राष्ट्रीय एकात्मकता: लोक, संस्कृति और सहज बोध पर कोलकाता में संगोष्ठी
कोलकाता में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में लोक, संस्कृति और सहज बोध के संदर्भ में राष्ट्रीय एकता पर शीर्ष विद्वानों ने गहन अकादमिक विमर्श प्रस्तुत किया।
राष्ट्रीय एकात्मकता, लोक, संस्कृति और सहज बोध पर कोलकाता में गहन विमर्श
कार्यक्रम की संरक्षिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की कुलपति प्रो. कुमुद शर्मा रहीं तथा संगोष्ठी का मार्गदर्शन केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली के निदेशक डॉ, हितेंद्र मिश्र ने किया। स्थानीय संयोजक के रूप में क्षेत्रीय केंद्र कोलकाता के प्रभारी डॉ. अमित राय ने अकादमिक व प्रशासनिक तैयारियों का नेतृत्व किया और संगोष्ठी की प्रभारी डॉ. नूतन पाण्डेय, सहायक निदेशक (भाषा), केंद्रीय हिंदी निदेशालय थीं।
उद्घाटन सत्र : विषय, संदर्भ और वैचारिक रूपरेखा
उद्घाटन सत्र का केंद्रीय विषय था ‘राष्ट्रीय एकात्मकता : लोक, संस्कृति, सहज बोध’।
स्वागत वक्तव्य देते हुए डॉ. अमित राय ने कहा कि लोक, संस्कृति और सहज बोध तीनों अलग-अलग दायरे होते हुए भी राष्ट्र-स्तर पर मनुष्य को केंद्र में रखकर एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। उन्होंने व्यवस्था, सह-अस्तित्व और प्रकृति के नियमों के उदाहरण से समझाया कि जहाँ सह-अस्तित्व और सहयोग टूटता है, वहीं संरचनागत हिंसा जन्म लेती है और राष्ट्रीय एकता भी संकट में पड़ती है। उन्होंने भारतीय और पश्चिमी चिंतन में फर्क बताते हुए कहा कि पश्चिम में विचार ‘लाइनियर टर्न’ के रूप में आगे बढ़ता है, जबकि हम अकसर हजार साल पीछे ‘जंप’ करके परंपरा से तर्क खोजते हैं; इसी जमीन पर लोक, संस्कृति और राष्ट्र की बहस खड़ी होती है।
विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. नूतन पाण्डेय ने केंद्रीय हिंदी निदेशालय की योजनाओं शब्दकोश निर्माण, भाषा-कोश, प्रशिक्षण पाठ्यक्रम, अनुदान आदि का संक्षिप्त परिचय देते हुए बताया कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच संवाद और समन्वय स्थापित करना ही निदेशालय की मूल दृष्टि है। उन्होंने आगे कहा कि लोक, संस्कृति और सहज बोध पर यह संगोष्ठी केवल अकादमिक विमर्श नहीं, बल्कि मनुष्य, समाज और राष्ट्र के संबंधों को समझने का अवसर है। सहज बोध किसी कानून से पहले हमारे भीतर पैदा होने वाली आंतरिक नैतिक चेतना है, जो यह तय करती है कि क्या करना है और क्या नहीं।
बीज वक्ता के रूप में प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय की पूर्व प्राध्यापक प्रो. तनुजा मजुमदार ने वंदेमातरम् के 150 वर्ष के प्रसंग से शुरुआत करते हुए यह रेखांकित किया कि राष्ट्रीय एकता की जड़ें बहुत गहरे अतीत तक जाती हैं– वेदों, लोककथाओं, भक्तिकाल, आज़ादी के आंदोलन और आधुनिक साहित्य तक। उन्होंने बताया कि असहयोग आंदोलन, जेलों की भीड़, धूमकेतु जैसी पत्रिकाओं, विद्रोही कविता और वंदे मातरम् के सामूहिक गायन ने किस तरह लोक मानस में एकता की अनुभूति पैदा की। उन्होंने स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय एकात्मकता केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि लोक-संस्कृति और साहित्य से निर्मित अनुभव है। लोक और साहित्य मिलकर राष्ट्र को भावनात्मक आधार देते हैं; इस आधार को समझे बिना आज के संकटों को नहीं समझा जा सकता।
