मोहन राकेश की जन्मशती: आत्मसंघर्ष, आधुनिकता और रंगमंच की अंतर्ध्वनि
मोहन राकेश आधुनिक हिंदी रंगमंच के शिल्पी, संवेदनशील कथाकार और आत्मसंघर्ष के दार्शनिक थे। उनकी जन्मशती के अवसर पर यह संपादकीय उनके नाटकों, कहानियों और विचारों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता को रेखांकित करता है। वे एक युग की नहीं, कई युगों की सांस्कृतिक चुनौती हैं, जिन्हें बार-बार पढ़ा, समझा और मंचित किया जाना चाहिए।

साहित्यिक इतिहास में कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो अपनी रचनाओं से केवल नए कथानक नहीं रचते, बल्कि साहित्य की चेतना में एक निर्णायक मोड़ लाते हैं। मोहन राकेश (1925–1972) हिंदी साहित्य और रंगमंच के ऐसे ही युग प्रवर्तक लेखक हैं। उनकी जन्मशती केवल एक लेखक की स्मृति नहीं, बल्कि आधुनिक हिंदी साहित्य के आत्ममंथन का क्षण है।
आधुनिक हिंदी नाटक का पुनरुत्थान
मोहन राकेश का नाम हिंदी नाटक को नई गरिमा और नई भाषा देने के लिए इतिहास में अमिट रहेगा। उनके आषाढ़ का एक दिन (1958) को हिंदी का पहला आधुनिक नाटक माना जाता है, जहाँ ऐतिहासिक विषय को आधुनिक संवेदना और मनोवैज्ञानिक गहराई से गूंथा गया। यह नाटक केवल कालिदास की कथा नहीं है, यह एक कलाकार के आत्मसंघर्ष, प्रेम और समाज से टकराव की त्रासदी है।
उनके अन्य प्रमुख नाटक लहरों के राजहंस (1963) और आधे-अधूरे (1971) भारतीय रंगमंच को मनोविश्लेषणात्मक और विचारशील दिशा में ले जाते हैं। लहरों के राजहंस में बुद्ध के परिवेश में पति-पत्नी के बीच वैराग्य और लौकिक मोह का द्वंद्व है, तो आधे-अधूरे में आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार की विघटनशीलता और असंतोष की दाहक सच्चाई, जो आज भी अप्रत्याशित रूप से प्रासंगिक है।
इन नाटकों में मंचीय गति, संवादों की यथार्थता, पात्रों की मानसिक गहराई और प्रतीकों की सूक्ष्मता, उन्हें केवल 'कहानी' न रहने देकर उन्हें रंगमंचीय अनुभव का वाहक बनाते हैं।
कथाकार के रूप में: अस्तित्व और आत्मसंघर्ष की कथाएँ
मोहन राकेश की कहानियाँ भी उतनी ही प्रभावशाली हैं, जितनी उनके नाटक। उसकी रोटी, आख़िरी चट्टान, मॉडर्न कला, कव्वाली जैसी कहानियाँ अकेलेपन, टूटते संबंधों, और आत्मसंघर्ष की प्रतीक हैं। उनकी कहानियों में घटनाएं कम, मनोस्थिति अधिक होती है। पात्र अक्सर बोलते कम हैं, मौन अधिक मुखर होता है।
उसकी रोटी जैसे कहानी में प्रतीक्षा, स्त्री की चुप्पी और परंपरागत संबंधों का बौद्धिक विसर्जन है। यह कहानी, जो बाद में मणि कौल द्वारा फिल्माई गई, हिंदी की सबसे प्रभावशाली यथार्थवादी कहानियों में गिनी जाती है।
उपन्यास और आत्मकथ्यात्मक लेखन
मोहन राकेश ने अंधेरे बंद कमरे और इंतजार जैसे उपन्यासों में भी अपने विशिष्ट मनोवैज्ञानिक और आत्मविश्लेषणात्मक अंदाज़ को आगे बढ़ाया। अंधेरे बंद कमरे विशेष रूप से उनके वैवाहिक अनुभवों से उपजा हुआ एक अस्तित्ववादी उपन्यास है, जिसमें एक शिक्षक की असफल वैवाहिक ज़िंदगी और मानसिक द्वंद्व की पड़ताल है।
उनकी रचनात्मक डायरी और संस्मरणात्मक लेखन उनके साहित्यिक दृष्टिकोण, रचना-प्रक्रिया और जीवन-दृष्टि को उजागर करते हैं। वे आत्मालोचन करने वाले लेखक थे, जिनके भीतर एक बौद्धिक बेचैनी थी जो रचना को स्थिर नहीं रहने देती।
आधुनिकता का भारतीय संस्करण
मोहन राकेश की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने आधुनिकता को यूरोपीय अनुकरण के रूप में नहीं, बल्कि भारतीय मध्यवर्गीय मन के आत्मसंघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया। वे 'नए थियेटर' के प्रवर्तकों में थे उनके नाटक मंचीय भाषा, प्रतीक, यथार्थ और संवेदना का नया मेल रचते हैं। उन्होंने हिंदी रंगमंच को नाट्य-संवेदना की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाया।
साहित्यिक प्रभाव और आज की प्रासंगिकता
आज जब साहित्यिक लेखन एक ओर व्यावसायिकता और दूसरी ओर वैचारिक ध्रुवीकरण से ग्रस्त है, मोहन राकेश की लेखनी एक आदर्श प्रस्तुत करती है - जहाँ लेखन आत्मा की बेचैनी का प्रतिबिंब है, और नाटक विचारों का रंगमंच। वे न संवाद को बोझिल बनाते हैं, न विचार को उपदेशात्मक। वे जीवन की सच्चाइयों को मंच पर इस तरह रखते हैं कि दर्शक उससे कतराकर निकल नहीं सकता।
मोहन राकेश की जन्मशती पर उन्हें स्मरण करना केवल अतीत में झाँकना नहीं है, बल्कि उनके रचनात्मक अवदान को आज के संदर्भों में पुनर्परिभाषित करना है। उनके नाटक, कहानियाँ, उपन्यास और संस्मरण सभी समकालीन भारतीय साहित्य की आत्मा को स्पर्श करते हैं। वे ऐसे लेखक हैं जो मंच पर प्रश्न उठाते हैं, समाधान नहीं थोपते-यही उन्हें बड़ा बनाता है।
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