नेता नहीं, अफसर जिम्मेदार? भारतीय ब्यूरोक्रेसी पर बड़ा सवाल
पूर्व IAS डॉ. राकेश वर्मा के नजरिए से जानिए, क्यों 70 साल की नाकामियों के लिए नेता जिम्मेदार नहीं, भारतीय नौकरशाह ही जिम्मेदार है। यह संपादकीय इसी सवाल के इर्द-गिर्द है। क्या वाकई भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में सबसे बड़ा ‘डीप स्टेट’ राजनीति नहीं, बल्कि वही नौकरशाही है जिसे संविधान ने जनता का सेवक बनाया था?
पूर्व आईएएस डॉ. राकेश वर्मा का कहना है, “हमें आज तक अपने करियर में कोई बुरा पॉलिटिशियन मिला ही नहीं… अगर 70 साल में इस देश में कुछ नहीं हुआ, तो सबसे ज्यादा दोष हिंदुस्तान के अधिकारियों का है।” उनकी यह स्वीकारोक्ति उस लोकप्रिय धारणा को उलट देती है जिसमें हर विफलता के लिए सिर्फ ‘नेता’ जिम्मेदार ठहराए जाते हैं, और ब्यूरोक्रेसी को ‘न्यूट्रल, प्रोफेशनल, मेरिट आधारित’ कहकर बचा लिया जाता है। यह संपादकीय इसी सवाल के इर्द-गिर्द है। क्या वाकई भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में सबसे बड़ा ‘डीप स्टेट’ राजनीति नहीं, बल्कि वही नौकरशाही है जिसे संविधान ने जनता का सेवक बनाया था?
भारतीय मध्यमवर्ग का एक तैयार जवाब होता है, “देश इसलिए नहीं चल रहा क्योंकि नेता चोर हैं।” डॉ. राकेश वर्मा, जो 25 साल तक सिस्टम के भीतर रहे, इस जवाब पर सीधा प्रहार करते हैं। वे कहते हैं, अपने पूरे करियर में उन्हें कोई ‘खराब पॉलिटिशियन’ नहीं मिला, असली बाधा हमेशा ब्यूरोक्रेसी रही, और 70–75 साल की नाकामियों का असली हिसाब अफसरों से पूछा जाना चाहिए, न कि केवल नेताओं से। यह बात सिर्फ किसी नाराज़ रिटायर्ड अफसर की निजी हताशा नहीं, बल्कि एक ऐसे अंदरूनी गवाह की गवाही है जो सत्ता, शासन और भ्रष्टाचार तीनों के केंद्र में रह चुका है।
‘नेता खराब हैं’ सबसे सुविधाजनक झूठ
डॉ. वर्मा बार-बार यह कहते हैं कि ‘नेता खराब हैं’ यह भारत का सबसे बड़ा झूठ है, और यह झूठ फैलाने में सबसे अधिक लाभ अधिकारियों को होता है। क्यों?
1. नेता का कार्यकाल 5–10 साल होता है; अफसर का टेन्योर 30–35 साल। यानी सिस्टम की लंबी स्मृति और स्थायी शक्ति नौकरशाही के पास है।
2. चेक पर साइन, बजट रिलीज, टेंडर क्लीयरेंस, सब्सिडी, विज्ञापन पैसा जारी करने की असली पावर फाइल पर बैठे अधिकारी के पास है, न कि विधायक की जेब में।
3. मीडिया का आर्थिक नाभि-नाल भी सूचना-विज्ञापन विभाग से जुड़ा है, और वह विभाग भी अफसर चलाते हैं। नतीजा मीडिया नेता को ‘खलनायक’ बनाकर TRP भी कमा लेता है और अफसर पर सवाल उठाने से बचकर अपने विज्ञापन भी सुरक्षित रखता है। इस तरह, जनता के गुस्से की पूरी आग ‘राजनेताओं’ पर डाली जाती है, और ब्यूरोक्रेसी पर्दे के पीछे से सिस्टम की असल दिशा तय करती रहती है।
‘पॉलिटिकल प्रेशर’ बहाने का दूसरा नाम?
