ढहते पुल और डूबता भरोसा: भारत में ढाँचागत असुरक्षा का बढ़ता संकट
भारत में पिछले 25 वर्षों (2000–2025) में खस्ताहाल और निर्माणाधीन पुलों के ढहने की घटनाएँ बार-बार सामने आई हैं। ये घटनाएँ न केवल बड़ी जनहानि का कारण बनी हैं, बल्कि यह भी दर्शाती हैं कि देश में ढाँचागत विकास की गति और प्रशासनिक ज़िम्मेदारी में भारी विरोधाभास है।

भारत में पिछले 25 वर्षों (2000–2025) में खस्ताहाल और निर्माणाधीन पुलों के ढहने की घटनाएँ बार-बार सामने आई हैं। ये घटनाएँ न केवल बड़ी जनहानि का कारण बनी हैं, बल्कि यह भी दर्शाती हैं कि देश में ढाँचागत विकास की गति और प्रशासनिक ज़िम्मेदारी में भारी विरोधाभास है। अनुमान के अनुसार, 400 से अधिक पुल हादसों में अब तक 700 के आसपास जानें जा चुकी हैं। यह केवल आकस्मिक दुर्घटनाएँ नहीं, बल्कि योजनागत विफलता और लापरवाही का परिणाम हैं।
ढाँचे टूटते हैं, भरोसा भी
जब भी भारत में कोई पुल ढहता है, तो कुछ समय के लिए मीडिया में शोक, आक्रोश और जाँच की माँग सुनाई देती है। फिर एक और पुल गिरता है, कुछ और लाशें मिलती हैं और शोक दोहराया जाता है। 2025 में पुणे के इंद्रायणी नदी पुल दुर्घटना हो या 2022 का मोरबी हादसा, पैटर्न लगभग एक-सा है: पुरानी संरचना, लापरवाही, और बाद में लीपापोती।
भारत में ढाँचागत परियोजनाएँ विकास का प्रतीक मानी जाती हैं, लेकिन जब यही ढाँचे जन जीवन के लिए खतरा बन जाएँ, तो यह एक गंभीर व्यवस्था संकट को दर्शाता है।
तथ्य जो चौंकाते हैं:
2013 से 2022 तक देश में 174 पुल ढहे और इनमें 226 लोगों की मौत हुई।
NCRB डेटा (2012-2021) के अनुसार, 285 मौतें पुल दुर्घटनाओं में दर्ज हुईं।
2024 में बिहार में अकेले 10 पुल ढहे; 16 दिनों में 9 घटनाएँ सामने आईं।
2022 में गुजरात का मोरबी ब्रिज हादसा (140 मौतें) इस समस्या का चरम बिंदु बन गया।
2025 में पुणे पुल गिरा— 30 साल पुराना था, मरम्मत नहीं हुई, 4 की जान गई।
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि भारत में औसतन हर महीने एक पुल गिरता है और हर तीसरे महीने एक जान जाती है। यह किसी भी लोकतांत्रिक और विकासशील राष्ट्र के लिए गहन चिंता का विषय है।
मोरबी से पुणे तक: पुल गिरने की कुछ बड़ी घटनाएँ
1. मोरबी (गुजरात), 2022: 140 से अधिक मौतें। 19वीं सदी का झूला पुल बिना तकनीकी परीक्षण के आमजन के लिए खोल दिया गया।
2. कोलकाता फ्लाईओवर, 2016: निर्माणाधीन पुल गिरने से 27 लोगों की मौत। गुणवत्ता पर सवाल।
3. मिजोरम रेल पुल, 2023: 26 मजदूरों की मौत। निर्माण प्रक्रिया में तकनीकी विफलता।
4. पुणे (इंद्रायणी नदी), 2025: 30 साल पुराना पुल ढह गया। 4 मौतें, 50 घायल। भीड़ और बारिश जिम्मेदार मानी गई।
इन घटनाओं में दो बातें समान हैं- या तो पुल खस्ताहाल थे या निर्माणाधीन, और दोनों ही स्थितियों में निगरानी व उत्तरदायित्व की भारी कमी थी।
जिम्मेदार कौन?
