मोहन राकेश जन्मशती समारोह- विचार, विरासत और विचारधाराओं का रंगमंच
भारतीय भाषा परिषद और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा आयोजित 'मोहन राकेश जन्मशती समारोह' में नाटक, विचार, संवाद और संवेदना की बहुआयामी अभिव्यक्ति देखने को मिली। 'आधुनिकतावादी आंदोलन और मोहन राकेश के नाटक' विषय पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी में राकेश के नाटकों को सामाजिक आलोचना, मानसिक द्वंद्व और आधुनिकता के प्रतीक के रूप में व्याख्यायित किया गया। साथ ही रंगमंचीय प्रस्तुति, कविता कोलाज और सांस्कृतिक उत्सवों के माध्यम से मोहन राकेश की रचनात्मक विरासत को नई पीढ़ी से जोड़ा गया।

भारतीय आधुनिक नाटक के पुरोधा मोहन राकेश की जन्मशती के उपलक्ष्य में भारतीय भाषा परिषद और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा आयोजित संगोष्ठी में ‘आधुनिकतावादी आंदोलन और मोहन राकेश के नाटक’ विषय को केंद्र में रखकर एक बहुस्तरीय बौद्धिक और संवेदनात्मक विमर्श देखने को मिला।
विश्वभारती के प्रो. मृत्युंजय प्रभाकर ने कहा कि मोहन राकेश के नाटकों को केवल 'घरेलू कथाओं' के रूप में पढ़ने के बजाय उसमें आधुनिकतावादी प्रतिमानों को लागू करने की आवश्यकता बताई। उन्होंने मोनोलॉग शैली, मंचीय सादगी और पात्रों की भीतरी पीड़ा को विश्लेषित किया।
रंगकर्मी अनीश अंकुर ने ‘आषाढ़ का एक दिन’ को हिंदी रंगमंच की पुनर्रचना का आधार बताया। उन्होंने मोहन राकेश के नाटकों में शब्द नहीं, संवेदना और प्रतीकों के संवाद को प्रमुख माना। मोहन राकेश की कृतियों में मध्यवर्गीय असंतोष को सामाजिक आलोचना से जोड़ने के प्रयास को रेखांकित किया। उन्हें 'आधुनिकता और प्रगतिशीलता के संगम' का नाटककार घोषित किया।
सुपरिचित कथाकार-आलोचक डॉ. वैभव सिंह ने आधुनिकता को यूरोपीय बनाम भारतीय संदर्भों में समझने की अपील की। उन्होंने मोहन राकेश की नाट्य संरचना में मध्यवर्गीय विघटन, मानसिक द्वंद्व, पलायन और आत्मसंघर्ष को आधुनिकता के लक्षण के रूप में प्रस्तुत किया।
लेखक मृत्युंजय श्रीवास्तव ने मोहन राकेश के कोलकाता से संपर्क के बिंदुओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मोहन राकेश 60 के दशक में कोलकाता से गहरे रूप में जुड़े थे। उन्होंने श्यामानंद जालान और प्रतिभा अग्रवाल से मिलकर इस महानगर में हिंदी रंगमंच में एक मोड़ ला दिया था। उन्होंने आगे कहा कि मोहन राकेश ’नए थियेटर’ आंदोलन से जुड़े एक महान नाटककार थे।
अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ. शंभुनाथ ने आलोचना में समावेशिता और समरसता की बात करते हुए, भारत की बौद्धिक परंपरा में सहिष्णुता के क्षरण और नागरिक बोध के लोप पर चिंता जताई। उन्होंने विचारों के सहअस्तित्व और संवाद की आवश्यकता को तुलसी, कबीर, विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, प्रेमचंद-जैनेंद्र संवाद से जोड़ा।
प्रारंभ में प्रो. संजय जायसवाल ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि मोहन राकेश विद्यार्थियों के प्रिय नाटककार हैं। उन्होंने संस्कृति उत्सव को युवा पीढ़ी में कला, संगीत, नाटक और साहित्य के प्रति जागरूकता पैदा करने वाला उत्सव कहा। अतिथियों को आशीष झुनझुनवाला ने सम्मानित किया।
डॉ. शुभ्रा उपाध्याय ने प्रथम सत्र के राष्ट्रीय संगोष्ठी का मंच संचालन कर पूरे कार्यक्रम को संवेदनशील, संयम और संतुलित संवाद से जोड़ा। डॉ. प्रीति सिंघी ने धन्यवाद ज्ञापन देते हुए कहा कि यह आयोजन “श्रद्धांजलि नहीं, संवाद का एक नया प्रवेश द्वार” था।
संस्कृति उत्सव के संवाद सत्र में वैभव सिंह से संवाद करते हुए डा. शंभुनाथ ने कहा कि ज्ञान के ह्रास से संवेदना का ह्रास हो जाता है और शत्रुताएँ निर्मित होती हैं, जबकि साहित्य शत्रुताओं का नहीं बौद्धिक सहृदयता और मानवता का संसार है।
