधिकार (Right to Education) का हनन होता है, बल्कि यह सामाजिक असमानता को और भी गहरा कर देता है। बच्चियों की शिक्षा सबसे पहले प्रभावित होती है, क्योंकि अभिभावक उन्हें दूर स्थित स्कूलों में भेजने से कतराते हैं। परिणामस्वरूप, बाल विवाह, बाल श्रम और ड्रॉपआउट की दर में वृद्धि देखी जाती है।
नीति-निर्माण और बजट
सरकार की शिक्षा संबंधी नीतियाँ अब अधिकतर उत्पादकता और नतीजों की भाषा में बात करती हैं, जिसमें सरकारी स्कूलों की उपयोगिता को महज नामांकन संख्या या परीक्षा परिणामों से मापा जाता है। शिक्षा बजट में वर्षों से जीडीपी का केवल 2.9% खर्च किया जा रहा है, जबकि विभिन्न आयोगों और नीति दस्तावेजों में इसे 6% तक बढ़ाने की सिफारिश की गई थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बड़े वादे तो किए गए हैं, परंतु जमीनी स्तर पर उसका प्रभाव अभी तक सीमित है।
समाधान: स्कूल नहीं, सोच बदलनी होगी
सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारने के लिए सबसे पहले उन्हें बंद करने की नहीं, मजबूत करने की नीति अपनानी होगी। इसके लिए:
v स्थानीय समुदायों की भागीदारी को बढ़ाना होगा ताकि स्कूल समाज से जुड़ाव बनाए रख सकें।
v शिक्षकों की पर्याप्त नियुक्ति, नियमित प्रशिक्षण और उनकी जवाबदेही तय करना ज़रूरी है।
v अधोसंरचना में निवेश कर स्कूलों को बच्चों के लिए आकर्षक और सुरक्षित बनाया जाए।
v शिक्षा बजट में वास्तविक वृद्धि के बिना गुणवत्ता की बात करना केवल खोखली रणनीति है।
v डिजिटल डिवाइड को पाटते हुए तकनीक को सहायक बनाना होगा, प्रतिस्थापन नहीं।
भारत के संविधान ने हर बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया है। पर जब सरकारें स्कूल बंद करने को सुधार की संज्ञा देने लगें, तो यह गंभीर आत्ममंथन का समय है। अब समय आ गया है यह सवाल पूछने का क्या देश की शिक्षा नीति वास्तव में समावेशी और दूरदर्शी है, या फिर यह केवल आंकड़ों और घोषणाओं तक सीमित रह गई है?
What's Your Reaction?