विशिष्ट अतिथि प्रो. सोमा बंदोपाध्याय, कुलपति, पश्चिम बंगाल शिक्षक प्रशिक्षण, शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय, कोलकाता ने अपने वक्तव्य में कहा कि विविध भारतीय लोक परंपराओं कथा-सरित्सागर, जातक कथाएँ, बंगाल की दादा-ठाकुर की कहानियाँ का उल्लेख करते हुए कहा कि लोककथाएँ केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना, पेशों, व्यवहार, नैतिकता और अनुभव का दस्तावेज हैं। पूर्वोत्तर भारत की मौखिक परंपराओं के उदाहरण देते हुए कहा कि लोक गाथाओं में युवतियों की दुख-गाथाएँ, प्रकृति और स्त्री के बीच सांस्कृतिक संबंध, मिथकीय आख्यानों में पर्यावरण एवं नैतिक संरचना है। उन्होंने आगे कहा, “लोक-परंपराएँ राष्ट्रीय चेतना का सहज और स्वाभाविक आधार बनाती हैं। यह बोध हमें बताता है कि हम विविध होकर भी एक हैं।”
विज्ञान एवं तकनीकी विश्वविद्यालय, कोचीन, केरल के पूर्व प्राध्यापक प्रो. आर. शशिधरन ने केरल के कवि नारायण और कलामंडलम की स्थापना का उदाहरण देते हुए बताया कि किस प्रकार एक कलाकार किसी लोक-अनुभव को देखकर कला-संस्था खड़ी कर देता है। यह भी सहज बोध का ही परिणाम है, जो बाद में सांस्कृतिक संस्था बनकर राष्ट्रीय स्तर पर एकता और सांस्कृतिक स्वाभिमान को मजबूत करता है।
अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. निर्मल नारायण चक्रवर्ती ने अपने वक्तव्य में सहज बोध को केंद्रीय बिंदु बनाते हुए अत्यंत ठोस और जमीन से जुड़े उदाहरण दिए। उन्होंने कहा कि सहज बोध कोई अमूर्त दार्शनिक अवधारणा नहीं, बल्कि समाज के जीवन से बनने वाली ‘कॉमन सेंस’ है, जो नैसर्गिक रूप से हमारे अनुभवों और लोक-जीवन से तैयार होती है। अपने गांव और किसान परिवार का संदर्भ देते हुए उन्होंने बताया कि खेतों में काम करने वाले साधारण किसान भी तिरंगे झंडे के पीछे-पीछे चलने वाले व्यक्ति को देखकर स्वतः राष्ट्रीय भाव से भर उठते हैं यही लोक का सहज बोध है, जो किसी पाठ्यपुस्तक से नहीं, जीवन से पैदा होता है।
सत्र का संचालन महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केंद्र के सहायक प्राध्यापक डॉ. अभिलाष कुमार गोंड ने और धन्यवाद ज्ञापन सहायक प्राध्यापक डॉ. चित्रा माली ने किया।
प्रथम अकादमिक सत्र का विषय : राष्ट्रीय एकात्मकता और सांस्कृतिक विमर्श
इस सत्र में विद्यासागर विश्वविद्यालय, मिदनापुर के प्राध्यापक एवं संस्कृतिकर्मी डॉ. संजय जायसवाल ने कहा कि क्या आज के राष्ट्रीय एकात्मकता में दूसरी संस्कृतियों, दूसरी भाषाओं, सामाजिक भिन्नताओं के लिए कोई जगह है। साझेपन में ही राष्ट्रीय एकात्मकता मजबूत होती है। राष्ट्रीय एकात्मकता बिना बहु जातीयता, बहु भाषिकता, बहु सांस्कृतिकता, बहु भौगोलिकता के संभव नहीं है।
खिदिरपुर कॉलेज, कोलकाता की प्राध्यापक डॉ. इतु सिंह कहती हैं कि आज भी अलगाववाद का खतरा हमारे सिर पर मंडरा रहा है। हम कई मामलों में बंटे हुए लोग हैं कभी जाति, कभी धर्मं, कभी संप्रदाय, कभी भाषा में। आज साम्प्रदायिकता हमारे लिए बड़ी चुनौती है।
मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष व आलोचक प्रो. दत्तात्रय मरुमकर कहते हैं कि आज जब हम राष्ट्रीय एकात्मकता की बात कर रहे हैं तो वह ठीक वैसे ही है जैसे हम इसका पुनर्विचार और पुनर्निर्माण कर रहे हैं। लोक की भूमि किसी की बात को आँख मूँदकर स्वीकार नहीं करती है। आगे प्रो. मरुमकर समकालीन भारत में सांस्कृतिक विविधता, मीडिया, बाजारवाद, नई पीढ़ी की चुनौतियों और राष्ट्रीय एकता के सवालों पर अपना विचार विस्तार से रखा।
इस अकादमिक सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. राजश्री शुक्ला ने सत्र के सभी वक्ताओं के समयबद्ध और सारगर्भित प्रस्तुतीकरण की सराहना करते हुए कहा कि राष्ट्रीय एकता का अर्थ ‘एकरूप’ समाज बनाना नहीं, बल्कि विभिन्नताओं के रहते हुए संवाद और सम्मान के साथ रहना है। यदि सावधानी नहीं बरती गई तो एकात्मकता की चर्चा धीरे-धीरे 'एकरूपता’ की माँग में बदल सकती है, जो लोक-संस्कृति और लोकतंत्र दोनों के लिए संकटपूर्ण है। इस प्रकार प्रो. शुक्ला ने अकादमिक सत्र के निष्कर्ष में यह स्पष्ट कर दिया कि राष्ट्रीय एकात्मकता का सही अर्थ बहुलता के भीतर सहमति और संवाद है, न कि एक जैसी सोच और एक जैसा रूप थोपना।
