कुरुक्षेत्र में सुदर्शनधारी श्रीकृष्ण: धर्मयुद्ध में राजनीति
महाभारत केवल एक ऐतिहासिक युद्धगाथा नहीं, अपितु भारत की चिरंतन आत्मा का दर्शन है। इसके केंद्र में जो दिव्य सत्ता खड़ी है, वह हैं योगेश्वर श्रीकृष्ण जो एक सारथी प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तव में पूरे युद्धरंगमंच के निर्देशक, नीति के निर्माता, और धर्म के उद्घोषक हैं।

धर्म और राजनीति के मध्य खड़ा एक देवपुरुष
महाभारत केवल एक ऐतिहासिक युद्धगाथा नहीं, अपितु भारत की चिरंतन आत्मा का दर्शन है। इसके केंद्र में जो दिव्य सत्ता खड़ी है, वह हैं योगेश्वर श्रीकृष्ण जो एक सारथी प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तव में पूरे युद्धरंगमंच के निर्देशक, नीति के निर्माता, और धर्म के उद्घोषक हैं। उनका सुदर्शन चक्र जहाँ एक ओर शक्ति और नियंत्रण का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक न्याय और सार्वभौमिक संतुलन का प्रतीक भी है।
सुदर्शन चक्र: राजनीतिक और आध्यात्मिक सत्ता का प्रतीक
सुदर्शन चक्र, जो श्रीकृष्ण को परशुराम से प्राप्त हुआ, केवल एक युद्धास्त्र नहीं था। वह एक चक्र था जो समय, सत्य और सत्ता का चक्र बन गया। इसे हाथ में धारण करना उस संकल्प का प्रतीक था कि जब अधर्म चरम पर होगा, तब धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए सत्ता का प्रयोग किया जाएगा।
राजनीतिक दृष्टि से, यह चक्र श्रीकृष्ण की उस सत्ता का संकेत है जो उन्होंने स्वयं नहीं चाही, किंतु समय और धर्म के आग्रह पर ग्रहण की। आध्यात्मिक रूप में यह ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ का वह आरंभ है, जिसकी पूर्णता आगे चलकर भगवान बुद्ध में होती है। सुदर्शन चक्र की यह प्रतीकात्मकता बताती है कि शक्ति जब तक न्याय से संयोजित नहीं होती, वह केवल विनाश का कारण बनती है।
श्रीकृष्ण की राजनीतिक रणनीति: नैतिकता की भूमि पर कूटनीति
कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण की भूमिका एक योद्धा की नहीं, अपितु एक रणनीतिकार की थी। उन्होंने स्वयं शस्त्र न उठाने का संकल्प लिया, परंतु युद्ध की निर्णायक दिशा उनके ही नीतिगत हस्तक्षेपों से निर्धारित हुई।
भीष्म, द्रोण और कर्ण जैसे महारथियों को युद्धभूमि से हटाने की रणनीतियाँ केवल शत्रुबल कमजोर करने के उपाय नहीं थे, बल्कि वे इस बात का संकेत थीं कि नैतिकता की अस्पष्टता जब युद्ध में प्रवेश करती है, तो धर्म को भी रणनीति बनानी पड़ती है।
अर्जुन का मोहभंग हो या युधिष्ठिर का सत्य की सीमा पर पहुँचना हर मोड़ पर श्रीकृष्ण की भूमिका एक राजनीतिक गुरु की रही, जो अधर्म से जूझने के लिए धर्म की नीतियों को लोचदार बनाता है, किंतु मूल्यों को नहीं छोड़ता।
धर्मयुद्ध के माध्यम से सामाजिक पुनर्रचना
श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध को केवल कौरवों और पांडवों की प्रतिस्पर्धा तक सीमित नहीं रखा। यह युद्ध उनके लिए भारतीय समाज की उस व्यवस्था को झकझोरने का माध्यम था जिसमें जाति, कुल, वंश और बाह्य नैतिकता के नाम पर अन्याय संस्थागत हो गया था।
शरीरधारी धर्म के रूप में श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट किया कि धर्म कोई जड़ प्रणाली नहीं, वह चेतना है, जो समय के अनुरूप अपने स्वरूप को बदलती है।
द्रौपदी का चीरहरण हो, एकलव्य का अँगूठा, कर्ण की जन्मगाथा हो या द्रोण की पक्षपातपूर्ण गुरुकुल-नीति इन सबके विरुद्ध यह युद्ध एक सामाजिक पुनर्जागरण था।
कुरुक्षेत्र का चयन: युद्ध नहीं, विमर्श की भूमि
कुरुक्षेत्र केवल एक युद्धभूमि नहीं थी। वह 'धर्मक्षेत्र' थी, जहाँ मनुष्य की अंतरात्मा का युद्ध उसके बाह्य आचरण से हुआ। श्रीकृष्ण ने इसे युद्ध के लिए इसलिए चुना, क्योंकि यह भूमि केवल तलवार की नहीं, विचार की थी। यह वह स्थल था जहाँ ऋषियों ने वेदों की ऋचाएँ रचीं, जहाँ यज्ञों में देवताओं का आवाहन हुआ और जहाँ सदियों से धर्म का बीज रोपा जाता रहा। इसे युद्ध के लिए चुनना इस बात का संकेत था कि जब विचार, नीति और धर्म कुंठित हो जाएँ, तब संघर्ष भी उसी भूमि पर होना चाहिए जहाँ से उनका मूल प्रेरणास्रोत है।
युद्धोत्तर भारत: नए राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों का जन्म
महाभारत के युद्ध के बाद भारत केवल शासकों में परिवर्तित नहीं हुआ; राजनीति का चरित्र बदल गया।
राजा वही जो धर्म के अनुरूप शासन करे, यह आदर्श स्थापित हुआ।
शक्ति का केंद्रीकरण व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक नैतिकताओं के अधीन हुआ।
वर्ण और कुल आधारित श्रेष्ठता को चुनौती मिली।
नारियों की सामाजिक स्थिति पर चिंतन प्रारंभ हुआ, भले समाधान तुरंत न मिले।
श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद भले ही द्वारका जलमग्न हो गई, परंतु उनके विचार, उनकी नीतियाँ, और उनका सुदर्शन चक्र भारतीय चेतना में चिरकाल तक घूमता रहा।
सुदर्शनधारी श्रीकृष्ण: न्याय का चक्रवर्ती
कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण की भूमिका किसी राजा की नहीं थी, न ही केवल भगवान की। वे धर्म और राजनीति के उस संगम के प्रतीक थे, जहाँ शक्ति नैतिकता के अधीन होती है, और नीति धर्म के अनुकूल। उनका सुदर्शन चक्र केवल घूर्णनशील अस्त्र नहीं, वह चक्र था जो भारतीय राजनीति को धर्म, न्याय और मानवीय मूल्यों के केंद्र में ले आया।
इसलिए, महाभारत का युद्ध आज भी हमारे विमर्शों का कुरुक्षेत्र है। और उसमें श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र आज भी हमें यह स्मरण कराता है कि किसी भी युग में अधर्म का अंत और धर्म की पुनःस्थापना केवल तब संभव है जब नीतिगत राजनीति, नैतिक विवेक और साहसी क्रिया तीनों एक साथ सक्रिय हों।
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