राजनीतिक दखल को अक्सर अफसर अपनी नाकामी, टालमटोल और भ्रष्टाचार को जस्टिफाई करने के लिए ढाल बनाते हैं। डॉ. वर्मा इसके बिल्कुल उलट तजुर्बा रखते हैं उन्होंने बड़े-बड़े नेताओं (नरेश अग्रवाल, आज़म ख़ान आदि) के साथ काम किया, पर कहते हैं कि “पॉलिटिकल प्रेशर डालने वाले हमें कभी नेता नहीं, सिर्फ ब्यूरोक्रेट ही मिले।” उनके उदाहरण चुभते हैं- हरियाणा के दलित आईपीएस की आत्महत्या, सुसाइड नोट में नेताओं के नहीं, अधिकारियों के नाम, मीडिया पर लिखते ही पत्रकारों पर एफआईआर, और मुख्यमंत्री को भी बाद में पता चलना कि किसी फाइल या केस में क्या किया गया। यानी, ‘पॉलिटिकल इंटरफेरेंस’ का नारा कई बार वह नक़ाब है जिसके पीछे असली खेल अफसर करते रहते हैं, और सारी गालियाँ नेता खाते रहते हैं।
केजरीवाल, पढ़े-लिखे नेता और ‘फेल्योर की स्क्रिप्ट’ डॉ. वर्मा एक और कड़वी बात कहते हैं, आरएसएस ने ‘पढ़े-लिखे नेता’ पर एक प्रयोग किया – अरविंद केजरीवाल। उन्हें शुरू से ही इस तरह सेट किया गया कि उनका ‘फेल होना’ एक केस स्टडी बन जाए, ताकि यह संदेश जाए कि “देखा, पढ़े-लिखे लोग अच्छे नेता नहीं बन सकते।” इसके साथ वे दो और बातें जोड़ते हैं-
1. पढ़े-लिखे लोग पॉलिटिक्स में आने से डरते हैं प्राइवेसी खत्म, 24×7 पब्लिक कॉल्स, परिवार और निजी जीवन पर भारी बोझ।
2. जो अफसर/एलीट पॉलिटिक्स में आ भी सकते हैं, वे मेहनत, जमीन से कनेक्ट और लगातार सार्वजनिक उपलब्धता के लिए तैयार नहीं, और ब्यूरोक्रेसी यह सुनिश्चित करती है कि शिक्षित, स्वतंत्र सोच वाले लोग राजनीति में टिक न पाएँ। इससे राजनीति की सोच की गुणवत्ता जानबूझ कर कम रखी जाती है, ताकि असली नियंत्रण फाइलों पर बैठे ‘स्थायी सरकार’ यानी नौकरशाही के हाथ में ही रहे।
अकाउंटेबिलिटी: संपत्ति नहीं, खर्च और जीवनशैली पर सवाल
भ्रष्टाचार पर डॉ. वर्मा का प्रस्ताव सीधा और व्यावहारिक है, “एसेट्स की डिक्लेरेशन से ज्यादा ज़रूरी खर्च की डिक्लेरेशन है।” वे चुभने वाले सवाल पूछते हैं, 1 करोड़ प्रति वर्ष की लागत वाले विदेशी शिक्षण संस्थानों में दो-दो बच्चों को पढ़ाने वाले अफसर, महंगी निजी विदेश यात्राएँ, बिज़नेस क्लास उड़ानें, यह सब 1.5–2 लाख की सैलरी से कैसे ‘कन्विंसिंगली’ संभव है? प्रॉपर्टी रिटर्न में ‘फ़्लैट/प्लॉट’ दिखाकर नैतिकता हासिल नहीं हो जाती। अगर सिर्फ एयर-ट्रेवल, विदेशी शिक्षा, लक्ज़री खर्च और लाइफस्टाइल को आय के साथ क्रॉस-मिलान कर दिया जाए, तो आधे से ज्यादा ‘क्लीम’ ईमानदार अफसर तुरंत कटघरे में खड़े हो सकते हैं। लेकिन सवाल यही है, कौन करेगा यह जाँच? जब जाँच एजेंसियाँ, विजिलेंस, लोकपाल और चयन निकाय (जैसे UPSC) तक जवाबदेही से बचते हों, तो भ्रष्टाचार एक ‘सामाजिक रूप से स्वीकृत’ सच बन जाता है, जहाँ चुटकुले चलते हैं कि “करप्ट वो नहीं जिसे मौका नहीं मिला”।
गवर्नेंस: फ्लो बनाम हिंडरेंस
एक बेहद ज़मीनी उदाहरण, लखनऊ में पुलिस कमिश्नरेट लागू होने के बाद अत्यधिक रोड ब्लॉक, यू-टर्न, बैरिकेड और ‘रोकने’ की मानसिकता पर वे सवाल उठाते हैं। उनके अनुसार, गवर्नेंस का काम बाधा (हिंडरेंस) नहीं, फ्लो क्रिएट करना है। भीड़ बढ़े तो रास्ते खोलने चाहिए, न कि स्टैम्पीड पैदा कर देने वाली बंदिशें। यही ‘हिंडरेंस मानसिकता’ ट्रैफिक से शुरू होकर लाइसेंस, टेंडर, परमिशन, फाइल-नोटिंग, हर स्तर पर ‘रुकावट आधारित शासन’ में बदल जाती है। यानी, जो सिस्टम नागरिक के लिए रास्ता साफ़ करने के लिए बना था, वही रास्ता रोकने में अपनी ताकत महसूस करने लगा है।
