ग्रेटर गाजियाबाद: एकीकृत विकास की पहल या प्रशासनिक असंतुलन की शुरुआत?
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित ग्रेटर गाजियाबाद नगर निगम का गठन वर्तमान में बहस का विषय बना हुआ है। यह निर्णय जहाँ शहरी एकीकरण और बेहतर प्रशासनिक समन्वय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है, वहीं पूर्व विधायक बालेश्वर त्यागी सहित कई जनप्रतिनिधियों ने इसके विरुद्ध गंभीर प्रशासनिक और लोकतांत्रिक आशंकाएँ व्यक्त की हैं। यह संपादकीय इस प्रस्ताव का प्रशासनिक, सामाजिक, राजनीतिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण से संतुलित विश्लेषण करता है, और यह प्रश्न उठाता है कि क्या यह कदम वास्तव में क्षेत्र और लोकतंत्र के हित में है या फिर एक गहन पुनर्विचार की आवश्यकता है।

प्रशासनिक दृष्टिकोण: संतुलन बनाम समेकन की चुनौती
पूर्व विधायक बालेश्वर त्यागी का तर्क प्रशासनिक यथार्थ पर आधारित है। उनका मानना है कि गाजियाबाद, लोनी, मुरादनगर और खोड़ा जैसे क्षेत्रों की भौगोलिक दूरी, सांस्कृतिक विविधता, और आर्थिक विषमता को नज़रअंदाज कर एकीकृत नगर निगम बनाना, प्रशासनिक दक्षता को बाधित कर सकता है।
छोटी प्रशासनिक इकाइयाँ आमतौर पर स्थानीय समस्याओं के समाधान में अधिक चुस्त होती हैं। जब विभिन्न पृष्ठभूमियों वाले क्षेत्रों को एक साथ जोड़ दिया जाता है, तो प्रशासनिक नीतियों का एकरूप क्रियान्वयन कठिन हो जाता है। संसाधनों के असमान वितरण और निर्णयों में देरी जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न होती हैं, जिससे स्थानीय जनता में असंतोष जन्म ले सकता है।
विकास बनाम व्यवहारिकता: आकांक्षाएँ और वास्तविकताएँ
गाजियाबाद पहले से ही एक तेजी से बढ़ता हुआ महानगर है, जबकि खोड़ा, लोनी और मुरादनगर जैसे क्षेत्र अब भी बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं। सड़कें, जलापूर्ति, सीवरेज, कचरा प्रबंधन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ – इन क्षेत्रों में अब तक समुचित रूप से विकसित नहीं हो पाई हैं।
अगर इन क्षेत्रों को एक साथ जोड़कर ग्रेटर गाजियाबाद बनाया जाता है, तो संभावना है कि निगम की प्राथमिकताएँ बड़े और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली क्षेत्रों तक सीमित रह जाएँ। इससे विकास की विषमता और गहरी हो सकती है। साथ ही, यह भी डर है कि नया निगम आकार में तो बढ़ेगा, लेकिन उसके पास समस्त क्षेत्रों के अनुरूप कार्यनीतियाँ, बजट और क्रियान्वयन क्षमता नहीं होगी।
लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व: स्वर का विलयन?
लोकतंत्र की आत्मा है स्थानीय भागीदारी और प्रतिनिधित्व। बड़े निगमों में अक्सर यह देखा गया है कि छोटे वार्डों या ग्रामीण सन्निकट बस्तियों की आवाज़ें प्रमुख नीतिगत मंचों पर दब जाती हैं।
एकीकृत नगर निगम बनने से छोटे कस्बों और नगर पंचायतों का प्रशासनिक नियंत्रण और बजटीय निर्णयों में अधिकार कम हो सकता है। इससे लोकतांत्रिक असंतुलन पैदा होगा, जिसमें जनता अपने ही प्रतिनिधियों से दूरी महसूस करने लगेगी।
राजनीतिक प्रभाव: अवसर या अवरोध?
राजनीतिक दृष्टिकोण से यह निर्णय भाजपा के लिए दुधारी तलवार साबित हो सकता है। एक ओर शहरी विकास का वादा है, दूसरी ओर स्थानीय असंतोष की संभावना, जो चुनावों में वोटिंग पैटर्न पर निर्णायक प्रभाव डाल सकती है। विपक्ष इसे ‘जनविरोधी एकीकरण’ बताकर, भाजपा के खिलाफ स्थानीय राजनीतिक ध्रुवीकरण को हवा दे सकता है।
विशेष रूप से लोनी और खोड़ा जैसे क्षेत्रों में, जहाँ जातीय और धार्मिक समीकरण जटिल हैं, इस तरह के प्रशासनिक बदलाव को राजनीतिक पूंजी में बदलना विपक्ष के लिए आसान हो सकता है।
विकल्प और सुझाव: चरणबद्धता और परामर्श की आवश्यकता
इस प्रस्ताव के स्थान पर एक वैकल्पिक मॉडल अपनाना अधिक व्यवहारिक होगा:
पायलट ज़ोनल एकीकरण: पहले एक या दो क्षेत्रों को निगम में शामिल कर उनकी सेवा डिलीवरी की निगरानी की जाए।
स्थानीय निकायों की सशक्तता: प्रत्येक क्षेत्र में उप-महापौर या क्षेत्रीय बोर्ड की स्थापना की जाए, जिससे प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण बना रहे।
जनसुनवाई व कार्यशालाएँ: सभी क्षेत्रों में जनसंवाद आयोजित कर जनता की राय को दस्तावेजी स्वरूप में संकलित किया जाए।
भू-आधारित बजट आवंटन: निगम के बजट में प्रत्येक क्षेत्र को उसके आकार, जनसंख्या और आवश्यकताओं के आधार पर धन आवंटित किया जाए।
विचार का विषय या तात्कालिक निर्णय?
यह स्पष्ट है कि ग्रेटर गाजियाबाद का गठन एक दूरदर्शी सोच हो सकता है, लेकिन वर्तमान स्वरूप में इसकी क्रियान्वयन रणनीति अधूरी प्रतीत होती है।
प्रश्न यह है कि क्या यह एक ऐसा निर्णय है जो सभी हितधारकों के लिए समान रूप से लाभकारी होगा? या यह केवल शहरीकरण की एक दिखावटी परत है, जो स्थानीय स्वशासन और नागरिक सुविधा की नींव को कमजोर कर सकती है?
इसलिए, यह ज़रूरी है कि सरकार इस मुद्दे पर व्यापक जन-विमर्श करे, पुनर्विचार करे, और एक ऐसा रास्ता चुने जो न केवल भौगोलिक विस्तार बल्कि न्यायपूर्ण विकास और लोकतांत्रिक समावेशिता को भी सुनिश्चित करे।
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