ईरान-इज़राइल युद्ध: पश्चिम एशिया से वैश्विक सत्ता-संतुलन तक की दहलीज़ पर
ईरान और इज़राइल के बीच जारी टकराव अब पश्चिम एशिया की सीमा से निकलकर वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित कर रहा है। 2024 के अंत में शुरू हुआ यह संघर्ष सैन्य, वैचारिक और कूटनीतिक स्तर पर गहराता गया, जिसमें अमेरिका, रूस, चीन और संयुक्त राष्ट्र जैसी ताकतों की प्रतिक्रियाएँ निर्णायक रूप से सामने आईं।

2024 के अंत और 2025 की शुरुआत में पश्चिम एशिया के दो प्रमुख राष्ट्रों, ईरान और इज़राइल के बीच जो सशस्त्र टकराव सामने आया, उसने न केवल क्षेत्रीय स्थिरता को चुनौती दी है, बल्कि वैश्विक भू-राजनीतिक संतुलन को भी अस्थिर कर दिया है। यह संघर्ष सिर्फ सैन्य शक्ति के परीक्षण तक सीमित नहीं, बल्कि यह धार्मिक, वैचारिक, रणनीतिक और कूटनीतिक मोर्चों पर फैला हुआ है। इस लेख में हम इस युद्ध के मूल कारणों, स्वरूप, प्रभाव और उसमें वैश्विक शक्तियों की भूमिका का विश्लेषण करेंगे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वर्तमान टकराव की जड़ें: ईरान और इज़राइल के बीच संबंध सदैव कटु रहे हैं। 1979 की ईरानी इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान ने इज़राइल को 'ज़ायोनी दुश्मन' घोषित किया। वहीं इज़राइल, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को एक अस्तित्वगत खतरे के रूप में देखता रहा है।
2024 में जब इज़राइल ने सीरिया स्थित ईरानी दूतावास पर मिसाइल हमला किया, तो ईरान ने पहली बार सीधे इज़राइल की राजधानी और सैन्य अड्डों को निशाना बनाया। यह पहला अवसर था जब दोनों देशों के बीच प्रत्यक्ष युद्ध स्तर की जवाबी कार्रवाई हुई। यह हमला इस्लामिक क्रांति गार्ड कोर (IRGC) के एक शीर्ष जनरल की मृत्यु के बाद हुआ, जिसने ईरान के भीतर युद्धोन्मुख राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काया।
युद्ध का स्वरूप: सीमित युद्ध या व्यापक संघर्ष? हालांकि अभी तक इस टकराव को पूर्ण 'युद्ध' नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसमें प्रयोग की गई सैन्य रणनीतियाँ, ड्रोन हमले, मिसाइल सिस्टम और साइबर अटैक इसे "हाई इंटेंसिटी कॉन्फ्लिक्ट" की श्रेणी में रखते हैं।
· इज़राइल की 'आयरन डोम' रक्षा प्रणाली सक्रिय हो चुकी है।
· ईरान ने क्रूज़ मिसाइलों और स्वदेशी ड्रोन का प्रयोग किया।
· लेबनान के हिज़बुल्ला और यमन के हौथी गुटों ने भी ईरान की ओर से मोर्चा खोला।
· साइबर युद्ध के अंतर्गत दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के ऊर्जा तंत्र, बैंकिंग सिस्टम और रक्षा नेटवर्क को निशाना बनाया।
वैश्विक शक्तियाँ और हस्तक्षेप की बदलती रणनीति:
अमेरिका: इज़राइल का पुराना सहयोगी अमेरिका इस संघर्ष में खुलकर इज़राइल के पक्ष में खड़ा है। उसने न केवल अतिरिक्त सैन्य सहायता भेजी, बल्कि खाड़ी क्षेत्र में अपने सैन्य ठिकानों की तैयारियाँ भी तेज़ कर दीं। अमेरिका का उद्देश्य है कि वह पश्चिम एशिया में ईरान को नियंत्रित कर सके, ताकि चीन और रूस को रणनीतिक लाभ न मिले। इसके साथ ही अमेरिका ने यूएन और G7 देशों के साथ मिलकर ईरान पर नए प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव भी रखा है।
रूस: यूक्रेन युद्ध में व्यस्त रूस ने ईरान के साथ सार्वजनिक समर्थन नहीं किया, लेकिन सीरिया में उसकी सैन्य मौजूदगी और ईरान से सामरिक सहयोग को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। रूस की रणनीति पश्चिमी गुट को कई मोर्चों पर उलझाए रखने की है। वह इस क्षेत्र में अपनी भू-रणनीतिक पकड़ बनाए रखने हेतु दोनों पक्षों से संपर्क बनाए हुए है।
