कोलकाता: ब्लैक सिटी से सिटी ऑफ जॉय- इतिहास, दमन और पुनरुत्थान का संधि-स्थान
कोलकाता का सफ़र ‘ब्लैक होल त्रासदी’ से ‘सिटी ऑफ जॉय’ तक औपनिवेशिक दमन, अकाल, काली पूजा, दुर्गापूजा और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की कहानी।

कोलकाता का इतिहास भारतीय उपमहाद्वीप के उपनिवेशी दौर का जीवंत और जटिल प्रतिबिंब है। यह शहर कभी ‘ब्लैक सिटी’ की संज्ञा से कुख्यात हुआ, तो कभी ‘सिटी ऑफ जॉय’ कहे जाने तक पहुँचा। औपनिवेशिक शोषण, राजनीतिक उथल-पुथल, सामाजिक-आर्थिक असमानता, सांस्कृतिक संपन्नता और मानवीय संघर्षों ने इसे एक ‘Dual Identity’ वाला नगर बना दिया।
‘ब्लैक सिटी’ नाम की उत्पत्ति और औपनिवेशिक दमन
1756 की ब्लैक होल ऑफ कलकत्ता त्रासदी, जिसमें अंग्रेज़ सैनिकों और नागरिकों को फोर्ट विलियम के एक छोटे कमरे में ठूंसकर बंद कर दिया गया और अधिकांश की मृत्यु हो गई ने कोलकाता को औपनिवेशिक इतिहास में ‘ब्लैक सिटी’ की छवि दी। इस घटना को अंग्रेज़ी शासन ने बार-बार प्रचारित कर स्थानीय जनता के प्रति घृणा और डर को वैध ठहराया। इसके साथ ही ब्रिटिश काल में कोलकाता को ‘White Town’ और ‘Black Town’ में बाँट दिया गया। यूरोपीय बस्तियाँ, चौड़ी सड़कें, पार्क व क्लब ‘White Town’ में विकसित हुए, जबकि भारतीय श्रमिकों और गरीब बस्तियों को ‘Black Town’ में सीमित कर दिया गया। यह विभाजन केवल भौगोलिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, वर्गीय और नस्लीय असमानता का प्रतीक भी था।
सामाजिक-आर्थिक दमन और जनता की पीड़ा
औपनिवेशिक काल में बंगाल के किसान और मजदूर दमन के केंद्र बने। नील की खेती में किसानों को जबरन झोंका गया, तो दूसरी ओर अंग्रेज़ों की कर नीतियों ने ग्रामीण समाज को निर्धन बना दिया।
1943 का बंगाल अकाल, जिसमें अनुमानतः 30 लाख से अधिक लोग मारे गए, इस शोषण का चरम उदाहरण था। खाद्यान्न की कृत्रिम कमी, काला बाज़ार और औपनिवेशिक नीतियों ने अकाल को और गहरा किया। इस समय की छायाएँ आज भी साहित्य और स्मृतियों में दर्ज हैं।
धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत: ‘काली नगरी’
कोलकाता का आध्यात्मिक जीवन माँ काली की उपासना से गहराई से जुड़ा है। कालीघाट मंदिर, न केवल बंगाल की, बल्कि पूरे भारत की आस्था का प्रमुख केंद्र है। यहाँ ‘काली नगरी’ की सांस्कृतिक पहचान गढ़ी गई। धार्मिकता और कला का यह संगम शहर को संघर्षों के बीच भी ऊर्जा प्रदान करता रहा। पूजा-पाठ, लोक परंपराएँ और सांस्कृतिक आयोजन कोलकाता के जीवन में आत्मबल का स्रोत बने।
‘सिटी ऑफ जॉय’ छवि और मानवीय जिजीविषा
डोमिनिक लैपिएर की पुस्तक The City of Joy ने 20वीं सदी के उत्तरार्ध में कोलकाता को वैश्विक स्तर पर एक नई पहचान दी। यहाँ की गरीबी, बीमारियाँ और कठिनाइयों के बीच भी जो मानवीय आत्मीयता, हँसी और सहयोग की भावना विद्यमान है, वही ‘सिटी ऑफ जॉय’ का मूल सार है।
आज कोलकाता दुर्गापूजा जैसे विश्वप्रसिद्ध उत्सवों, कोलकाता पुस्तक मेले, थियेटर, संगीत और साहित्यिक जीवन के कारण न केवल भारत, बल्कि विश्व सांस्कृतिक मानचित्र पर विशिष्ट स्थान रखता है। बंगाली समाज की बहस करने की प्रवृत्ति, ‘अड्डा संस्कृति’, और बौद्धिक जीवन इसकी जीवंतता के प्रमाण हैं।
Dual Identity की चुनौतियाँ और उम्मीदें
कोलकाता का इतिहास दमन, अकाल और गरीबी जैसी पीड़ाओं से भरा हुआ है। परंतु इसी धरती ने कला, साहित्य, संगीत, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में अद्भुत ऊँचाइयाँ अर्जित की हैं।
आज भी शहर की पहचान दो छोरों पर खड़ी है, एक ओर अतीत की ‘ब्लैक सिटी’ छवि और गरीबी की चुनौतियाँ, तो दूसरी ओर ‘सिटी ऑफ जॉय’ की सांस्कृतिक और मानवीय पुनरुत्थान की चमक।
यही ‘Dual Identity’ कोलकाता को विशेष बनाती है: यह शहर अपने दर्द को नकारता नहीं, बल्कि उसे अपनी जिजीविषा, उत्सवप्रियता और सांस्कृतिक शक्ति से बदल देता है। कोलकाता की यही यात्रा भारत की आत्मा का एक प्रतिनिधि चित्र है, संघर्ष, प्रतिरोध और उत्सव का अद्भुत संगम।
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