बलिदान की अमरगाथा : झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का अविस्मरणीय योगदान

यह संपादकीय झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस (18 जून) के अवसर पर उनके जीवन, संघर्ष और वीरगति को समर्पित है। इसमें उनके शौर्य, ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध प्रतिरोध, 1857 की क्रांति में योगदान और उनके बलिदान की ऐतिहासिक प्रासंगिकता का विश्लेषण किया गया है। साथ ही, यह लेख उन्हें भारत में नारी सशक्तिकरण और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक मानते हुए आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में प्रस्तुत करता है।

Jun 24, 2025 - 08:20
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बलिदान की अमरगाथा : झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का अविस्मरणीय योगदान
बलिदान दिवस : 18 जून पर विशेष

मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।

इतिहास में गूँजती यह उद्घोषणा केवल एक स्त्री के साहस की गाथा नहीं, बल्कि भारत के स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए दी गई एक माँ के बलिदान का उद्घोष है। 18 जून 1858 को ग्वालियर के मोर्चे पर युद्ध करते हुए मात्र 29 वर्ष की आयु में शहीद हुई रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले महासंग्राम 1857 की क्रांति को एक अमर प्रेरणा बनाकर छोड़ गया।

इतिहास की पृष्ठभूमि: एक साम्राज्ञी का राष्ट्रनायिका बनना

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को वाराणसी में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में मणिकर्णिका के रूप में हुआ। पिता मोरोपंत ताम्बे पेशवा की सेवा में थे, जिससे बचपन से ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, अस्त्र-शस्त्र विद्या में दक्षता प्राप्त की।

14 वर्ष की आयु में उनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। राजा की असमय मृत्यु के बाद रानी ने एक पुत्र को गोद लिया दामोदर राव। किंतु ईस्ट इंडिया कंपनी ने 'डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स' (हड़प नीति) के अंतर्गत झाँसी को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने का आदेश जारी कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने इसे नकारते हुए न्याय की मांग की, लेकिन जब अपीलें अस्वीकार हुईं, तब उन्होंने घोषणा की मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।

1857 की क्रांति और रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका

जब 1857 में भारत की पहली आज़ादी की लड़ाई भड़की, तो झाँसी उसकी प्रमुख धुरी बन गई। कानपुर, बरेली, लखनऊ, दिल्ली से लेकर झाँसी तक क्रांति की ज्वाला जल रही थी। रानी लक्ष्मीबाई न केवल राजनैतिक रूप से एकत्रित रहीं, बल्कि सैन्य रणनीति, मोर्चाबंदी और युद्ध संचालन की प्रेरक सेनानी बनकर उभरीं।

उन्होंने झाँसी क़िले को सैन्य छावनी में बदल दिया, महिलाओं की सेना बनाई और खुद घोड़े पर चढ़कर तलवार संभाली। तात्या टोपे, नाना साहब और अजीमुल्ला खान जैसे क्रांतिकारियों से संपर्क कर संगठित प्रतिरोध खड़ा किया।

अंग्रेज़ों ने जब 1858 में झाँसी पर आक्रमण किया, तो रानी लक्ष्मीबाई ने अद्वितीय साहस दिखाते हुए दुर्ग की रक्षा की। कई दिनों तक चले इस संघर्ष में अंग्रेजों को भारी क्षति हुई, पर अंततः क़िला भेद लिया गया। रानी बालक दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर घोड़े पर सवार हुईं और कालपी के लिए प्रस्थान किया।

ग्वालियर का युद्ध और बलिदान

कालपी पहुँचने के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे के साथ ग्वालियर की ओर कूच किया और वहां की सेना को प्रेरित कर क़िला अपने कब्ज़े में ले लिया। लेकिन यह विजय अल्पकालिक रही। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज़ के नेतृत्व में ग्वालियर की ओर बढ़ी फौज से निर्णायक युद्ध हुआ।

18 जून 1858 को, कोटा की सराय में भीषण युद्ध हुआ। रानी लक्ष्मीबाई, वीरता की पराकाष्ठा दिखाते हुए शत्रुओं के मध्य घुस गईं और अंतिम सांस तक तलवार चलाती रहीं। अंततः एक गोरे सैनिक की गोली से वह घायल हुईं और एक बाबा के आश्रम में अंतिम साँस ली।

उनके बलिदान से ब्रिटिश हुकूमत हिल गई और उनके ही एक अंग्रेज अधिकारी ने लिखा रानी लक्ष्मीबाई, जो कि विद्रोह की सबसे खतरनाक नेता थीं, पुरुषों की तरह बहादुरी से लड़ीं और वीरगति को प्राप्त हुईं।

 बलिदान का ऐतिहासिक महत्व

रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान भारत की स्वतंत्रता संग्राम की नींव में एक चिरस्थायी शिला बन गया। एक महिला द्वारा ऐसे समय में प्रतिरोध करना जब समाज में स्त्रियों को केवल राजसी सौंदर्य और परदे की शोभा माना जाता था, यह स्वयं में क्रांति थी।

उनकी रणनीतिक सूझबूझ, सैनिक नेतृत्व और असाधारण साहस ने यह स्थापित कर दिया कि भारत की स्त्रियाँ न केवल संस्कृति की वाहक हैं, बल्कि जब समय आए, तो राष्ट्ररक्षा की सबसे अगली पंक्ति की नायक भी बन सकती हैं।

 झाँसी की रानी प्रतीक और प्रेरणा

आज रानी लक्ष्मीबाई केवल इतिहास की एक वीरांगना नहीं हैं, वे भारतीय स्त्रीशक्ति की सर्वोच्च अभिव्यक्ति हैं। उनकी छवि आज भी विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों से लेकर सेना की प्रेरणाओं तक में जीवित है। कवि सुभद्राकुमारी चौहान की कविता

"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी"

हर भारतीय मन को उत्साह से भर देती है।

वे आधुनिक भारत में नारी सशक्तिकरणकी प्रतीक बन चुकी हैं। अनेक महिला सैनिक, पुलिस अधिकारी, नेता और सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मीबाई को अपना आदर्श मानती हैं।

बलिदान दिवस की प्रासंगिकता आज के भारत में

आज, जब हम 21वीं सदी में भारत को वैश्विक मंच पर आगे बढ़ते देख रहे हैं, तब भी झाँसी की रानी का बलिदान हमें यह याद दिलाता है कि स्वतंत्रता केवल उपहार नहीं है, वह त्याग और संघर्ष की परिणति है।

बलिदान दिवस हमें अपने कर्तव्यों, मूल्यों और राष्ट्रीय चरित्र की पुनः स्मृति कराता है। यह दिन युवा पीढ़ी को इतिहास से जोड़ने, साहस, अनुशासन और राष्ट्रभक्ति के बीज बोने का अवसर है।

अमर ज्योति का नाम लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई का जीवन एक ऐसी ज्योति है, जो न केवल गुलामी के अंधकार में जली थी, बल्कि आज भी हमारे भीतर स्वराज्य, स्वाभिमान और स्वधर्म की लौ प्रज्वलित करती है। उनका बलिदान हमें केवल गर्व नहीं देता, बल्कि यह आह्वान भी करता है- कि यदि राष्ट्र संकट में हो, तो प्रत्येक भारतवासी को लक्ष्मीबाई बन जाना चाहिए।

जय हिंद! वंदे  मातरम्!

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सुशील कुमार पाण्डेय मैं, अपने देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा पर हूँ, यही मेरी पहचान है I