बुद्ध, सनातन और वर्ण व्यवस्था

बुद्ध के विचारों का सनातन में गहरा प्रभाव है, और दोनों का लक्ष्य मनुष्य को दुख, भेदभाव और अज्ञान से मुक्त करना है-मार्ग भले ही अलग हों।

May 15, 2025 - 07:39
May 15, 2025 - 14:31
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बुद्ध, सनातन और वर्ण व्यवस्था
बुद्ध और सनातन
  • बुद्ध और सनातन में मूलतः विरोध नहीं, संवाद और समन्वय है।
  • वर्ण व्यवस्था का जन्म आधारित विकृत स्वरूप, सनातन का मूल नहीं, बल्कि ऐतिहासिक विकृति है-जिसका विरोध बुद्ध, भक्त कवि और स्वयं वेदांत ने किया।
  • 'सनातन' और 'अनित्य' का द्वंद्व सतही है, दोनों ही सत्य, परिवर्तन और मोक्ष की खोज में सहमत हैं।
  • भारतीय संस्कृति की शक्ति समन्वय और सृजनशीलता में है, न कि रूढ़ियों में।
  • जातिवाद और हिंसा का बढ़ना सामाजिक समस्या है, धार्मिक मूल्यों का पतन नहीं।

1. क्या बुद्ध को केवल 'अवतार' मानना, उनके विचारों को न अपनाना है?

हिंदू परंपरा में बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार माना गया, लेकिन यह केवल प्रतीकात्मक नहीं है। सनातन और बौद्ध दर्शन में कई बुनियादी समानताएं हैं-जैसे पंचशील (बुद्ध का नैतिक आचार-संहिता) और यम (पतंजलि योग), दोनों ही सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य/शुद्धाचार और अपरिग्रह/नशा से दूर रहने की शिक्षा देते हैं। बुद्ध के चार आर्य सत्य-दुख, दुख का कारण, दुख की निरोधता, और दुख-निरोध का मार्ग-भी सनातन के चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) के लक्ष्य से मेल खाते हैं। अतः, यह कहना कि सनातन ने बुद्ध के किसी विचार को नहीं अपनाया, ऐतिहासिक और दार्शनिक रूप से सही नहीं है।

2. 'सनातन' और 'अनित्य' का द्वंद्व: क्या बुद्ध ने सनातन का निषेध किया?

बुद्ध ने 'अनित्य' (क्षणिकता) पर जोर दिया, परंतु सनातन दर्शन में भी संसार को 'माया' (अस्थायी) कहा गया है। अद्वैत वेदांत में भी जगत को मिथ्या (अस्थायी) और ब्रह्म को ही सत्य कहा गया है। बुद्ध ने जिस 'सनातन' का निषेध किया, वह स्थूल रूढ़ियों का निषेध था, न कि सनातन के मूल तत्त्वों का। शंकराचार्य ने भी प्रश्न उठाए-"कस्त्वं कोऽहं कुतः आयातः?"-जो अस्तित्व, परिवर्तन और सत्य की खोज से जुड़े हैं। अतः, 'अनित्य' और 'सनातन' का यह द्वंद्व केवल भाषा और दृष्टिकोण का है, मूलतः दोनों सत्य की खोज में सहमत हैं।

3. वर्ण व्यवस्था: जन्म आधारित या कर्म आधारित?

सनातन धर्म के मूल ग्रंथों (वेद, उपनिषद, गीता) में वर्ण व्यवस्था गुण, कर्म और स्वभाव पर आधारित थी, जन्म पर नहीं। बुद्ध ने भी अस्सलायन सुत्त में स्पष्ट कहा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-सभी समान हैं और कर्म के आधार पर ही सम्मान का निर्धारण होता है। समाज में वर्ण व्यवस्था का जन्म आधारित होना, बाद के काल की विकृति है, न कि सनातन का मूल सिद्धांत। भक्त कवियों ने इसी विकृति का विरोध किया, न कि सनातन के मूल भाव का।

4. बौद्ध धर्म का तार्किकता और भक्त कवियों पर प्रभाव

भक्त कवियों ने वर्ण व्यवस्था के जन्म आधारित स्वरूप का विरोध किया, जो बौद्ध धर्म की तार्किक आलोचना से प्रेरित था। लेकिन उन्होंने सनातन के मूल तत्व-भक्ति, समता, करुणा-को अपनाया और उसे सृजनात्मक रूप से बदला। तुलसीदास जैसे कवि भी 'जाति-पाँति पूछे नहिं कोई' की बात करते हैं, जो कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की पुष्टि है।

5. मूर्तिपूजा और बौद्ध प्रभाव

भारत में मूर्तिपूजा का प्रचलन बौद्धों की मूर्तिपूजा से प्रभावित हुआ, यह ऐतिहासिक तथ्य है। परंतु, सनातन धर्म ने इसे आत्मसात कर, उसे अपने दर्शन के अनुरूप ढाल लिया। भारत की संस्कृति मिश्रण और समन्वय की रही है, शुद्धतावाद कभी नहीं चला।

6. बुद्ध और हिंसा: बौद्ध भूमि पर हिंसा का प्रश्न

बुद्ध के उपदेश अहिंसा, करुणा और समता के थे। भारतीय समाज में हिंसा, जातिवाद और वैर का बढ़ना सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक कारणों से है, न कि सनातन या बौद्ध मूल्यों के कारण। बुद्ध ने मनुष्य-मनुष्य के बीच की दीवारें तोड़ने की बात की, और सनातन के मूल में भी 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (सारा विश्व एक परिवार) का भाव है।

 

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I