न्याय के आँगन में हिंसा: साकेत कोर्ट कांड और हमारी सुरक्षा-व्यवस्था की विसंगतियाँ
साकेत कोर्ट की लॉकअप झड़प से स्पष्ट है कि भारत की न्याय व्यवस्था की सबसे बुनियादी ज़रूरत 'सुरक्षा' आज भी अधूरी है। यह घटना पुलिस की लापरवाही, लॉकअप प्रबंधन की विफलता, और प्रशासनिक चूक का घातक संगम है। हमें शीघ्र ही संवेदनशील, तकनीक-संपन्न और जवाबदेह सुरक्षा तंत्र को लागू करना होगा।

दिल्ली की साकेत कोर्ट के लॉकअप में दो गुटों के बीच हुई हिंसक झड़प में एक विचाराधीन बंदी की मृत्यु ने न केवल न्यायिक व्यवस्था की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि यह भी दर्शाया है कि हमारी अदालतें जो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का स्थल हैं, अब स्वयं असुरक्षित हो चुकी हैं। यह घटना, दिखावटी पुलिस निगरानी, अपर्याप्त लॉकअप व्यवस्था, और सड़ चुकी जेल प्रणाली की संयुक्त विफलता का उदाहरण बन गई है।
घटना का संक्षिप्त विवरण:
3 जून 2025 को दिल्ली के साकेत कोर्ट परिसर स्थित लॉकअप में दो आपराधिक गुटों के विचाराधीन कैदियों के बीच झड़प हो गई। यह टकराव इतना हिंसक था कि एक कैदी की घटनास्थल पर ही मौत हो गई जबकि दो अन्य गंभीर रूप से घायल हुए। शुरुआती रिपोर्टों के अनुसार, गुटीय प्रतिद्वंद्विता पहले से ज्ञात थी, फिर भी उन्हें एक ही लॉकअप में रखने की लापरवाही बरती गई।
मूल कारणों की पड़ताल:
1. लचर सुरक्षा व्यवस्था:
* साकेत कोर्ट जैसे प्रमुख न्यायिक परिसर में CCTV कैमरों की संख्या सीमित है और अधिकतर निष्क्रिय या खराब पाए जाते हैं।
* सुरक्षा कर्मियों की संख्या अपर्याप्त है। अधिकतर सुरक्षा दिल्ली पुलिस के उन कर्मियों पर निर्भर है जो पहले से ही विभिन्न ड्यूटीज़ में व्यस्त रहते हैं।
2. अदालत परिसर में लॉकअप का दयनीय प्रबंधन:
* जिला अदालतों में बने लॉकअप सामान्यतः 40-50 विचाराधीन कैदियों के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन कई बार इनमें 70-80 से अधिक बंदियों को ठूंस दिया जाता है।
* कैदियों की पृष्ठभूमि की जाँच कर उन्हें अलग-अलग रखने की कोई सुनिश्चित प्रक्रिया नहीं है।
3. पूर्व चेतावनी की अनदेखी:
* जेल और पुलिस विभागों को पहले से ज्ञात था कि संबंधित गुटों के बीच सीधा टकराव हो सकता है। इसके बावजूद उन्हें एक ही समय, एक ही कोर्ट, और एक ही लॉकअप में लाया गया।
4. जेल-कोर्ट समन्वय का अभाव:
* तिहाड़ जेल और कोर्ट प्रशासन के बीच कैदियों के आवागमन और निगरानी को लेकर स्पष्ट कार्यप्रणाली और जवाबदेही का अभाव है।
* ट्रांजिट प्रक्रिया (जेल से कोर्ट तक) असंगठित और असुरक्षित बनी हुई है।
कानून और संविधान के संदर्भ में संकट:
भारत का संविधान अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को 'जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार' प्रदान करता है, even an under trial prisoner. जब न्यायालय परिसर में किसी विचाराधीन बंदी की हत्या हो जाती है, तो यह न केवल उस व्यक्ति के अधिकारों का हनन है, बल्कि राज्य की विफलता भी है, जो उसकी सुरक्षा का उत्तरदायी है।
अन्य प्रमुख उदाहरण:
वर्ष स्थान घटना का विवरण
2021 रोहिणी कोर्ट, दिल्ली कोर्ट परिसर में वकीलों के भेष में आए हमलावरों ने गैंगस्टर जितेंद्र गोगी
की हत्या की, पुलिस की मौजूदगी में
2023 मेरठ कोर्ट, यूपी विचाराधीन बंदी पर कोर्ट परिसर में जानलेवा हमला, चाकू बरामद
2024 मुंबई सेशन कोर्ट बंदी को कोर्ट लाते समय ट्रांजिट में गोलीबारी, तीन पुलिसकर्मी घायल
इन घटनाओं से स्पष्ट है कि कोर्ट परिसर अब सुरक्षित स्थान नहीं रहे, और वहाँ अपराधी बेखौफ हो गए हैं।
प्रभाव और गंभीरता:
1. आम जनता का न्यायपालिका में विश्वास डगमगाता है।
2. विचाराधीन बंदियों को न्याय से पूर्व ही मौत का सामना करना पड़ता है।
3. पुलिस और न्यायालय के बीच समन्वयहीनता उजागर होती है।
4. न्यायालय एक भयमुक्त और निष्पक्ष स्थल की अपनी गरिमा खोता है।
समाधान और नीति-सुधार की आवश्यकता:
1. न्यायालय परिसरों की संरक्षित सुरक्षा ज़ोन के रूप में घोषणा:
* कोर्ट परिसर को 'हाई सिक्योरिटी जोन' घोषित कर विशेष सुरक्षा बल की तैनाती हो।
* आधुनिक स्कैनिंग तकनीक, प्रवेश-नियंत्रण प्रणाली, AI आधारित फेस डिटेक्शन की व्यवस्था की जाए।
2. लॉकअप प्रबंधन प्रणाली का सुधार:
* कैदियों को गुटीय इतिहास के आधार पर डिजिटल प्रबंधन प्रणाली द्वारा अलग-अलग रखने की नीति लागू हो।
* प्रत्येक कोर्ट के लॉकअप में निगरानी कैमरे, चिकित्सा आपातकाल किट, और पुलिस गश्त अनिवार्य हो।
3. जेल से कोर्ट तक सुरक्षित ट्रांजिट प्रणाली:
* पुलिस वाहनों में GPS आधारित निगरानी और लाइव ट्रैकिंग
* बंदियों की डिजिटल पहचान पुष्टि प्रणाली
* ‘कोर्ट लिस्टिंग’ समय पर साझा कर अग्रिम सुरक्षा इंतजाम
4. जवाबदेही और स्वतंत्र जाँच:
* हर ऐसी घटना पर स्वतंत्र न्यायिक आयोग द्वारा जाँच
* दोषी पुलिसकर्मियों या जेल अधिकारियों पर कठोर प्रशासनिक कार्रवाई
* समयबद्ध रिपोर्ट और सार्वजनिक पारदर्शिता
न्यायपालिका केवल फैसलों से ही नहीं, बल्कि उस वातावरण से भी बनती है जिसमें वह काम करती है। जब न्याय के मंदिर में ही खून बहने लगे, तो यह केवल एक हत्या नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है। अब समय आ गया है कि हम न्यायिक परिसरों की ‘सांकेतिक सुरक्षा’ की जगह ‘संस्थागत सुरक्षा’ की ओर बढ़ें। अन्यथा न्याय से पहले ही लोग मृत्यु की सजा पा जाएँगे।
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