शोध संवाद सत्र में डॉ. सुनंदा रायचौधुरी की अध्यक्षता में प्रियंका सिंह (लोरेटो कॉलेज), नीलोफर बेगम (विश्व भारती, शान्तिनिकेतन), अनूप गुप्ता (आर.बी.सी. सांध्य महाविद्यालय), सपना खरवार (बीएसएई विश्वविद्यालय), रेशमी सेनशर्मा (सेंट जेवियर्स) ने मोहन राकेश के नाटकों पर आलेख पाठ प्रस्तुत किया। इस सत्र का संचालन कलावती कुमारी ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन राहुल गौड़ ने दिया।
इस आयोजन की संगीतमय ऊँचाई उस क्षण पहुँची जब शान्तिनिकेतन से पधारे प्रसिद्ध लोकगायक आनंदवर्द्धन ने काव्य संगीत की प्रस्तुति दी। उन्होंने न सिर्फ स्वर और ताल में कविताओं को पिरोया, बल्कि उनके माध्यम से श्रोताओं को आत्मा के भीतर झाँकने का अवसर भी दिया।
समारोह के दौरान जब मंच पर अग्निमिता दास और बाद में नंदिनी सिंह ने प्रवेश किया, तो सभागार में एक सौम्य सांगीतिक-नाटकीय तरंग फैल गई। उन्होंने अपनी नृत्य प्रस्तुति के माध्यम से कविता को गति और गहराई दी। यह प्रस्तुति केवल शरीर की चेष्टा नहीं थी, बल्कि एक भावनात्मक अनुवाद था-जहाँ गीत, नृत्य की मुद्राओं में बदलते गए। दोनों नृत्यांगनाओं ने पारंपरिक शैली की बुनावट में आधुनिक संवेदना को पिरोते हुए अंग-संचालन, नेत्र-अभिनय और ताल-लय के माध्यम से नाटकीय अनुभूतियों को मूर्त रूप दिया।
संस्कृति नाट्य मंच द्वारा डॉ. इबरार ख़ान के निर्देशन में मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पर आधारित नाटक का मंचन हुआ। इसमें डॉ. मधु सिंह, विशाल कुमार साव, राहुल गौड़, सूर्य देव रॉय, शिखा सिंह, अंजलि यादव, सरफराज ख़ान, आदित्य तिवारी, प्रभाकर साव, मधु साव, अरबाज ख़ान, अनुश्री साव और संजना जायसवाल ने अभिनय किया।
डॉ. शंभुनाथ के काव्य संग्रह ‘ईश्वर का दुख’ से चयनित कविताओं पर तीन कविता कोलाज की प्रस्तुति हुई।
इसमें डॉ. इतु सिंह, डॉ. गीता दूबे, रेखा शॉ, शिप्रा मिश्रा, प्रणति ठाकुर, रेखा शॉ, सुमिता गुप्ता, नमिता जैन, पंकज सिंह, कामना दीक्षित, सिपाली गुप्ता, राहुल गौड़, ज्योति गौड़, एकता हेला, पूजा गुप्ता, रूपल साव, गायत्री वाल्मीकि, रिया श्रीवास्तव, ज्योति चौरसिया, टीना परवीन, अदिति दूबे, सुषमा कुमारी, प्रगति दूबे, कंचन भगत, अनुराधा भगत, स्वीटी महतो, शिल्पी गुप्ता, अनुपमा वर्मा, प्रतिभा साव और अपराजिता वाल्मीकि ने हिस्सा लिया।
कार्यक्रम का सफल संचालन संजय जायसवाल और धन्यवाद ज्ञापन सुरेश शॉ ने किया। आशीर्वचन देते हुए मिशन के संरक्षक रामनिवास द्विवेदी ने शंभुनाथ जी की कविताओं पर आधारित कोलाज एवं मोहन राकेश की कहानी पर नाटक को प्रभावी बताया। कार्यक्रम के सफल संचालन में संजय दास, राजेश साव, असित पाण्डेय, अमरजीत पंडित, लिली साह, विकास जायसवाल, रूपेश यादव, अनिल साह, चंदन यादव, लक्खी चौधरी एवं मिशन के संस्कृतिकर्मियों ने विशेष सहयोग दिया। इस अवसर पर प्रो. मंजुरानी सिंह, महेश जायसवाल, शिवनाथ पाण्डेय, राज्यवर्धन, सेराज ख़ान बातिश, यशवंत सिंह, अजय राय, विनोद यादव (मास्टर जी), प्रदीप धानुक, अर्जुन ठाकुर, प्रमोद महतो सहित बड़ी संख्या में साहित्य और संस्कृति प्रेमी उपस्थित थे।
इस संगोष्ठी ने दिखाया कि मोहन राकेश केवल एक नाटककार नहीं थे, बल्कि वे आधुनिक भारतीय मानस के द्वंद्व, स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता, आत्मसंघर्ष और सामाजिक विघटन को मंच पर उतारने वाले सांस्कृतिक दार्शनिक भी थे।
यह आयोजन हिंदी नाट्य परंपरा और आधुनिकतावादी विमर्श को एक साथ जोड़ता है। इस आयोजन में मोहन राकेश का जन्मशती केवल एक पुण्यस्मृति नहीं, रचनात्मक आत्ममंथन और बौद्धिक प्रतिरोध का घोषवाक्य बनकर सामने आया।
इस आयोजन में डॉ. शंभुनाथ के 77वें जन्मदिवस को एक ‘साहित्यिक प्रेरणा पर्व’ के रूप में स्मरण किया गया।
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