सोशल मीडिया : बचपन की मासूमियत का चोर
सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव बच्चों के बचपन को छीन रहा है, उनकी मासूमियत और रचनात्मकता को दबाकर। यह सोशल मीडिया बच्चों को अपने डिजिटल जाल की गंभीर गिरफ्त में लेता जा रहा है। सोशल मीडिया की लत मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक रूप से बड़ा दुष्प्रभावी है।

बचपन वह कोमल पुष्प है जो हँसी, खेल और सपनों की बगिया में खिलता है। लेकिन आज यह बगिया सोशल मीडिया की कंटीली बाड़ से घिर रही है। स्मार्टफोन और इंटरनेट के इस युग में बच्चे अपनी मासूमियत खो रहे हैं, और उनकी जगह ले रही है एक ऐसी दुनिया जो लाइक्स, फॉलोअर्स और वर्चुअल पहचान की भूख से भरी है। सोशल मीडिया, जो एक समय मनोरंजन और जुड़ाव का साधन था, अब बच्चों के बचपन का सबसे बड़ा चोर बन चुका है।
सोशल मीडिया का बच्चों पर प्रभाव गहरा और बहुआयामी है। सबसे चिंताजनक है इसका उनके मानसिक स्वास्थ्य पर असर। लगातार स्क्रॉलिंग, ऑनलाइन तुलना और साइबरबुलिंग बच्चों में तनाव, चिंता और आत्मसम्मान की कमी को जन्म दे रहे हैं। एक हालिया अध्ययन के अनुसार, 8-14 वर्ष के बच्चे जो दिन में तीन घंटे से अधिक सोशल मीडिया पर समय बिताते हैं, उनमें अवसाद के लक्षण 60% तक अधिक देखे गए। इसके अलावा, सोशल मीडिया बच्चों को वास्तविक दुनिया से काट रहा है। दोस्तों के साथ खेलने, परिवार के साथ बातचीत करने या प्रकृति का आनंद लेने के बजाय, बच्चे स्क्रीन पर आभासी दुनिया में खोए रहते हैं, जिससे उनके सामाजिक और भावनात्मक विकास पर बुरा असर पड़ रहा है।
सोशल मीडिया की लत बच्चों की रचनात्मकता को भी कुंद कर रही है। छोटी-छोटी रील्स और तेजी से बदलता कंटेंट बच्चों की एकाग्रता को भंग कर रहा है। पढ़ाई, लेखन, या कला जैसी गतिविधियों में उनकी रुचि कम हो रही है, क्योंकि उनकी मानसिकता तुरंत संतुष्टि की मांग करने लगी है। शिक्षक अक्सर बताते हैं कि बच्चों का ध्यान कक्षा में कम और फोन पर ज्यादा रहता है। यह एक ऐसी पीढ़ी को जन्म दे रहा है जो तकनीक की गुलाम है, न कि उसका रचनात्मक उपयोग करने वाली।
इस संकट के लिए केवल बच्चों को जिम्मेदार ठहराना अनुचित है। माता-पिता, जो अक्सर व्यस्तता में बच्चों को गैजेट्स थमा देते हैं, और सोशल मीडिया कंपनियां, जो बच्चों को आकर्षित करने के लिए व्यसनकारी एल्गोरिदम डिजाइन करती हैं, भी उतने ही दोषी हैं। यह एक ऐसा जाल है जिसमें बच्चे अनजाने में फंस रहे हैं।
समाधान के लिए सामूहिक प्रयास जरूरी हैं। माता-पिता को बच्चों के स्क्रीन टाइम को नियंत्रित करना होगा और उनके साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना होगा। स्कूलों में डिजिटल साक्षरता और मानसिक स्वास्थ्य पर कार्यशालाएँ आयोजित की जानी चाहिए। सरकार को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर कड़े नियम लागू करने होंगे, जैसे बच्चों के लिए विज्ञापनों और व्यसनकारी कंटेंट को सीमित करना। साथ ही, बच्चों को तकनीक के सकारात्मक उपयोग के लिए प्रेरित करना होगा, ताकि वे इसे अपनी शिक्षा और रचनात्मकता के लिए इस्तेमाल करें।
बचपन की मासूमियत को बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है। हमें अपने बच्चों को वह आजादी देनी होगी जो वे स्क्रीन के बाहर, वास्तविक दुनिया में हँसी, खेल और सपनों के साथ जी सकें। आइए, सोशल मीडिया को उनके बचपन का चोर न बनने दें, बल्कि उसे एक ऐसा साधन बनाएँ जो उनकी प्रतिभा को उड़ान दे।
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