चीन: चीन ने फिलहाल तटस्थ रुख अपनाया है, लेकिन उसका मकसद पश्चिम एशिया में अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देना है। चीन 2023 में सऊदी-ईरान समझौते का मध्यस्थ रहा है, जिससे उसकी साख इस क्षेत्र में बढ़ी है। चीन ने हाल ही में ईरान और इज़राइल दोनों को बीजिंग में वार्ता के लिए आमंत्रित किया, जो फिलहाल अनिर्णायक रही।
संयुक्त राष्ट्र: UN सुरक्षा परिषद में अभी तक कोई निर्णायक प्रस्ताव नहीं पारित हो पाया है। वीटो शक्तियों की असहमति इस प्रक्रिया को बाधित कर रही है। महासचिव ने 'मानवता की पुकार' नामक पहल शुरू की है, जिसमें युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में युद्धविराम और मानवीय सहायता पहुँचाने की अपील की गई है। मानवीय संकट और वैश्विक प्रतिक्रिया:
· अब तक हजारों नागरिक मारे जा चुके हैं और लाखों विस्थापित हुए हैं।
· तेल, गैस और खाद्य आपूर्ति पर गहरा असर पड़ा है, जिससे वैश्विक मंदी की आशंका गहराई है।
· अंतरराष्ट्रीय NGO और रेड क्रॉस जैसे संगठन राहत प्रयासों में लगे हैं, लेकिन सुरक्षा की कमी के कारण उन्हें भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
· शरणार्थी संकट बढ़ने के कारण यूरोप और मध्य एशिया के देशों में राजनीतिक असंतोष उभरने लगा है।
भारत की भूमिका: रणनीतिक संतुलन का मार्ग: भारत ने अब तक एक संतुलित रुख अपनाया है। दोनों देशों से संयम की अपील करते हुए भारत ने अपने नागरिकों की सुरक्षित वापसी हेतु 'ऑपरेशन सहयोग-2' आरंभ किया है। भारत के लिए यह संकट एक चुनौती भी है और अवसर भी:
· चुनौती: ऊर्जा आपूर्ति, भारतीय नागरिकों की सुरक्षा, और व्यापार पर प्रभाव।
· अवसर: मध्यस्थता की भूमिका, वैश्विक मंच पर रणनीतिक प्रतिष्ठा में वृद्धि।
· भारत ने तटस्थता के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र में शांति स्थापना प्रस्तावों में सह-प्रस्तावक की भूमिका निभाई है।
· भारत ने शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और ब्रिक्स मंचों पर भी शांति वार्ता को समर्थन दिया है।
संभावित समाधान और आगे की राह:
· बैक चैनल डिप्लोमेसी और क्षेत्रीय शक्तियों की मध्यस्थता (जैसे ओमान, कतर, भारत)।
· युद्धविराम के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव और मानवीय आपील।
· ईरान और इज़राइल दोनों के लिए घरेलू राजनीतिक संकट भी शांति की दिशा में बाध्य कर सकते हैं।
· एक बहुपक्षीय वार्ता मंच की स्थापना, जिसमें प्रभावित क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियाँ भाग लें।
ईरान-इज़राइल युद्ध केवल सैन्य संघर्ष नहीं, बल्कि वैश्विक राजनीति के नए समीकरणों का संकेत है। यह युद्ध दुनिया को यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं अब प्रभावी रह गई हैं? और क्या वैश्विक हस्तक्षेप केवल हितों तक सीमित रह गया है?
भारत जैसे विकासशील और संतुलनकारी देश के लिए यह क्षण निर्णायक है, उसे शांति के प्रयासों में अपनी भूमिका को न केवल निभाना होगा, बल्कि वैश्विक नेतृत्व की ओर कदम भी बढ़ाने होंगे। यह युद्ध एक चेतावनी है कि यदि संघर्ष के समाधान में सामूहिक नैतिकता, कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो एक क्षेत्रीय युद्ध वैश्विक विनाश में बदल सकता है।
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