नंददुलारे वाजपेयी का निराला के नाम पत्र
यह पत्र हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण आलोचक नंददुलारे वाजपेयी द्वारा प्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' को लिखा गया पत्र है, जो साहित्यिक विमर्श, व्यक्तिगत जीवन और हिंदी साहित्य के समकालीन परिदृश्य पर गहन संवाद का प्रमाण है।

मगराबर (उन्नाव)
21-4-1926
प्रिय निराला जी,
आपके दोनों पत्र मिले। मैं ‘माधुरी’ का विशेषांक लेने आप के यहाँ गया हुआ था, वहाँ तो आपके बहुत शीघ्र आने की सूचना मिली थी, पर इस पत्र से मालूम हुआ कि आप अभी न आएँगे। आपका स्वास्थ्य अब सुधर गया है, और अब उपन्यास लिखने का विचार हुआ है-बड़ी प्रसन्नता की बात है। मेरे काम पीछे भी होते रहेंगे, अभी कोई हड़बड़ी नहीं है, अभी तो परीक्षाफल भी प्रकाशित नहीं हुआ है। मुझे कोई विशेष उद्विग्नता नहीं है।
दो Certificates साधारण सम्मतियाँ लेनी हैं, एक द्विवेदीजी से और एक मिश्रबंधुओं से। आज एक पत्र द्विवेदी जी को लिखा है—पहले ही पत्र में स्वार्थ की भरमार, प्रायः दस पंक्तियों का, देखिए उत्तर में क्या लिखते हैं। मिश्रबंधुओं को अभी नहीं लिखा, कृष्णबिहारी जी से सहायता लेनी होगी, अथवा आपके आने तक ठहरना होगा क्योंकि उनसे मिलकर बातचीत करने से ही काम बनेगा। और किस के यहाँ जाऊँ। अपने प्रोफ़ेसरों की तो बड़ी-बड़ी प्रशंसात्मक सम्मतियाँ मिल गईं हैं, मालवीय जी से मिल जाने की संभावना है। यदि Research Work ही करना निश्चित हुआ तब तो यह दौड़-धूप भी फ़िज़ूल ही होगी।
कलकत्ते की प्रोफ़ेसरी मेरे विकास के लिए विशेष उपयोगिनी नहीं होगी। एक तो स्वास्थ्य की अनुकूलता होनी कठिन है और दूसरे हिंदी-साहित्य का क्षेत्र वहाँ विशेष विस्तृत नहीं दिखाई देता। बंगालियों के बीच उनकी गबड़चौथ में पड़कर मैं कुछ भी न कर सकूँगा। मुझे तो काशी, प्रयाग, लखनऊ या कानपुर चाहिए, आख़िरी दर्जे में कलकत्ता है। दूसरी बात यह भी तो है कि वे अपनी यूनीवर्सिटी वालों को Preference देंगे। क्या सकलनारायण शर्मा आदि के प्रभाव से कुछ कार्य हो सकता है? आपसे उनका परिचय है?
मैं अभी कलकत्ते कहाँ जा रहा हूँ। अभी 10-12 दिन का अटकाव तो यहीं है, इसके बाद एक बार बनारस और गोरखपुर जाना है। गोरखपुर से द्विवेदी जी ने बुलाया है, स्वदेश के 'साहित्यांक' के संपादन के लिए। यह अंक वृहत और हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण होगा। कोई दो ढाई सौ, या इससे भी अधिक पृष्ठ होंगे, ठोस और स्थाई लेखों के। द्विवेदी जी भरपूर ख़र्च करने को भी कहते हैं। ‘हिंदी कविता में छायावाद’ मैं इसी अंक के लिए लिखने का विचार करता हूँ।
छायावाद के संबंध में आपने जो कुछ लिखा और कहा है उसका सारांश मेरी समझ में इतना ही आया है कि आपके विचार में जो सत्य है वही कविता है, वही छायावाद या रहस्यवाद है। रहस्य वास्तव में रहस्य नहीं है, पहुँचे हुए के लिए वह साधारण सत्य है। इसी रहस्य के न समझने के कारण सत्य की तात्त्विक व्याख्या न करने के कारण कहीं-कहीं Tagore भी भ्रामक बतलाए गए हैं और इसी कारण जोशी-बंधु और गंगाप्रसाद उपाध्याय आदि सच्ची अनुभूति के अभाव में विपथगामी हो गए हैं।
मुझे इन प्रश्नों का उत्तर लिख भेजिए :
(1) जब साधारण सत्य ही कविता है तब कविता के सत्य और असत्य के आधार पर दो ही विभाग हो सकेंगे, उसके अन्य सूक्ष्म विभेद कैसे होंगे? अर्धसत्य, चतुष्पद सत्य, अष्टांश सत्य आदि? यह बात कुछ जँचती नहीं है क्योंकि ऐसा करने से कविता Mathematics से कुछ मिलती जुलती-सी हो जाएगी।
(2) अंग्रेज़ी में Romanticism, Classicism, Idealism, Realism, Symbolism, आदि न जाने कितने भेद कविता के हैं पर आपके Division के अनुसार तो Wordsworth और Shelly [Shelley] ; Shakespeare और Keats [,] Milton और Tennyson आदि एक ही श्रेणी में रहेंगे—उन स्थलों में जहाँ वे सत्रू का अभिव्यंजन करते हैं। आजकल समालोचकों का झुकाव Clear Cut Classification की ओर है, किंतु आपकी व्याख्या में उसकी गुंजाइश मुझे कम मालूम पड़ती है।
(3) ‘नैया बिच नदिया डूबी जाय’ में कबीर ने एक महान सत्य कह डाला है। यह सत्य क्या वही नहीं है जिसकी व्यंजना कबीर के पूर्व - बहुत पूर्व हो चुकी थी? कबीर की मौलिकता क्या है? एक प्रश्न और है, इसमें काव्य की रसात्मकता कहाँ है? प्रसाद का कितना अभाव है? पहेली ही तो है? क्या यही बात कवित्त्वपूर्ण ढंग से सब के समझने के लिए नहीं कहीं जा सकती?