धर्म, जाति और नेशन बिल्डिंग की प्राथमिकता
डॉ. वर्मा धर्म और जाति को निजी क्षेत्र में रखने की बात कहते हैं, इंसान का धर्म/जाति उसकी व्यक्तिगत पहचान है, पर नेशन बिल्डिंग और इंस्टिट्यूशनल फैसलों में इनका ‘सिस्टमेटिक एजेंडा’ बन जाना घातक है। वे मानते हैं कि आज के भारत में मुस्लिम समुदाय के प्रति नकारात्मक भावनाएँ वास्तविक हैं, ये भावनाएँ एक लंबे ‘अपिज़मेंट–रिएक्शन’ चक्र से पैदा हुई हैं, लेकिन किसी भी समुदाय के खिलाफ स्थायी नफ़रत न लोकतंत्र के हित में है, न सामाजिक शांति के। उनके अनुसार, अगर देश को आगे बढ़ना है, तो रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल (skill) और टेक्नॉलॉजी इन बुनियादी मुद्दों को धर्म, जाति, क्रिकेट और बॉलीवुड से ऊपर रखना ही होगा। और एआई के दौर की एक जरूरी चेतावनी भविष्य की सबसे बड़ी मौद्रिक ताकत स्किल होगी, और एआई के दौर में ‘नेचुरल इंटेलिजेंस’ और ह्यूमन केयर (नर्सिंग, सर्विस सेक्टर, क्राफ्ट/स्किल बेस्ड जॉब्स) की कीमत कहीं ज्यादा बढ़ेगी, अगर हम आज भी धर्म–जाति के उथले मैदान में फँसे रहे, तो इंडिया चौथी औद्योगिक क्रांति की रेस में बेंच पर बैठा रह जाएगा।
मायावती एक केस स्टडी: नेता कैसे ‘ब्यूरोक्रेटिक ट्रैप’ में फँसते हैं
बसपा की हाल की रैली के संदर्भ में डॉ. वर्मा मायावती को एक क्लासिकल केस कहते हैं, कभी वे कठोर पर न्यायपूर्ण लॉ एँ ड ऑर्डर की मिसाल थीं, लेकिन ब्यूरोक्रेसी ने उन्हें ‘प्रधानमंत्री बनने के सपने’ दिखाए, राज्य से ध्यान हटाकर दिल्ली की कुर्सी की ओर धकेला, पार्टी के लिए ‘पैसा जोड़ने’ का नैरेटिव तैयार किया, और इसी रास्ते पर चलते-चलते पार्टी और नेतृत्व दोनों की वैचारिक-साख और राजनीतिक पूंजी क्षीण होती गई। यह सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि वह पैटर्न है जिसके तहत हर मुख्यमंत्री को उसके “स्वजाती अफसरों और गुंडों की जोड़ी” पाँच साल में इस कदर बदनाम कर देती है कि सत्ता हाथ से फिसल जाती है।
असली सवाल “कौन शासन कर रहा है?”
डॉ. राकेश वर्मा की बातचीत हमें मजबूर करती है कि कुछ असहज सवालों का सामना करें: क्या हम सिर्फ नेताओं को गाली देकर ही हल्का हो जाना चाहते हैं, जबकि सिस्टम की सबसे बड़ी स्थायी शक्ति ब्यूरोक्रेसी हमारी राजनीतिक जवाबदेही से लगभग मुक्त है? क्या मीडिया, न्यायपालिका, लोकपाल और चयन संस्थान सरकारी विज्ञापन, पद, प्रतिष्ठा और नेटवर्क के बदले नौकरशाही पर सिस्टमैटिक सवाल उठाने से बच रहे हैं?
क्या हमने ‘लोकतंत्र’ को सिर्फ चुनावी सरकार तक सीमित कर दिया है, और फाइलों के बीच पलते ‘ईगो सिस्टम’ को अछूता छोड़ दिया है? अगर जवाब ‘हाँ’ की तरफ झुकता है, तो हमें यह मानना होगा कि लोकतंत्र की लड़ाई सिर्फ बुरे नेताओं के खिलाफ नहीं, बल्कि उस अदृश्य, स्थायी सत्ता के खिलाफ भी है जो जनता के नाम पर जनता से कटकर, उसके संसाधन, सपने और भविष्य तीनों पर अपना अधिकार समझती है।
राजनीति को गाली देना आसान है, ब्यूरोक्रेसी से जवाब मांगना कठिन। लेकिन अगर 75 साल की नाकामियों का ईमानदार ऑडिट करना है, तो हमें यह कठिन काम करना ही होगा, इसी में लोकतंत्र की असली ईमानदारी छिपी है।
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