1. प्रशासनिक लापरवाही:
कई बार पुलों की स्थिति की जानकारी संबंधित विभागों को पहले से होती है, लेकिन या तो निर्धारित निरीक्षण नहीं होता, या जाँच रिपोर्ट को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। इंद्रायणी, मझेरहाट, मुंबई F.O.B.— हर मामले में चेतावनी पहले थी, कार्यवाही बाद में या बिल्कुल नहीं।
2. ठेकेदार-इंजीनियर-सत्ता गठजोड़:
निर्माणाधीन पुलों के गिरने की घटनाओं में यह स्पष्ट होता है कि निर्माण सामग्री की गुणवत्ता से समझौता, और परियोजना में भ्रष्टाचार एक गंभीर कारण हैं। कोलकाता फ्लाईओवर, मिजोरम रेल ब्रिज हादसा जैसे मामले इसके उदाहरण हैं।
3. पर्यावरणीय बदलाव व उपेक्षा:
भारी बारिश और बाढ़ जैसे कारक भी कई बार दुर्घटनाओं के कारण बनते हैं, लेकिन सवाल यह है कि ऐसी आपदाओं के लिए तैयारियाँ क्यों नहीं होतीं? क्या हमारे पुल इतने कमजोर हैं कि एक मानसून ही उन्हें गिरा दे?
4. नागरिक अनुशासन का अभाव:
कुछ मामलों में क्षमता से अधिक भार, भीड़, सेल्फी संस्कृति जैसी नागरिक लापरवाहियाँ भी जिम्मेदार हैं। लेकिन अगर पुल पर बोर्ड ही न लगे हों, चौकीदार न हो, तो लोग कहाँ रुकेंगे?
तकनीकी निरीक्षण और सार्वजनिक भागीदारी का अभाव
भारत में अधिकांश पुलों का वार्षिक निरीक्षण अनिवार्य नहीं है। राज्य सरकारें और लोक निर्माण विभाग केवल संकट के बाद रिएक्ट करते हैं, प्रोएक्टिव प्लानिंग न के बराबर होती है। जनता को यह तक जानकारी नहीं होती कि पुल कितना पुराना है, किस स्थिति में है, और उसकी मरम्मत कब हुई।
मीडिया, रिपोर्टिंग और कार्रवाई की गति
मोरबी और कोलकाता जैसे हादसों में मीडिया ने तीव्रता से रिपोर्टिंग की, लेकिन कई छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में पुल ढहने की घटनाएँ समाचार में स्थान तक नहीं पा पातीं। जब तक दबाव न बने, जांच रिपोर्ट नहीं आती, और जब आती है तो सार्वजनिक नहीं होती। दंडात्मक कार्रवाई नगण्य होती है।
पुनरावलोकन की आवश्यकता क्यों है?
भारत में सड़कों और पुलों की संख्या तो तेजी से बढ़ी है, पर रखरखाव की संस्कृति विकसित नहीं हो सकी। पुराने पुलों पर निर्माण तिथि और अधिकतम भार की जानकारी तक नहीं होती।
जहाँ एक तरफ 'इन्फ्रास्ट्रक्चर बूम' के दावे किए जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ बुनियादी निरीक्षण और जवाबदेही की भारी कमी है। अधिकतर मामलों में जाँच के नाम पर 'कमीशन' बना दिए जाते हैं, जिनकी रिपोर्ट न कभी पूरी तरह सार्वजनिक होती है, न ही लागू।
क्या किया जा सकता है?
1. राष्ट्रीय पुल सुरक्षा नीति (National Bridge Safety Policy) लागू की जाए।
2. हर पुल का यूनिक ID और QR कोड सिस्टम बनाकर उसकी स्थिति की जानकारी आम जनता को दी जाए।
3. वार्षिक संरचनात्मक निरीक्षण अनिवार्य किया जाए, और रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए।
4. निर्माण कार्यों में थर्ड पार्टी ऑडिट अनिवार्य किया जाए।
5. पब्लिक-रिपोर्टिंग ऐप बनाया जाए, जहाँ लोग किसी खतरनाक ढाँचे की जानकारी दे सकें।
भारत के ढहते पुल केवल इंटों और सरियों की नहीं, बल्कि व्यवस्था की विफलताओं की कहानियाँ हैं। जब तक हम ज़िम्मेदारी तय करने, पारदर्शिता लाने और संरचनात्मक सुदृढ़ता सुनिश्चित करने के लिए ठोस नीति नहीं बनाएँगे, तब तक पुल ढहते रहेंगे और उनके साथ हमारी उम्मीदें भी। अब समय है कि हम 'इन्फ्रास्ट्रक्चर' को केवल संख्या और लंबाई में नहीं, बल्कि गुणवत्ता, सुरक्षा और जवाबदेही के मानकों पर मापना शुरू करें। तभी विकास सही मायनों में स्थायी और संरक्षित होगा।
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