(4) साधारण सत्रू को दर्शन है, मेरे विचार में कविता नहीं। आप क्या दोनों की अभिन्नता स्वीकार करते हैं? अंग्रेज़ी कवियों में Browning सबसे बड़ा दार्शनिक था, पर वह सबसे बड़ा कवि नहीं माना जाता क्यों? मेरे विचार में इसलिए कि उसने सत्य को काव्योपयोगी नहीं बनाया, उसमें कवित्त्व कम था।
(5) रहस्य वास्तव में रहस्य नहीं है, पहुँचे हुए के लिए वह साधारण सत्य है। यहाँ आपने रहस्य को सापेक्षिक माना है। पर सत्य तो Absolute है, वह सापेक्षिक नहीं है। और रहस्य के प्रत्यक्षीकरण में भी तो भेद है। गीता के ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ में जो रहस्य है, वही रहस्य ‘नैया बिच नदिया डूबी जाय’ में भी है पर एक में कहने का ढंग साफ़ और दूसरे में पहेलीनुमा है। मेरे विचार में पहला ढंग अधिक काव्योपयोगी है।
(6) मैं यह मानता हूँ कि अनुभूतिविहीन बातें कहना घपलेबाज़ी है। साधना-विहीन ज्ञान ढकोसला है। इस दृष्टि से हिंदी के छायावादियों में बतलाइए कौन सबसे बड़ा साधक है? क्या आप या पंत या प्रसाद? विवाह न करना और दो घंटों तक बालों को Trim करके फ़ोटो खिंचाना परस्पर विरोधी बातें हैं। साधना बिचारी बीच ही में लटक गई है। विरक्ति तो विरक्ति ही है, उसमें एकांगिता नहीं हो सकती। साधक इंडियन प्रेस की नौकरी के लिए लालायित नहीं रहता और न सुंघनी की दुकान में बैठता है। यदि दूसरे पक्ष में देखिए तो विवाह कोई ऐसा प्रतिबंध नहीं है जो नर्क ही को ले जाए। साधना की कल्पना उसकी उपस्थिति में भी की जा सकती है, महात्मा गांधी उस क्षेत्र में कुछ दूर तक पहुँचते हैं-आप इसे मानते है या नहीं?
(7) जोशी बंधु या गंगाप्रसाद कोरे पुस्तक-कीट हैं। पर तत्त्वज्ञानी और साधक भी तो कम ही हैं। अब हिंदी में मध्यकालीन भक्त कवियों की-सी सच्ची अनुभूति का साहित्य कहाँ सृजित होता है? ऐसी अवस्था में केवल परिमाण का, Degree का भेद रह जाता है जिसकी खोज करना बड़ा कठिन है। और थोड़ी-थोड़ी अनुभूति उपाध्याय जी, मैथिलीशरण जी आदि में भी स्वीकार करनी ही पड़ेगी। आपकी क्या सम्मति है?
आम यहाँ अच्छे फले हैं। आपकी बाग भी अच्छी आई है। मेरी इच्छा तो यहीं रहकर आमों की फ़सल का उपयोग करने की है, परंतु क्या होगा यह निश्चित नहीं है। पं० रघुनंदन शर्मा परसों यहाँ (मेरे यहाँ) आने वाले हैं। तीन चार दिन रहेंगे। आनंदमोहन जी आज दो-तीन दिनों से कानपुर में हैं, विवाह उनका जेठ में है। शायद विवाह बेक़रार का तय हुआ है।
यहाँ लाइब्रेरी का काम ज्यों-त्यों चलता है। शर्मा जी से एक आध दिन व्याख्यान दिलाने का विचार करता हूँ। कुछ चंदा भी एकत्र करना होगा। पत्र-पत्रिकाओं का कार्य पूरा हो रहा है। आपने वीणा, सरोज, त्यागभूमि, मनोरमा आदि का जो प्रबंध किया था, वह सब चार-छः महीने से बंद है। पुस्तकें भी थोड़ी ही हैं, उतनी नहीं कि Library को वाचनालय के अतिरिक्त और कुछ कहा जाय। आप पत्रिकाओं को लिख दें तो अच्छा हो। पढ़ने की ओर लोगों का उत्साह तो धीरे ही धीरे होगा। मतवाला, प्रताप आदि पत्र आते हैं और लोग उन्हें पढ़ते भी हैं। साधारण लोगों की प्रवृत्ति साप्ताहिकों की ओर अधिक है। कुछ उपन्यास भी पढ़े जा सकते हैं।
शेष प्रसन्नता है।
सविनय
नंददुलारे
स्रोत : पुस्तक : निराला की साहित्य साधना संपादक : रामविलास शर्मा रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
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