भारत की न्यायिक व्यवस्था में विविधता का उत्सव

भारत की ताकत इसकी विविधता में है। यहाँ हर नागरिक को आगे बढ़ने का अधिकार है, चाहे उसकी पहचान कुछ भी हो। मीडिया और समाज को चाहिए कि वे इन उपलब्धियों को सामाजिक न्याय और समावेशिता के प्रतीक के रूप में देखें, न कि केवल पहचान के चश्मे से। सच्चा लोकतंत्र वही है, जहाँ हर नागरिक को अवसर मिले, और जब वह सर्वोच्च पद पर पहुँचे, तो उसकी पहचान सिर्फ उसके कर्तव्य और सेवा से हो।

May 14, 2025 - 08:00
May 15, 2025 - 14:40
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भारत की न्यायिक व्यवस्था में विविधता का उत्सव
न्यायमूर्ति बी. आर. गवई

भारत के 52वें मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में न्यायमूर्ति बी. आर. गवई का चयन ऐतिहासिक है। खबर की हेडलाइन-'सीजेआई बनने वाले पहले बौद्ध होंगे न्यायमूर्ति गवई'- सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और संविधान की गहराई को दर्शाने वाला एक प्रतीक बन गया है। यह चर्चा इस बात पर भी केंद्रित हो गई कि क्या इतने ऊँचे संवैधानिक पद पर पहुँचने के बाद किसी की धार्मिक, जातीय या सामाजिक पहचान का उल्लेख प्रासंगिक है? या फिर न्यायमूर्ति का पद स्वयं में इतनी ऊँचाई रखता है कि उसकी पहचान सिर्फ 'न्याय' से होनी चाहिए?

विविधता और समावेशिता: भारतीय लोकतंत्र की आत्मा

भारत एक बहुधर्मी, बहुजातीय और बहुभाषी राष्ट्र है। हमारे संविधान की प्रस्तावना "We, the people of India..." से शुरू होती है, जिसमें हर नागरिक की सहभागिता और गरिमा निहित है। जब देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या राष्ट्रपति जैसे पदों पर कोई बौद्ध, दलित, आदिवासी या अल्पसंख्यक पहुँचता है, तो यह केवल व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की समावेशी शक्ति का उत्सव है।

क्या पहचान का उल्लेख उचित है?

मुख्य न्यायाधीश, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री जैसे संवैधानिक पदों पर बैठने वालों की पहचान उनके कर्तव्य, निष्पक्षता और संवैधानिक मूल्यों से होनी चाहिए, न कि उनकी जाति, धर्म या सामाजिक पृष्ठभूमि से। लेकिन, भारतीय समाज में ऐतिहासिक रूप से जो असमानताएँ, वंचनाएँ और भेदभाव रहे हैं, उनके संदर्भ में जब कोई ऐतिहासिक बदलाव होता है, तो उसका उल्लेख समाज के लिए प्रेरणा और उम्मीद का स्रोत बन जाता है। यह उल्लेख उन लाखों-करोड़ों लोगों के लिए उम्मीद की किरण है, जिनके लिए ये पद कभी सपने से अधिक नहीं थे। यह सामाजिक न्याय और अवसर की बराबरी की दिशा में एक मील का पत्थर है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

पुष्यमित्र शुंग के समय से लेकर आज तक भारत ने सामाजिक बदलाव की लंबी यात्रा तय की है। क्या कभी किसी ने सोचा था कि बौद्ध धर्म के अनुयायी या आदिवासी समुदाय का कोई व्यक्ति देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदों तक पहुँचेगा? यह बदलाव न केवल हमारे संविधान की शक्ति का प्रमाण है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि भारत में सामाजिक गतिशीलता और लोकतांत्रिक मूल्य कितने मजबूत हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का आदिवासी समुदाय से आना, या जस्टिस गवई का बौद्ध समुदाय से आना, इन घटनाओं ने समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को मुख्यधारा में लाने का काम किया है।

जिम्मेदारी और निष्पक्षता

यह हमेशा याद रखना चाहिए कि जब कोई व्यक्ति सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुँचता है, तो उसकी व्यक्तिगत पहचान पीछे छूट जाती है। उसकी पहली और अंतिम पहचान 'न्यायमूर्ति', 'राष्ट्रपति', 'प्रधानमंत्री' या 'लोकसेवक' की होती है। जस्टिस गवई ने भी स्पष्ट किया है कि वे रिटायरमेंट के बाद कोई पद नहीं लेंगे-यह उनकी निष्पक्षता और नैतिकता का प्रमाण है। यह संदेश है कि न्याय और संविधान सर्वोपरि हैं, न कि कोई व्यक्तिगत या धार्मिक पहचान।

हमारा देश सबका है, हमेशा से, हमेशा के लिए। यही गर्व है, यही विश्वास है, और यही भारत की अमरता का रहस्य भी। यही भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना का सार है।

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I