इस सत्र का संचालन महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की सहायक प्राध्यापक डॉ. चित्रा माली ने किया। और धन्यवाद ज्ञापन केंद्रीय हिंदी निदेशालय के डॉ. प्रदीप ठाकुर ने किया।
द्वितीय अकादमिक सत्र का विषय : राष्ट्रीय एकात्मकता और सहज बोध
श्री आदित्य विक्रम सिंह ने विद्यार्थियों, शोधार्थियों तक ‘राष्ट्रीय एकात्मकता और सहज बोध’ की दृष्टि को संप्रेषित करने के लिए कहा कि “राष्ट्रीय एकात्मकता एकीकृत भारतीय चेतना का आधार है।”
प्राध्यापक सुनील कुमार द्विवेदी ने कहा कि राष्ट्रीय एकात्मकता वह शक्ति है, जो समष्टि के कल्याण के साथ अपनी नैतिक भलाई के भाव से अनुप्राणित होती है। जब तंत्र का वास्तविक अधिकार लोक के हाथों में सुरक्षित रहता है, तभी स्वतंत्रता सार्थक बनती है और राष्ट्र की एकात्मकता दृढ़ आधार पाती है।
साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान व प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो. वेदरमण पाण्डेय ने राष्ट्रीय एकात्मकता और भारत की एकात्मकता का गहन विश्लेषण कर ‘राष्ट्रीय एकात्मकता और सहज बोध’ को बड़ी सहजता से व्याख्यायित किया।
द्वितीय सत्र के अध्यक्षीय उद्बोधन में विश्वभारती, शांतिनिकेतन के आचार्य प्रो. रामेश्वर मिश्र ने अपने वक्तव्य की शुरुआत इस प्रश्न से की कि “एकात्मकता को हम पॉजिटिव रूप में स्वीकार करें या नेगेटिव रूप में?” उन्होंने कहा कि अभी तक के व्याख्यानों में एकात्मकता के खतरे की चर्चा ज़्यादा दिखी, जबकि इसके सकारात्मक अर्थ पर भी विचार होना चाहिए।
1. एकात्मकता का खतरा बनाम संभावना: उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय एकात्मकता पर बात करते समय केवल ‘खतरा’ नहीं, लोक की वास्तविक चिंताओं को भी केंद्र में रखना होगा।
2. सहज बोध की जटिलता: उन्होंने स्पष्ट कहा कि सहज बोध उतना सरल नहीं जितना दिखता है; यदि वह इतना सहज होता तो प्रो. हजारी प्रसाद द्विवेदी को ‘सहज साधना’ पर पूरी किताब लिखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संत-साहित्य की ओर संकेत करते हुए उन्होंने बताया कि साधना को सहजता की ओर ले जाने का एक बड़ा आंदोलन रहा है, जैसे गोरखनाथ की पंक्तियाँ, जिनमें ध्यान, तप और सहज जीवनानुभव को जोड़ा गया है।
3. सहज बोध, जाति और रोजमर्रा की पहचान: उन्होंने उदाहरण दिया कि हम किसी का पूरा नाम पूछते समय, कपड़ों, भाषा, टीका, दाढ़ी, मूँछ देखकर यह अंदाज़ लगाते हैं कि वह किस जाति या समूह से हो सकता है- यह भी एक तरह का सहज बोध है, जो हमारे भीतर बैठा हुआ है। उन्होंने सवाल उठाया कि इस सहज बोध को ‘साधु बोध’ में कैसे बदला जाए, यहीं बौद्धिकों और अकादमिक जगत की ज़िम्मेदारी है। प्रो. मिश्र ने साफ कहा कि सहज बोध अगर केवल जाति, पहचान और पूर्वाग्रह तक सीमित रह जाए तो वह राष्ट्रीय एकता के लिए जोखिम बन जाता है; लेकिन अगर उसे साधु बोध में रूपांतरित किया जाए तो वही लोक-जीवन से जुड़ी मानवीय समझ राष्ट्र को मजबूत करती है।
इस सत्र का संचालन सहायक प्राध्यापक पूजा गुप्ता ने किया। और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. अभिलाष कुमार गोंड ने किया।
राष्ट्रीय संगोष्ठी के वक्ताओं ने लोक, संस्कृति और सहज बोध को दार्शनिक, सामाजिक और मानवीय परिप्रेक्ष्य से समझाते हुए लोक-अनुभव और राष्ट्रीय चेतना के संबंधों पर गंभीर चर्चा की। इस प्रकार यह संगोष्ठी केवल एक आयोजन न होकर लोक, संस्कृति, सहज बोध और राष्ट्रीय एकता पर नए सिरे से सोचने की गंभीर पहल के रूप में याद रखी जाएगी।
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