भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश में: फर्श से अर्श तक एक व्यवस्था की सड़ांध
इस लेख में उत्तर प्रदेश में व्याप्त गहरे और सर्वग्रासी भ्रष्टाचार की पड़ताल की गई है। लेख दर्शाता है कि कैसे आम प्रशासनिक कर्मचारी से लेकर उच्च पदस्थ अधिकारी और राजनेता तक भ्रष्टाचार की शृंखला में जुड़े हैं। फर्जीवाड़ा, कमीशनखोरी, ट्रांसफर-पोस्टिंग में लेन-देन, ठेकों में मिलीभगत, और जनकल्याण योजनाओं में घोटाले यह सब शासन के हर स्तर पर फैले हैं।

उत्तर प्रदेश एक ऐसा प्रदेश जो भारत की राजनीति, संस्कृति और जनसंख्या की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है - आज जिस भयावह संकट से जूझ रहा है, वह है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। यह अब कोई छुपी हुई बात नहीं रही कि भ्रष्टाचार केवल निचले स्तर के बाबुओं तक सीमित नहीं, बल्कि शासन के शीर्ष पदों पर भी यह नागफनी की तरह फैला हुआ है।
फर्श: जनता से जुड़ा भ्रष्टाचार
राज्य के ग्रामीण इलाकों में यदि किसी बुजुर्ग महिला को वृद्धावस्था पेंशन चाहिए, तो पंचायत सचिव से लेकर लेखपाल तक की जेब गरम करनी पड़ती है। मनरेगा मजदूरी की हाजिरी से लेकर पीएम आवास की सूची तक में भ्रष्टाचार घुला मिला है। विद्युत कनेक्शन, राशन कार्ड, नल योजना हर योजनागत लाभ का 'रेट कार्ड' बन चुका है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट 2022 बताती है कि भारत में दर्ज भ्रष्टाचार मामलों में उत्तर प्रदेश शीर्ष पाँच राज्यों में शामिल है। लोकायुक्त कार्यालय में प्रतिवर्ष हजारों शिकायतें दर्ज होती हैं, किंतु कार्रवाई की दर नगण्य है।
अर्श: उच्च नौकरशाही और प्रशासनिक भ्रष्टाचार
ताजा उदाहरण निलंबित आईएएस अधिकारी अभिषेक प्रकाश का है, जिन पर इन्वेस्ट यूपी घोटाले, डिफेंस कॉरिडोर भूमि घोटाले, और 100 करोड़ से अधिक के घपले के आरोप हैं। SIT ने चार्जशीट, साक्ष्य और गवाह सब प्रस्तुत कर दिए हैं, लेकिन गिरफ्तारी आज तक नहीं हुई।
पूर्व में गौतमबुद्ध नगर के सीडीओ रहे अधिकारियों पर करोड़ों की जमीन घोटाले, प्रयागराज के PWD अधिकारियों पर निर्माण घोटाले, लखनऊ नगर निगम में ठेका आवंटन घोटाले - ये सभी घटनाएँ दर्शाती हैं कि भ्रष्टाचार 'ऊपर से नीचे तक' बह रही एक धारा बन चुकी है।
राजनीतिक संरक्षण और जाँच एजेंसियों की निष्क्रियता
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि जब भ्रष्ट अधिकारियों पर आरोप लगते हैं, तो वे केवल तब तक निलंबित होते हैं जब तक मामला शांत न हो जाए। न सीबीआई सक्रिय दिखती है, न ईडी और न ही विजिलेंस। कहीं न कहीं, राजनीतिक संरक्षण इन अफसरों की ढाल बन गया है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 'भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस' की नीति अपनाने का संकल्प लिया था, लेकिन यदि जाँच एजेंसियाँ निष्क्रिय, और दोषी अफसर सक्रिय रहें, तो इस नीति का हश्र सिर्फ नारेबाज़ी बनकर रह जाएगा।
न्यायिक निगरानी और लोक चेतना ही समाधान
इस समय जरूरत है कि भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की न्यायिक निगरानी में जाँच हो। साथ ही लोकपाल/लोकायुक्त को केवल सजावटी संस्था न मानते हुए उनके निर्णयों को बाध्यकारी बनाया जाए। RTI जैसे औजारों का पुनर्जीवन और जनजागृति ही इस सड़ांध के विरुद्ध दीर्घकालिक औषधि हो सकती है।
अगर उत्तर प्रदेश को 'नए भारत' के मॉडल के रूप में देखना है, तो यह सफाई केवल सड़कों तक सीमित न हो - व्यवस्था के भीतर की सफाई ज़्यादा जरूरी है।
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