व्यंग्य का शतक और हरिशंकर परसाई : समाज का दर्पण, चेतना की मशाल

हरिशंकर परसाई की जन्मशती उनके अद्वितीय साहित्यिक योगदान और जनपक्षधर दृष्टि को याद करने का अवसर है। परसाई ने अपने व्यंग्य के माध्यम से राजनीति, धर्म, समाज और शिक्षा के पाखंड को बेनकाब किया तथा भ्रष्टाचार और अन्याय पर सीधा प्रहार किया। उनकी रचनाएँ आमजन के साथ खड़ी होती हैं और आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में थीं। यह लेख परसाई की शैली, सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों पर उनकी पकड़ और आज के संदर्भ में उनकी दृष्टि की ज़रूरत को रेखांकित करता है। परसाई केवल व्यंग्य-सम्राट नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना के तेजस्वी संवाहक हैं, जिनकी विचारधारा हमें वैचारिक ऊर्जा प्रदान करती है।

Aug 22, 2025 - 21:34
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व्यंग्य का शतक और हरिशंकर परसाई : समाज का दर्पण, चेतना की मशाल
परसाई जन्मशती पर विशेष

परसाई का शतक और साहित्य का ऋण

साहित्य जब केवल रस या मनोरंजन का माध्यम बन जाता है, तो उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। किंतु, जब वही साहित्य समाज की विडंबनाओं को उघाड़ता है, सत्ता की झूठी दीवारों को गिराता है और आमजन की पीड़ा को स्वर देता है, तब वह साहित्य इतिहास रचता है। हरिशंकर परसाई ऐसे ही साहित्यकार थे। उनकी जन्मशती के विशेष अवसर पर हमें यह समझना होगा कि हिंदी का यह अद्वितीय व्यंग्यकार दरअसल लोकतंत्र और सामाजिक चेतना का प्रहरी था। उन्होंने स्वयं लिखा था, “साहित्यकार समाज का इंजीनियर होता है। वह केवल इमारत नहीं बनाता, उस इमारत का नक्शा भी जनता को दिखाता है।

परसाई की शैली : चुटकी में गहरी चोट

परसाई के व्यंग्य में हँसी का रस है, किंतु वह हँसी मात्र गुदगुदाने के लिए नहीं। वह हँसी के बहाने सत्ता, समाज और व्यक्ति की अंतर्विरोधी प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं। वे नुकीले व्यंग्यकार हैं, परंतु उनकी कलम में करुणा की मिठास और संवेदना की ऊष्मा भी है। उनके लेख 'भोलाराम का जीव', 'सदाचार का ताबीज़', 'विकलांग श्रद्धा का दौर' या 'तब की बात और थी' सभी इस बात के प्रमाण हैं कि वे कितनी सहजता से सामान्य जीवन की विसंगतियों को साहित्य का केंद्र बनाते थे। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है, “व्यंग्यकार वह है, जो समाज को हँसाते-हँसाते रुला दे।

सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों की पकड़

परसाई ने राजनीति की उस छवि को बेनकाब किया जो आदर्शवाद की ओट में केवल स्वार्थ और सत्ता की भूख छिपाए रहती है। उन्होंने धर्म की उस शक्ल को उजागर किया जो श्रद्धा को विकलांग बनाकर पाखंड और व्यवसाय में बदल देती है। शिक्षा और साहित्य जगत पर भी उनकी दृष्टि उतनी ही पैनी थी, जहाँ विद्या का बाजार और बौद्धिक वर्चस्ववाद परसाई की आलोचना से बच नहीं पाया। उनका व्यंग्य हमें यह बताता है कि कोई भी व्यवस्था, चाहे वह राजनीति हो, धर्म हो या समाज, यदि अन्याय और भ्रष्टाचार को ढँकने लगे तो उसे सवालों के कटघरे में खड़ा करना लेखक का नैतिक दायित्व है। परसाई ने राजनीति और धर्म के गठजोड़ पर तीखा प्रहार किया। विकलांग श्रद्धा का दौरमें उन्होंने लिखा था, “हमारे देश में आदमी कम, भक्त ज़्यादा पैदा होते हैं। और भक्त की पहली निशानी है कि वह प्रश्न नहीं करता।यह पंक्ति आज भी हमें झकझोर देती है।

परसाई की पक्षधरता : आमजन के साथ

परसाई का व्यंग्य कभी ऊपर से उड़कर नहीं आता। वह जमीन पर खड़े होकर, आम आदमी की दृष्टि से उठाया गया प्रश्न है। उनकी कलम किसान, श्रमिक, दलित, महिला और उस पूरे वर्ग की आवाज़ थी जो व्यवस्था की भेंट चढ़ा दिया जाता है। उनके व्यंग्य में सत्ता का भय नहीं, जनता की पीड़ा का साहस है। यही कारण है कि उनका साहित्य आज भी पढ़ते हुए हमें लगता है मानो वे आज के हालात का ही बयान कर रहे हों। परसाई की दृष्टि सदैव आमजन की ओर रही। भोलाराम का जीवमें उन्होंने उस साधारण मनुष्य की विवशता का चित्र खींचा, जो व्यवस्था की गुत्थियों में फँसकर खो जाता है। उन्होंने कहा था, “व्यवस्था इतनी ताक़तवर है कि आदमी का शरीर जिन्दा रहता है, पर उसकी आत्मा मर जाती है।

आज की प्रासंगिकता : व्यंग्य का ज्वलंत महत्व

आज जब लोकतंत्र के मूल्य बाज़ारवाद और जातीय समीकरणों में सिकुड़ते जा रहे हैं, जब राजनीति नैतिकता के बजाय प्रबंधन और प्रचार की कला में सिमट रही है, जब धर्म और संस्कृति की आड़ में पाखंड और हिंसा फैल रही है, तब परसाई की दृष्टि हमें और अधिक जरूरी लगती है। उनके शब्द याद दिलाते हैं कि नागरिकता केवल मत देने का अधिकार नहीं, बल्कि अन्याय और असत्य पर प्रश्न उठाने की जिम्मेदारी भी है। परसाई का व्यंग्य हमें सच बोलने का, सच लिखने का और सच जीने का साहस देता है। आज जब लोकतंत्र में नैतिकता के बजाय प्रबंधन और प्रचार का बोलबाला है, तब परसाई की पंक्तियाँ और भी सार्थक हो उठती हैं, “राजनीति अब समस्याएँ हल करने की जगह समस्याएँ पैदा करने की कला बन गई है।यह टिप्पणी हमें बताती है कि व्यंग्य केवल समय का बयान नहीं, बल्कि समय से आगे देखने की दृष्टि भी है।

परसाई का शतक : हमारी जिम्मेदारी

हरिशंकर परसाई की जन्मशती केवल उनके व्यंग्य की जय-जयकार का अवसर नहीं, बल्कि आत्ममंथन का क्षण है। हमें सोचना होगा कि क्या हमने उनकी चेतावनियों को सुना? क्या हमने उनके बताए रास्ते पर चलकर साहित्य और समाज को ज्यादा साहसी बनाया? उन्होंने लिखा था, “लेखक का काम है अंधेरे में खड़ा होकर मशाल दिखाना। मशाल जलती रहे या बुझा दी जाए, यह बाद की बात है।यही वाक्य आज हमें अपने कर्तव्य की याद दिलाता है। आज जरूरत है परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाने की, अर्थात उस परंपरा को, जो सत्ता से टकराती है, जो पाखंड की परतें हटाती है और जो आमजन के पक्ष में खड़ी होती है।

व्यंग्यकार से बढ़कर चेतना-पुरुष

हरिशंकर परसाई केवल व्यंग्य-सम्राट नहीं थे। वे सामाजिक चेतना के तेजस्वी संवाहक, लोकतांत्रिक मूल्य के रक्षक और साहित्य के माध्यम से व्यवस्था को आईना दिखाने वाले अनूठे विचारक थे। उनकी जन्मशती पर यही संदेश गूँजना चाहिए कि यदि हमें सचमुच एक बेहतर समाज और सशक्त लोकतंत्र चाहिए, तो हमें परसाई की दृष्टि और उनके साहस को अपना मार्गदर्शन बनाना होगा।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I